Wednesday, June 23, 2010

दीप सब अब बुझ गये है

आंख के आंसू सूख गये है
दीप अब सब बुझ गये है
हो गई है रात काली
चान्द भी अब छिप गया है
पैर मेरे थम गये है
चाल मद्धिम हो गई है

रहा न अब कोई उपाय
हो गये हम है हम निरुपाय

एक तेरा आसरा है
सहारा न दूसरा है
क्या अभी कुछ और् बाकी
जो मुझे ही देखना है
अब ना जो आये प्रभूजी
नाम तेरा बदनाम होगा
कुछ ना बिगडेगा हमारा
जो भी तेरा होगा

हम तो तेरे भक्तहै बस
और कुछ ना जानते है
अब जो होगा वो ही होगा
सोच जो तूने रखा है।

अब क्या करना हमको करना

जो भी करना तू ही करना

बस इसी मे है भलाई
मौन मन अब हो गया है।

Sunday, June 20, 2010

बहुत याद आते है पिताजी

पिता केवल जनक ही नही हुआ करते
हुआ करते है हमारा सम्बल
हमारे सन्स्कार
हमारी यादे
और सबसे अधिक हमारी शक्ति ।
बच्पन अप्ना रूप तभी
ले पाता है जब पिता
नन्ही अगुलियो को थामे
जीवन की पथरीली डगर
पर चलना सिखाता है
डगमगाते े कदमो को
स्थिरता देता है
और नीर-छीर विवेकी
बनाता है।
मा महिमा मंडित होजाती है
और पिता अपने पुरुष्त्व के
खोल मे सिला बधा
न तो बेटी की विदाई पर
खुल कर रो पाता है
और न अपने स्नेह का
इजहार ही कर् पाता है
पर इससे क्या
पिता छोटे
े तो नही हो जाते

बहुत याद आते है पिताजी

Wednesday, June 16, 2010

युग को कलियुग बना रहे

राम का युग त्रेता का युग था
कृष्ण का युग था द्वापर
युग को कलियुग बना रहे हम
गलत सोच अपनाकर।

नई बात नही , हर युग मे
नारी का शोषण होता है
आज भी सीता का देश निकाला
द्रोपदी का चीर हरण होता है।

लेकिन् सीता को सहारा देने
त्रेता मे वाल्मीकि आये थे
और मूकदर्शक बनी सभा से
दुर्योधन ने शाप ही पाये थे ।

अपमान झेलती आज नारी का
दुख कम करने कोई आता है?
तमाशा देखना पसन्द सभी को
मरहम कोई लगाता है?

सम्पत्ति के बटबारे पर
विवाद होता आया है
राम को यदि वनवास मिला तो
पान्ड्वो ने अज्ञातवास पाया है।

हक छिन जाने पर भी राम ने
वनवास सहर्ष स्वीकारा है
भरत ने भी भाई की खातिर
राज गद्दी को नकारा है।

युद्ध मे अपनो के आगे खडे
अर्जुन के हाथ डगमगाये थे
धर्म की रक्षा के लिये ही
धनुष पर वाण चढाये थे।

आज हर विवाद का हल
हिंसा से ही होता है
धर्म का भले ही नाम दे
जन क्रोध के वश मे होता है ।

सूरज वही चन्दा वही
वही आसमा के तारे है
जो कल था वह आज भी है
बस बदले विचार हमारे है।

हम कलियुग मे नही जी रहे
युग को कलियुग बना रहे
यह युग भी त्रेता बन जायेगा
निष्कपट अगर भावना रहे।


प्रिय वरुण के सौजन्य से

Saturday, June 12, 2010

कहते हो कि हम आधुनिक हो गए |

अब हम देहाती गवार नहीं रहे |
बहुत पढ़ लिख गए हैं
पहले तो बक्सों में
दो चार कपडे रखे होते थे
और वही हमारे आलमपनाह हुआ करते थे|
अब तो बड़ी अलमारिया
कपडो से भरी
और लोकर जेबरों से लदे -फदेहै|
हम यह भी नहीं जानते कि
कितने रंग और कितनी वैरायटी
से हमारे बार्दरोब फुल है
पर यह भी उतना ही खरा सच है कि
आज ये सब प्रदर्शन और प्रदर्शन है |
पहनने की इच्छा कब की खत्म हो चुकी है|
आज कोठी में तो आ बसे हैं पर
मोहल्ले के रिश्ते दीमक चाट गई|
घर की बैठक में सोफे और दीवान तो सज गए
पर आने वाले औपचारिक होगये
अब दोस्तों की हंसी और ठहाके नहीं गूंजते |
बेडरूम तो सज गए
पर नींद चोरी हो गई
जहाजनुमा पलंग और गुदगुदे बिस्तरों पर
दंपत्ति करवटें बदलते अपनी ही छाया से
अजनबी हो गए|
घर के आले मेंरखे दर्पण में
मुखडा देखने की फुर्सत तो थी
अब ड्रेसिंग टेबल में अपने चेहेरे
भी बेगाने होगये\
और आप कहते हैं कि
हम आधुनिक हो गए|
बड़ी-बड़ी उपाधियों के पुलंदे तो बंधे
पर बेटा और बेटियाँ ही
पराये हो गए|
बैंकों के खाते तो दुगने तिगुने हुए
पर परिवार तो किरच-किरच बिखर गए|
दुनिया में रिश्ते तो बहुत बने
पर खून के रिश्ते तो
तार-तार हो गए\
और तुम कहते हो कि हम
आधुनिक हो गए|

Wednesday, June 9, 2010

सुख-दुःख

जीवन में जब दुःख आया
घनघोर अन्धेरा घिर आया
लेकिन इस अन्धेरें में भी
बहुत कुछ नजर आया |

नजर आयी अपनी कमजोरी
पक्के रिश्तों की कच्ची डोरी
दुनिया के मेले में
सुन्दर मन और सूरत भोरी |

दुःख कभी बर्बाद न जाए
जीवन में कुछ नया सिखाये
किसी कोने में कहीं छिपे
उन गुणों को सामने लाये|

बाद में सुख जब आता है
ईश्वर में विश्वास बढाता है
सुख और दुःख के आने से
जीवन का मतलब आता है|

प्रिय बेटा वरुण के सौजन्य से

Monday, June 7, 2010

मत भूलो कि तुम लड़की हो |

कितनी बार तो समझाया है
पर हर बार भूल ही जाती हो
कि तुम एक लड़की हो|
किताबों में जो कुछ लिखा है
और जो तुमने पढ़ा है
वह तो किताबों का सच है|
बस याद करने और परीक्षा में
पास होने और उपाधि लेने के लिए |
तुम्हारा एम.ए.,बी.ए. होना
डिग्री लेने के लिए अच्छा है
पर उसे व्यवहार में लाने से
सामाजिक व्यवस्था बिगड़ती है |
पगली लड़की ,इतनी भी नहीं समझती
नौकरी वौकरी तब तक ही ठीक लगती है
जब तक स्वीकृति मिले |
ये तुम्हारा अपना स्वतंत्र निर्णय नहीं
और दो चार किताबें क्या पढ़ ली
फ़िल्में क्या देख ली प्यार करने
चल पड़ी|
अरी बेबकूफ ये सब
े भले घर की लड़कियों को
शोभा नहीं देता |
माँ -बाप की बदनामी होती है|
और तू है कि किताबों का हवाला दिए
जारही है|
कहाँ सर छुपाये तेरा बूढा बाप
और माँ तो मर ही जायेगी |
और कैसे होगी तेरे भाई-बहिनों की शादी
पगली ,पड़-लिख,पर उतना ही
बोल ,जिससे घर बना रहे |
ये रीजनिग ,मनोविज्ञान सब
वाहियात बातें है
क्या कहा तू अब बड़ी अफसर बन गई है |
पर बहना , घर में तेरा दर्जा अभी वही है
पहली क्लास बाला ,अभी तो तू ककहरा सीख |
और ये लड़का ,जो आज तुझे
हवा में झूला रहा है
ये तो उसके मुंगेरीलाल के सपने हैं
जो सुनने में हसीन जरूर लगते हों
पर जल्दी ही बिखर जाते हैं|
फिर एक बार सुन
और हमेशा याद रख कि
तू एक लड़की भर है|

Saturday, June 5, 2010

बिजूके

पिताजी
यानी स्नेहिल सा स्पर्श
आवश्यकताओं को कहने से
पहले ही समझने वाले
कभी अंगुली थाम
तो कभी कंधे पर
कभी पीठ पर बिठा
तैराते यमुना में
कभीमेले में घुमाते
तो कभी बस में बिठा
अपने बचपन को शेयर करते |
ऐसे मेरे पिता
ना जाने कब और क्यों
एक दिन अचानक
बिजूके ं हो गए|
मैं समझ ना पाई |
कभी खेत में लगे
मुखौटेको देखकर
पूछा था पापा-पापा ये क्या है
लाली ,खेत की रखवाली
करते है ये बिजूके
और हतप्रभ होती
मैं जान ना पाई थी तब
ये अशक्त बिजूके क्या रक्षा
कर पायेंगे खेतों की
क्या डरेंगे पक्षी
इस कपडे पहनेबांस से
पर जब पिताजी का स्वर्गवास हुआ
तब जाना बैठक में चुपचाप बैठे पिता
बीमार पिता ,अशक्त पिता
घर की रक्षा के लिए
बिजूके बने रहते |
और हम वयस्क होते भी
सब कुछ उन पर छोड़
बहुत ही निश्चिं त रहते थे|
न जाने क्यो
ं तब से घर की बैठकमें
बैठे बुजुरगों के चेहेरों पर
मुझे बिजूके चिपके नजर आते हैं|

कृष्ण कृपा

व्यथित न हो जीवन में
कृष्ण मुझसे कहता था
लेकिन यह मूरख मन
चिंता में डूबा रहता था |

घोर निराशा की रात काली
जब जीवन से छूट गई
लीलाधर की लीला
तब मुझे समझ आई |

यशोदा ,सुदामा या ब्रजवासी
सबको बहुत रुलाया है
तो इसमें नई बात क्या
तेरी आँख में आंसू आया है|

चित से नटखट कान्हा का
काम परेशान करना है|
लाख विप्पत्ति आये जीवन में
तुमको हंसते रहना है|

नटखट काम भले हो कितने
श्याम का श्वेत बड़ा ही दिल है
बाधा कितनी आये राह में
मिलनी पक्की मंजिल है|

तू भले ही भूल जाएगा
या प्रश्न चिन्ह लगायेगा
लेकिन वो कुशल सारथी
रास्ता पार् कराएगा |

व्यथित न हो जीवन में
जब कृष्ण मुझसे कहेगा
तब ये मूरख मन बस
कृष्ण कृपा में डूबा रहेगा|

प्रिय बेटे ड़ा. वरूण भारद्वाज के सौजन्य से

Thursday, June 3, 2010

जो अपने देते हैं,उसे क्या दंश कहते हैं|

एक सवाल अक्सर आजकल
मन में उमडता-घुमड़ता है
जो अपने होते हैं
वो क्या दंश देते हैं?

अपना अंश जब बड़ा हो

अपने फैसले लेता है
और हम निजी कारण वश
उससे इत्तफाक नहीं रखते |

तब हम अथवा वे
गलत ठहराये जाते हैं|
खोद-खोद कर गड़े मुर्दे
उखाड़े जाते हैं|

नई दलीलेंखोजी जाती है
तर्कों के अम्बार रचे जाते हैं
और ऐसा शो किया जाता है
मानो हम दूध के धुले हैं|

इस नाटक का पटाक्षेप

भी होता होगा देर -सबेर
पर तब तक इतना कुछ
घट चुका होता है कि
कहने सुनने के लिए
जो शेष रह जाता है
वह बस मानसिक यंत्रणा
और थुक्का फजीहत के
सिवा कुछ और नहीं होता|

सच है रिश्तों की दुनिया बड़ी
मनमोहक और प्यारी होती है
पर जब टूटती है तो सब
कुछ ले डूबती है |

दर असल अपनों के द्वारा
खाई चोट दिल पर सीधा
वार करती है
और चोटिल जन की गति
सांप-छछूदर की माफिक होती है |

इसलिए तो कहती हूँ कि
अपने कलेजे के टुकड़े के
द्वारा दिए गए घाब
घाब और दंश नहीं
हुआ करते
वे तो प्यार की अधिकता के
चिन्ह और अपने व्यक्तित्व के
दर्पण हुआ करते हैं|

Wednesday, June 2, 2010

कान्हा अब तो आना होगा

कान्हा अब तो आना होगा
अपना वचन निभाना होगा
कल-कल करते बरसों बीते
नयना भी अब हो गए रीते |

विदुर घर छिलके खाते हो
द्रुपद का चीर बढाते हो
बिठा कर गीध को निज
गोद में आंसू बहाते हो |

जब हम बुलाते हैं
कान्हा क्यो न आते हो
पल-पल हमें तरसा
न जाने क्या तुम पाते हो|

मेरे धीरज की परीक्षा है
यह तो मुझको मालूम है
पर कान्हा अब क्यों

मुझे कमजोर करते हो|

जब दी बिपत तुमने
तुम्ही को दूर करनी है
हमारा अब क्या बिगडेगा
भक्त तेरे कहाते हैं|

कान्हा तुमको आना होगा
अपना वचन निभाना होगा |