Tuesday, April 20, 2010

मन मौसम हो आया है|

ना जाने क्यों 

   ये मन

मौसम हो आया है |

जब गर्म हवाएं चलती है

लू सबको झुलसाती है

घर के एसी ,कूलर भी 

गरम हवाएं देते हैं

इस मन का क्या हाल कहें 

मुरझाई ककड़ी जैसा है|

जब पारा कमहो जाता है

सर्द हवाएं चलती है

जाडे की लंबी रातें

बातों में कट जाती है 

यह मन जाने क्यों 

भुनी मूंगफली होता है|

जब आती बरखा रानी है 

और चाय पकौड़ी चलती है

बरसाती रातों में मन

जाने क्यों भीगा-भीगा  है|

  पतझड़ का मौसम आया है 

पीले पत्तों से बाग अटे

चर-चर मर-मर ध्वनियों से

अपने ही पागल कान ढके 

मन भी झरता-झरता सा है|

 बासंती मौसम आया है

पीपल की लाल नई कोंपल

मेरे मन को भा गईहै

मन हरियाला सावन है

अब हवा भी देखो महक उठी 

आँगन अपना सरसाया है

मन मौसम हो आया है|

Sunday, April 11, 2010

अब रिश्ते भी गणित हो गए |

हाँ जब मैं छोटी थी

माँ हर बात पर कहती थी 

रिश्ते रिश्ते होते हैं

कोई दो दूनी चार के फार्मूले 

नहीं हुआ करते|

ये तुम्हारे सवाल नहीं है

जिनके उत्तर अन्तिम पृष्ठ पर छपे हो 

और तुम सवाल  ना कर पाओ 

तो झट उत्तर टीप लो|

हर रिश्ते की गरिमा और उसका वजूद

अपनी शिद्दत से महसूस कर पाते थे|

घर मेंशादी हो ,ताऊ-चाचा,बुआ 

मामा,मौसी के यहाँ

भाई बहिन काजन्म हो|

हर बार हमारा जाना सुनिशिचित था|

और रिश्तों की गर्माहट से 

और हरहराहट से जिंदादिल होते हम

एक और अवसर की प्रतीक्षा में

खाना -पीना सब भूल जाते|

अब नाते -रिश्तों का क्या 

सब भौतिकता निगल गई

अब तय होते हैं रिश्ते

संबंधों से नहीं

खून से नहीं

केवल और केवल आपके 

स्टेटस से,

स्वार्थ से ,

मतलब से 

अब वाकई रिश्ते गणित हो गए 

दो और दो चार हो गए|

Sunday, April 4, 2010

व्यावहारिकता

यदि व्यावहारिकता के नाते 

ना चाहते हुए भी

मुस्कराहट बिखेरनी होती है|

आंसुओं को जज्ब कर 

भरसक खुशनुमा शक्ल  

अखित्यार करनी होती है|

और उन मवालियों के आगे

घुटने टेकने होते हैंजिन्हें आप

स्वप्न में भी देखना पसंद नहींकरते|

तो ऐसी सामाजिकता और

व्यावहारिकता के चलते

बेहतर है एकांत|

जहां आप कम से कम

अपना मन तो खोल पाते है|

अव्यावहारि क   कहे जाते

कम से कम मजबूर तो नहीं होते 

उन आदर्शों और मूल्यों  

की रक्षा तो  कर पाते हैं

जो आपका ओढन और बिछावन होते है|

कम पाते है तो क्या 

अपने मन के राजा तो हैं|

तलवे तो नहीं चाटते 

उन अपराधियों के

जिन्हें मनुष्य कहते

शर्म भी खुद शर्मा जाती है|

ऐसी व्यावहारिकता से तो

कई गुना अच्छा है

अपने वजूद को जिन्दा रख पाना|

बोले तो अब क्या बोलें?

कहने को अलफाज नहीं ,

शब्दों के आगार नहीं है|

कह-कह कर मन घट रीता ,

उम्मीदों की थाह नहीं है |

अपना सा सब हम कर बैठे,

सीमा अपनी खत्म हो चुकी |

दे दी अब तो अंतिम अरजी ,

भविष्य हमारा उज्जवल होगा 

सुन लेगा विश्वास बढ़ेगा ,

आस्था का संसार बनेगा|

बोल -बोल कर मौन हो चुके ,

वीणा के सब तार सो गए |

अब अपना विश्वास बढा  है ,

जो भी होगा हित में होगा |

घटा अंधेरी छंटने वाली ,

नया सवेरा आता होगा|