Tuesday, June 30, 2009

मेरी कविता

क्यों होती है एक औरत रोज-रोज परेशान

क्या उसे हक नहीं होता अपनी जिन्दगी जीने का?

क्यों एक आकार नहीं ले पाते उसके अपने सपने?

क्यों हर कदम पर उसे एक -एक इंच बढ्ने से पहले 
सोचना होता है कई-कई बार?

क्योंउसकी जिन्दगी के फैसले दूसरों की स्टाम्प के होते है मोह्ताज?

आखिर क्यों और क्योंहोता है ऐसा?

पढ्ते हुए ढेरों-ढेरों पन्ने किताबों के

देखते हुएहजारों सच्ची घटनाओंको

अब लगने लगाहै

होता है ऐसा

क्योंकि औरत कभी नहीं चुनती अपना जन्म

कुछ और की आस में पलती रहती है नन्हींजान

और जब आती है इस दुनिया में

ढेरोंविसंगतियोंका शिकार होकर

अपनी जिजीविषा के बल पर

चुनौतियों का सामना करती जातीहै

चलती जाती है अपनी उस मंजिल पर 
जिसे उसने कभी चुना ही नहीं होता

बस अपनों की खुशियों की खातिर

हर मुसीबत को झेलती कभी उफ तक नहीं करती

पर वही अपने जब देते हैं दगा

कर देते है उसे यूंही बदनाम

तो वह टुटती ही जाती है और एक दिन
बिना किसी शिकवा-शिकायत के 
 सब कुछ छोड चल देती है फिर किसी को खुश करने

क्योंकि उसका जन्म ही

दूसरोंकी इच्छा पर निर्भर होता है

और इतना ही नहीं अब तो उसकी मौत भी 
दूसरे हे तय करने लगेगी है।

-- 
Dr.Beena Sharma
http://prayasagra.blogsp

पूर्णिमा

कहने को तो पूर्णिमा बाजपेई इस कहानी की नायिका है, पर र्मैं उसे नायिका कैसे मान सकती हूं।मुझे तो हर दो की गिनती के बाद तीसरी लड़्की पूर्णिमाही नजर हीआती है।पूर्णिमा पूर्णिमा न होकर अनुराधा,योगदा,सलेमा,भाग्यश्रीया उपासना जो भी होती और बाजपेयी,न होकर वर्मा,सिंह,देका राभा,रेड्डी जो भी होती तो क्या उसकी जिन्दगी की किताब किसी और रंग से लिखी जाती।पर एक घटना को कहानी का रुप देने के लिये मैं उस बच्ची का नाम पूर्णिमा रख लेती हूं।

  हांपूर्णिमा मेरी बहिन थी,प्यार से उसे हम पुनिया कहते थे।सामान्य बुद्धि की बच्चीऔर भाई-बहिनोंजैसी उच्च शिक्षा तो न ले सकी,पर घरेलू कार्यों और व्यवहार में हम सबकोमात देती थी।विषयोंकी सैद्धांतिक जानकारी देतीमैं उसे विग्यान और गणित के सूत्र तो रटाती रही,,अंग्रेजी व्याकरण के टेंसों ों में उलझाये रही पर जीवन को जीने के दो चार गुण सरल भाशा में न समझा पाई।जो कुछ उसके पास था हम बड़े उसेजान ही न पायेे,अपने बड़्प्पन का लोहा ही मनवाते रहेऔर बात -बात में उसे बुद्धू करार देकर उसकी क्षमताओं को नजर अन्दाज करते रहे ।वह जैसी थी,हम उसे स्वीकर नहीं कर पाये और छैने हथोड़ा लेकर,दूसरों के जिन्दगी से उदाहरण ले -लेकर उसे मूरत की तरह गड़्ने की कोशिश में लगे रहे ।हर वक्त की आलोचनाओऔर् उपेक्षाओं के कारण बालमन इतना कुन्द हो गया कि विवाह के पश्चात उसेजो थोडी बहुत अवांछित् स्वतंत्रता मिली ेउसे वह स्वर्गिक सुख मान बैठी।सही गलत समझने की शक्ति तो उसने कहींउठाकर रख दी थी।चमकते बर्तनो में चेहरे की चमक् ढुंढती मेरी पुनिया अपना दर्द सीने में दबाये ,सिर बांधेपडी रही,सब कुछ सहती रही,पर मुख पर मुस्कराहट का मुखौटाा ओढे रही।
 जब तक उसने स्थितियों को समझना शुरु किया ,बात हाथ से निकल चुकी थी।मां के परिवार मेंउसकी आलोचना के मूल मेंउसका हित होता था,पर यहां उसकी सिधाई का शोषण शुरु हो गया था।पति के रुप मेंउसे ऐसा दरिन्दा मिला जौसे न मरने देता था न जीने ।उसकी भावनाओं को ब्लैक मेल किया जा रहा था।न जाने कितनी लिखित तहरीर ठीक जो उसने प्यार के आगोश में लेपुनिया सेे लिखबा ली थी।
भोली बच्ची उस नाटकबाज के ढोंग को प्यार समझती रही,उसपर अपना सब कुछ लुटाती रही।और वह लुटेरा अपना मतलब साध बहुत जल्द उसे दूध में पडी मक्खी की तरह निकाल चुका था।तब उसके सिर बांधे पड़े रहने का औचित्य मेरी समझ से बाहर था। हर बार मां-बापु से कहती-इतने बैभव में भे पुनिया पनप क्यों नहीं रही है?" अब लगता है बचपना तो उस समय में कर रही थी,जो पुनिय के सुख को घर के पर्दों,सोफों,साड़ियों की गिनती और जेवरों की चमक में तलाश रही थी। जब तक असलियत जान पाई,बहुत देर हो चुकी थी।मेरी बच्ची जैसी बहिन एक दरिन्दे के हाथों की कठपुतली बन चुकी थी।

योजना के अनुसार जब वह दरिन्दा ढील छोड-ता और पुनिया उसकी मांगों को लिये हमसे मिलती तो हम््पुनिया की कुशलता एक दो वाक्यों में पूछ अपने कर्तव्य की इतिश्री मान बैठते थे-पुनिया तू कैसी है,तेरा सल्लू कैसा है,राजा बेटा कैसा है? बस और हमारे प्रशनोंके उत्तर मेंवह सिर्फ मुसकरा देती थी।पीडा से भरी उस मुस्कराहट को हमने बहुत हल्के ढंग से लिया था।मां ने जब भी अपनी इस संतति को लेअपने चिंता जताई तो सभी ने यह कहकर उनका मुंह बन्द कर दिया,"अरे थोडी बहुत ऊंच नीच तो हर लड़्की के साथ लगी रहती है।हर लड़्की को को थोड़े बहुत दबाबों का सामना तो करना पड_ता है।"जब -जब् उससे मिलना होता ,मुलाकात नितांत औपचारिक हुआ करती थी।न वह अपना मन खोलती और हम अपनी व्यस्तताओं के घेरे मेंकेवल सामाजिकता का निर्वाह भारत कर देते थे ।जीवन की उंच -नीच और संघर्षों से डरती बच्ची इतना चुपा गई थीकि कभी अपने को किसी के आगे खोलना उसने मुनासिब नही।समझा।कह भी लेती तो हम क्या तीर मार लेते ।उसकी जिन्दगी के किस-किस मौड़ पर हाथ लगा लेते ।नितांत गोपनीय क्षणोंों कादमन वह किस् -किस को सुनाती।क्या सबसे यह कहतीकि पेश मुझसे अपना सुख लूट्मुझे खोखला कर रहा है।मेरी मर्यादा की उसकी निगाह में कोइ कीमत नहीं है,मैं उसके हाथों क खिलौना भारत हूंजिससे जब चाहता है खेलता है और जब चाहता है पटक देता है।हां,उस भूखे भेड़िये ने संतति को अपने कब्जे में कर उसे े पागल करार दे दिया था।पुनिया की लिखित तहरीरें अब उस दरिन्दें के काम आ रही थी।
 इन तर्कों के आधार पर उसे े पगली बता तलाक लेने की योजना बना ली।पहला कदम पुनिया को उसके मां-बप के घर पटकना था।संतति छीन ली गई,ढेरों आरोप लगाये गयेऔर बहुत कम बोलने बाली पुनिया को कोर्ट -कचहरी में ला खडा किया गया।बूढे मां-बाप सीमित साधनों में इस जंग के मोहरे बन गयेऔर पुनिया इतनी थुक्क्म -फजीहत के बाद भी इक टूटी आशा लिये रहीशायद मेरा पति, मेरा देवतामुझे अपने घर के एक कोने मेंपडा रहने देगा,जिससे मे री जिन्दगी गुजर जायेगी।पर कहां हो पाया ये सब?इस लम्बी लडाई में सब अपना- अपना हित देख ते रहे।सम्बन्धी अपनी सुरक्षा के लिये चिंतित थे,सबको लग रहा था कहीं यह आफत हम पर न आजाये।एक दो जो हिम्मत जुटा कर खडे थे,ढेरो6 आलोचनाओं का शिकार होकर बार-बार गिरते मनोबल के साथ दूसरी पंक्ति में मिलने को तैयार हो जाते थे।किस मुशकिल से संभली थी सारी स्थितियां।

अथक प्रयासों के बाद पुनिया के हाथ ्केबल इस जंजाल से मुक्ति लगी थी।उसे खुश होना चाहिये था,पर इतनाकुन्द मन और थका शरीर लिये उससे खुश भी नहीं हुआ गया।जिस दिन सम्बन्धों के टुटने के समाचार पर सरकारी स्टाम्प लगी,पुनिया को अतीत रह -रह याद आया था।पुनिया ने बिस्तर पकड लिया था। हम उसे तन का कष्ट मान डाक्टरोतक दौडते रहे,नये-नये खिलोनों से उसका मन बहलाते रहे,पर वह तो जैसे बिल्कुल चुपा गयी थी।कभी बाजार भी जाती तो अपनी टूटी ग्रहस्थीके अंगो-उपांगों की साज-सज्जा की मांग धीमे स्वर मे रखतीऔर हम बडेउसका तुरंत विरोध कर -वहां सब खत्म हो चुका है,अब उस विशय में कुछ मत सोचो-कह कर उसे मौन कर देते थे।पर क्या निर्देश देकर आन्दोलित मन में ठहराब लाया जा सका?अन्दर ही अन्दर घुलतीपुनिया एक दिं न बिना कुछ्कहे बीमारी की आड मेंहम सबको छोड् गयी,सबको मुक्त कर गयी।कितने चिंतित रहा करते थे हम उसके भविश्य के लिये,इसका क्या होगा कैसे होगा,पर उसने हमें कुछ भी कहने-सुनने के लिये मौका नहींदिया।जब तक रही,एक कठपुतली की तरह जिन्दा रही।कहा तो खालिया,जागो तो जाग गई सो जाओ तो सो गयी-सब कुछ रिमोट वत करती रही।

अब उसका बचपन रह-रह याद आता है।सिर मेंदूसरे बच्चे के द्वारा कंकड मारे जाने पर बहते खून को अपनी फ्राक में चुपाती पुनिया बडे होने तक अपनी इस प्रव्रति को भूली नहीं।जो भी दुख मिला उसे स्वयम मेंचिपा पीती गई।कभी लगता था स्थितियां इसी के कारण बिगड रही हैं,पर वह कभीमूल में थी ही नहीं।जो जो उसने चाहा,उसके लिये संघर्ष चाहिये था।आसुरी शक्तियों से संघर्ष तो विरले ही ले पाते हैंफिर उसने तो कभी अपनी छिपी शक्तियों को पहचाना ही नहीं।

क्यों किया पुनिया तुने ऐसा?एक बार तो उठ कर खडी हो जाती,कहींएक व्यक्ति केजीवन से हटने से सब कुछ्समाप्त हो जाता है?अपना मनोबल ऊंचा रखतीपुनिया,तो तुझे वह सब मिलता जिसकी तू हक्दार थी।तूने एक कदम पीछे हताया तो दुनिया ने तुझे सौ धक्के और दिये। मेरा मन बार-बार धिक्कारता है,क्यों मैंपुनिया में आत्मविश्वास नहीं जगा पाई?मेरी पुनिया तो चली गई,पर अब कोशिश है कोइ और बच्ची पुनिया सा जीवन बिताने पर मजबूर न हो।बिगड्ती स्थितियों मेंनियति को दोशी न ठहरा कर हाथ पैर चलाये जायें,सम्भव है कुछ प्राप्त हो जायेऔर प्राप्ति न भी हो तो कम से यह संतोश तो रहे कि हमने कोशिश तो की थी।पुनिया:मेरा भी वादा है तुझसे कि मैंअब किसी बच्ची को पुनिया बनने से रोकने की कोशिश करूगीं।यही मेरी श्रद्धांजलि होगी तेरे लिये।

 


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Dr.Beena Sharma
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Monday, June 22, 2009

लो कहां आ गये हम्

हम पांच बहिनों और भाई की शादी की एक- एक रस्म मुझे मुंह जबानी याद है।उन 

दिनोंशादी के नाम पर घर रिश्तेदारों से भरा-पूरा रहता था। शाम होते ही घर की 
लड़कियां और बहुएं ढ़ोलक की थाप के साथ गीत गाना शुरु कर देतीऔर देर रात तक नाच-गाने का कार्यक्रम चलता रहता।और गाने भी देशी,वरना,वरनी,भात,घोड़ी,ढोला,रजना और बड़ी-बूढियों के गीत। इन गानों में घर के सभी रिश्ते-नातों का जिक्र होता था।
विवाह की शुरुआत दीदी या बुआ के देहरी सिरांने से होती थी।उन लोगों के द्वारा लाई गई मिठाई अपने परिचतोंऔर रिश्तेदारों के यहां बांटी जाती थी।उन दिनों भी नाउ और नाइन होतेहोंगें पर हम घर के छोटे बच्चे इस काम को खुशी- खुशी करते थे।आखिर हमारे भैया या दीदी की शादी जो थी।महीने भर पहिले ही हम बच्चों के लिये नये कपडे बनने शुरु हो जाते थे। लगन से पूर्व घर में गेहूं. साफ करने और मसाले पीसने का कार्य शुरु हो जाताऔर मोहल्ले की चाची,ताई, भाभी सभी इन कामों में बद-चढ कर भाग लेती।हर कार्य मंगल गीतों के साथ सम्पन्न होता था।लगन वाले दिन गाया जाने वाला “रघुनन्दन फूले ना समाय लगुन आई हरे हरे मेरे अंगना”आज भी उसी जोर- शोर के साथ गांव –देहातों में सुनने को मिल जाता है। वरनी गाते समय माहोल इतना कारुणिक हो जाता था कि लाडो और मां की आंखों से बहते आंसू सबको रुला जाते थे। सात या पांच दिन की लगुन हम बच्चों के लिये ढेर सारी खुशिया लेकर आती।किसी दिन हल्दी और तेल के गीत तो कभी घूरा पूजने की रसम ,कभी बूढे बाबू की पूजा तो कभीकुम्हार को बुलाकर लाना।कभी रतजगा तो कभी भात के गीत ।कब रात होती और कब सबेरा ,कुछ ध्यान नहीं रहता था।बस एक ही धुन ,एक ही खुशी कि हमारे घर शादी है।उन दिनों मुझे बडी-बूढियों के गीत कभी समझ नहीं आते थे बस एक आलाप सुनाई देता और शब्द कहीं खो जाते। समझदार होने पर पाया कि असली गीत तो वही होते थे। उन गीतों की एक बानगी यहां दे रही हूं-द्रष्टव्य हो कि ये गीत माता और पिता के सभी रिश्तों का प्रतिनिधित्व करते थे। जब मां ने मुझे विवाह सम्बन्धी गीत सिखाये तो मैंने रिशतों का इक क्रम अपने जेहन में सुरक्षित कर लिया और वह आज तक याद है।सबसे पहले बाबा-दादी,ताउ-ताई,पापा-मम्मी,चाचा-चाची,भाई-भाभी,बुआ-फूफा,नाना-नानी,मामा-मामी और सबसे अंत में मामा-मामी।लगभग सभी गीतों में इन रिशतों काजिक्र होता था।मेरा बाल मन कभी विरोध करता था कि मेरे सबसे अच्छे नाना-नानी का नाम सबसे बाद में क्यों लिया जाता है।खैर अब तो सब समझ आगया है। उस समय फिल्मी गीतों के आधार पर ये गीत नहीं गाये जाते थे। -माढे के बीच लाडो ने केश सुखाये।बाबा चतुर वर ढूढों,सयानो वर ढूढो, दादी लेगी कन्यादान , लाडो ने केश सुखाये।
इसी तरह सभी रिश्तेदारों के नाम लिये जातेहैं।एक और गीत है-मेरा सीकों काघरोंदा रे , बाबुल चिडिया तोडेंगी तेरा आंगन सूना रे ,बाबुल मेरे जाने से और फिर पिता का उत्तर मेरी पोती खेलेगी, लाडो घर जा अपने। तेरी गलिया सूनी रे, बाबुल मेरे जाने से तेरी सखिया खेलेंगी, लाडो घर जा अपने तेरी बगिया सूनी रे, बाबुल मेरे जाने से तुझे सावन में बुलाय लुंगा,लाडो घर जा अपने। भाई के द्वाराबहिन के बच्चों की शादी में जो सहायता दी जाती है, उसे ही भात देना कहा जाता है।शादी –विवाहों में सर्वाधिक गाया जाने वाला भात है- बहना चल मन्ड्प के बीच, अनोखा भात पहनाउंगा
सास तेरी को कोट पेंटऔर टाई लगाउंगा
ससुर तेरे को साडी जम्पर चुनरी उडाउंगा आगे इसी तरह जेठ –जिठानी.देवर-दौरानी,ननद-ननदोई के नाम लिये जाते है।
लगभग सभी गीतों में कन्या और वर पक्ष के माता-पिता, भाई- भाभी,बहिन-बहनोई और सभी रिश्तों को आधार बनाया जाता है।ये गीत कहीं न कहीं कन्या और वर को इन रिश्तों की अहमियत बताते हैं।विवाह के समय सम्पन्न की जाने सभी रस्में जीवन की व्यावहारिक समस्याओं से जुडी हुई है।पर आज का परिद्रश्य बिल्कुल बदला हुआ है।शादी को दो परिवारों का बन्धन नहीं, केबल दो और नितांत दो व्यक्तियों का आपसी समझोता मान लिया गया है।शादियों मे होने वाले महिला संगीत का रूप बिल्कुल बदल गया है।केवल कुछ प्रोफेसनल द्वारा गाना बजाना होताहै,फिल्मी गीतों पर बच्चिया न्रत्य करती करती है।इन गीतो और न्रत्यों में लोक तो इतना धूमिल हो गया हैकि ढूढने पर भी नहीं दिखता।
इस सबका परिणाम यह है कि रिशते अपनी गरिमा खोते जा रहे है।आपासी तनाव और वैमनस्य बढ रहे हैं।अभ भी समय है कि इन पुराने रीति- रिवाजों और गीतों को न केवल सुरक्षित रखा जाये बल्कि इन गीत और लोक्ंरत्यों के निहितार्थोंको समझा जायें।जिसके पास जो कुछ भी है वह नयी पीढी को इन सबसे परिचित करायेऔर इसके महत्व को रखांकित करें।हो सकता है हमारा ये गिलहरी प्रयास संसक्रति संरक्षण में कोई चमत्कार दिखाजाये।

Thursday, June 11, 2009

औरत तेरे रूप अनेक

मां जब मुझको कहा पुरुष ने,तुच्छ हो गये देव सभी

इतना आदर इतनी महिमा,इतनी श्रद्धा कहां कभी

उमड़ा स्नेह सिन्धु अंतर में,डूब गई आसक्ति अपार

देह गेह अपमांन क्लेश छि:.विजयी मेरा शाश्वत प्यार

बहिन पुरुष ने मुझे पुकारा,कितनी ममताकितना नेह

मेरा भैया पुलकित अन्तर,एक प्राण हम हो दो देह

कमल नयन अंगार उगलते हैं,यदि लक्षित हो अपमान

दीर्घ भुजाओंमें भाई की,रक्षित है मेरा सम्मान

बेटी कहकर मुझे पुरुषने दिया स्नेह अंतर सर्वस्व

मेरा सुख मेरी सुविधा की चिंता,उसके सब सुख ह्रस्व

अपने को भी विक्रय करके ,मुझे देख पाये निर्बाध

मेरे पूज्य पिता की होती, एक मात्र यह जीवन साध

प्रिये पुरुष अर्धांग दे चुका,लेकर के हाथों में हाथ

यही नहीं उस सर्वेश्वर के निकट , हमारा शाश्वत साथ

पण्या आज दस्यु कहता है, पुरुष हो गया आज पिशाच

मैंअरक्षिता,दलिता,तप्ता,नंगा पाशबता कानाच  

धर्म और लज्जा लुटती है,मैं अबला हूं कातर दीन

पुत्र ,पिता,भाई,स्वामी,सब तुम क्या इतने पौरुष हीन

Monday, June 8, 2009

मन एक पारसमणि है।

जितम जगत केन,मनोहियेन,यजुर्वेद के इस मंत्र का अर्थ है जो मन को जीत लेता है वह सबको जीत लेता है।कृषण अर्जुन से कहते हैंमन बहुत चंचल होता है।यह मन एक कल्पवृक्ष की तरह होता है।इसके नीचे बैठ कर जो भी कामना की जाती है, वह पूरी होती है।जब मन प्राथना मेंनही होता, तब प्रार्थना बेकार हो जाती है।मन को अभ्यास और वैराग्य से वश मेंकिया जा सकता है।स्वामी विवेकानन्द कहते हैं"मन जितना निर्मल होगाउसे वश मेंकरना उतना ही सरल होगा।मनुश्य का स्वास्थ्य उसकी अंतर्मन की स्वास्थ्य सम्बन्धी उत्तम भावना पर  निर्भर करता है।

आज जिस प्रकार का जीवन मनुश्य जी रहा है,उसमे मनुश्य को तनाव मेंरखने वाले दर्जनोस्रोत है।इस तनाव मुक्ति के लिये इन उपायोंको किया जा सकता है-

हंसे और प्रसन्न रहे।

लीक से हटिये।

अतिरिक्त वाश्प निकलजाने दें।
चिंताओ को एक सीमा मेंरखें।


दूसरोंसे अपना ताल्मेल बिठाये।

मन को अनाव्रत करें।

शिथिलीकरण तनाव दूर करने का सरल तम उपाय है।

मन को अपने अनुकूल आचरणकरने के लिये बाध्य करें।

              ये कुछ छोटे-छोटे उपाय हैं जिनकोअपना कर्तनाव को कम किया जा सकता है।








Sunday, June 7, 2009

मेरी मां की साडी

जब हुआ हो उनमेंवैचारिक मतभेद

शायद तात ने खींची हो मां की साडी

जी हा ंमां की साडी, जो फट गई ठीक बेचारी

आये थे घूम पिता श्री 

मन में उल्लास भरा था
थे धूम्रपान के मद में

पकडी ठीक मां की सारी

जी हां मा की साडी ,जो जल गई थी बेचारी

दिया जन्म था हमको

हम आठों की  ही जननी

करते थे मूत्र विष्ठा भी

आधार थी मां की साडी,

जी हां मां की साडी,जो सब सहती थी बेचारी

थे उत्पात मचाते

हम बाहर जाना चाहते

रहती थी हमको जल्दी

भिगो पानी में पल्ला

मुख पोंछा था हम सबका

वह भी थी मां की साडी

जी हां मां की साडी,जो टोवल बनी बेचारी

निहित सभी था उसमें

जो कुछ भी उसने भोगा



प्रप्रेम समर्पण मुख्य ध्येय था

इच्छा अनिच्छा का प्रश्न नहीं था

चुप सहती थीबेचारी     

जी हां मा की साडी,जो पर्दा बनी बेचारी।

धोया था मां ने उसको फैलाया था आंगन में

हम खेल रहे थे छुपा-छुपी उसके ही मस्त गगन में

असीम प्रेम था उसका,वह भी ठीक मां की साडी

जी हां मां की साडी,जो सीमा हीन बेचारी

हो गई थी बहुत पुरानी

पर फैंकी नहीं गई थी

उससे बना बिछौना

सोयेगा नन्हा छौना

जो गद्दी बनी पडी थी

वह भी थीमांकी साडी

जी हां मां की साडी ,जो कल्पवृक्ष थी सारी।



Saturday, June 6, 2009

जीओ तो सकारात्मक सोच के साथ्

आज हम सभी चिंता और तनाव मेंघिरे हुए हैं।पूरी दुनिया के प्रति हमने नकारात्मक सोचअपनालियाहै॥सबबुरेहै,सबखराबहै, पता नहीं मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है,भगबान भी मेरी परीक्षा लेता रहता है, इतना करने पर भी लोग मुझे मान्यता क्यों नहीं देते आदि- आदि।इन सभी धारणाओं के साथ जीने से हम सबसे पहले और सबसे बडा नुक्सान अपना ही करते है। सब कुछ उतना खराब भी नहीं होता जितना हम सोच लेते है।अपनी असफलताओके लिये दूसरों को दोष देना बहुत सरल काम होता हैपर उन असफलताओ के कारणो का विवेचन करना हमारा पहला काम होना चाहिये।

सकारात्मकता बाबा के मोल नहीं मिला करती और न ही ये एक दिन मे उपजती है ।दर असल यह जीवन जीने की कला है।यदि किसी व्यक्ति के साथ हमें रहना ही है तो क्यों न हम उसके गुणों को खोजें वनसपत  हर समयछोटी
  छोती बातों को आधार बनाकर उसकी आलोचना ही करते रहे ं परेशानी आने पर अपने को कोसने लगना समस्या का विकलप नहीं हुआ करता।किसी  की कोइ भी समस्या इतनी बडी नहीं हुआ करती कि उसके पीछे जीवन को ही दांव पर लगा दिया जाये।किसी बात के छोटे -छोटे पहलुओं पर विचार करने से आधे समाधान हो जाते है।

सब कुछ अच्छा ही होगा इस भावना के साथ काम करने से मनोबल बढता है।अच्छा सोच आपके जीवन के प्रति दृष्तिकोण  को दर्शाता है।किसी से मिलने पर तीसरे की आलोचना करना यह दिखलाता है कि आप की वृत्ति  सबको क्रिटिसाइज करने की है। हम सबसे पहले अपने को देखना शुरु करें कि हमारे अन्दर क्या कमिया है और उन्हें हम कैसे दूर कर सकते है।अच्छे विचारो के स्वामी बनें और अपने नकारात्मक सोच को बदले।

Wednesday, June 3, 2009

अब क्यों नहीं होती गर्मियोंकी छुट्टियां?

अब क्यों नहीं होती गर्मियों की छुट्टियां?
जून की तेज गर्मी और याद आता है नानी के घर का बडा सा अहाता,मामा और मौसी के बच्चों के साथ मचाई धमा चौकडी,नानी का ढेर सा दुलार ,नानी से मां की शिकायते, पढाई लिखाई से पूरी तरह से छुट्टी।पहली जुलाई,रिचार्ज और रेफ्रेश हुए हम ,नई नई चमक दार किताबें,स्कूल का पहला दिन, सभी बच्चे अपने –अपने अनुभव सुनाने को बेताब ,बारिश के धुले –पुछे से चेहरेऔर मन में ढेरों उमंगें। और अब सत्र ही बदल गया।अप्रिल में ही शुरु होता नया सत्र,छु ट्टियों के लिये ढेरों होमबर्क् और कहीं बाहर जाने पर यह डर कि यदि होमबर्क पूरा नहीं हुआतो।आज के बच्चे नाममात्र की छुट्टी में भी समर केम्पों में व्यस्त हो गये है।इन केम्पो मेंफिल्मे गानों और न्रत्य की भरमार है।बच्चों से घर पूरी तरह छूट रहा है।उसे अचानक बडा मान लिया गया है।स्कूल ,ट्युशन/कोचिंग.स्पोर्ट्स ,स्विमिंग,औरभी न जाने क्या ।घर उसकी प्रतीक्षा नहीं करता।दो आतुर बाहें उसे अपने में समेटने को आगे नहीं बढती। देर रात पिता के आने से पहले ही वह निढाल होनों सो चुकाहोता है।दादी-नानी की कहानियों से मरहूम है वह।उसका भविश्य अंकों और डिवीजनों से आंका जारहा है। 
अब उसे अंत्याक्षरी में हिन्दी कवितायें,प्रार्थना,दोहे,चौपाई ,सोरठा,कवित्त,नहीं रटाये जातें।अपने आस-पास के वातावरण में बजते द्विअर्थी गीत उसकी जुबान पर चढ चुके है।जिन बातो का अभी बह अर्थ भी नहीं समझता,उन्हें बेहिचक बोल देता है। आखिर हम माता –पिता केबल स्कूलों की पढाई पर ही क्यों निर्भर है।इन छुट्टियों का उपयोग अपने बच्चों को कुछ नया सिखाकर क्यों नहीं कर लेते।हम बच्चों को ग्यान का बंडल तोजरूर थमा रहे है लेकिन जीवन में आने वाली व्यावहारिक परिस्थितियों से मुकाबला करना नहीं सिखा रहे।उसे सही बात पर स्टर्न रहना नहीं सिखा पाये हैं।यह तो सच है कि आज का बच्चा बहूत कुछ जानता है पर अभी सब कुछ सैद्धातिक समझ है, इन छुट्टियों हम उसे कुछ व्यावहारिक बातें बताना शुरु करेंऔर इस काम को माता-पिता खुड ही करें ,यह काम पैसे देकर दूसरों से नहीं करवाया जा सकता।

आओ एक कदम बढायें

  बच्चों को अधिकार दिलाये माताओं को हम समझाये पापाओं की क्लास लगायें 
  तारें जमीं पर दिखलाये
  बच्चों को युं हम समझाये अक्षर सीखो गिनती सीखो कहना सीखो पढना सीखो सुनना सीखो लिखना सीखो सबसे प्यार से रहना सीखो चोरी करना झूठ बोलना बुरी बात है बुरी बात है दादाजी का कहना मानो नानाजी का बुरा मत मानो सब छोटों को प्यार करोतुम कभी नहीं आपस में लडो तुम्
  बच्चो तुम भी बडे बनोगे
  अपने ऊपर गर्व करो गे ।

कहां गये वे खेल खिलौने?

कहां गये वे खेल खिलौने ? समय बदलने के साथ सब कुछ बदल गया।छुपा_छुपाई,आइस-पाइस,किलकिल कांटे,सातटप्पे बाला गेंद का खेल,गिट्टीफोड, चोर् -सिपाही,अटकन-बटकन दही चटाके-वन फूले बंगाले,बाबा बाबा आम दो,बाबा बाबा कहां जारहे गंगा नहाने,गुटके खेलना,इमली के चीयों से चक्खन पे खेलना,जमीन पर आक्रति बना उसमेंगोटी डाल इक्कम दुक्कम खेलना,सहेलियोंकेसाथ रस्सी कूदना,पेड्पर रस्सी डाल झूला झूलना,मां का पुराने कपडों से सुन्दर सी गुडिया बना देनाऔर सहेली के गुड्डे से उसका ब्याह रचाना,मोहल्ले मेंहाथोमेंपेड की टहनी पकड बारात निकालना,गुदिया की शादी मेंढेर सारेझूठ-मूठ के पकवान बनानाआदि-आदि। मुझे तो अपना वह समय आज भी याद है जब होली के मेले मेंमिट्टी के खिलौनों के लिये हमारी पहली फरमायश् होती थी,रंग बिरंगे गुब्बारों पर हमारी ललचाती निगाहें टिकी रहतीथीऔर जब तक वे गुबारे हमारे हाथों की शोभा नही बन जाते थे हम बच्चोका रूठना मटकना बरकरार रहता था।  

पुरानी आदत वश जब मेले में जाकर मैंगुब्बारे और मिट्टी के खिलौने खरीदने लगी,संसथा में बच्चो के लिये कपडे की गुडिया बनाने लगी ,मिट्टी के खिलौने बनबाने लगी तोमुझे पहली टिप्प्णी कुछ इस रूप में मिली क्या इस जमाने में भी पचास सालो को वापिस लाने की कोशिश कर रही हो,समय के साथ कदम मिला कर चलो बाजार में सब कुछ मिलता हैक्यों खुद को और बच्चों को परेशान कर रही हो।मुझे लगता है हम अपने आलस को छुपाने के लिये नये जमाने का तर्क गढ़् लेते हैं


 
आज जब बच्चों के खेल और खिलौनौ की बात आती है तो सारे केसारे विध्वंसात्मक खिलोने हमने उनके हाथ में पकडा दिये है6कहींढिसुम-ढिसुम करती बन्दूके है तो कहीं भयंकर आवाजेंकरती गाडियोंऔर हेलीकोप्टरों के मोडल है।खेल के नाम पर या तो वीडियोगेम है अथवाहाथों में रिमोट लिये कार्टूनों को देखतेऔर एक ही स्थान पर बैठे जादुई प्रभाव में बन्धे बच्चे।शारीरिक व्यायाम के नाम पर हम उन्हें दो कदम भी नहीं चलने देते।क्या यही आधुनिकता है जिसके चलते हम अपने बच्चों को अपंग बना रहे हैं आज हम केवल उसके बौद्धिक विकास में ही अपनी पूरी शक्ति झोंक रहे हैऔर उसे भी एक रिमोट के रूप में तैयार कर रहे रहे है।उन खिलौनों और खेलों से बच्चों का जितना शारीरिक और मानसिक विकास होता था कहां गये वे खेल-खिलौने?

Tuesday, June 2, 2009

बच्चोंको किस भाषामें डांटा जाये।


बच्चों को अपने जीवन काल में इतनी डांट पडती हैकि वे बडों के द्वाराबात-बेबात पर् डांटे जाने को स्वाभाविक प्रक्रिया मांनते हैंऔर कभी बुरा लगने पर भी कमीज की बाहों से अपने आंसू पोछ लेते है अथवा सुबक –सुबक कर रो लेते है।पर क्या कभी हम बडों ने इस बात पर विचार किया हैकि हम अपने क्रोध को मासूम बच्चों पर उतारते है।बच्चॉं की गलती न होने पर भी वे हमारे क्रोध काकारंण बनते हैक्योंकि वे दुधमुहे होते है,क्योंकि उनकी कोइ अदालत नहीं होती,क्योंकि वे बेजुबां होते है,क्योंकि वे अभिभावकों के मोहताज होते है ,क्योंकि वे बच्चे होते हैं,क्योंकि अपने को अभिव्यक्त नहीं कर पाते,क्योंकि उनका कोइ वजूद नहीं होता,क्योंकि वे समर्थ नहीं होते। हम बडे कहे जाने वालेजीव् बच्चों को डांटते समय अपनी भाषा का ध्यान नहीं रख्ते-सुअर,, कुत्ता,गधा,पागल ,बैमान ,चोर ,उचक्का,लफंगा,हाथी की तरह खाता है,लड्की की तरह शरमाता है,लडके होकर रोते हो,तुम तो निरे बुद्धु हो, अकल तो है नही,बांकी तरह बढ रहे हो आदि-आदि।ये तो कुछ मिसाले हैंजिनका प्रयोग बहुतायत से किया जाता है।इसके अतिरिक्त गाली देना तो एक फैशन की तरह बन गया है।साला, साली को तो गाली माना ही नही जाता,बात-बात मे इस शबद को एक तकिया कलाम के रुप में प्रयोग किया जाता है।बिना सोचे समझे कि हमारे द्वारा कहे जाने वाले शब्द बच्चों के शब्द कोश में फीड् हो जाते हैंऔर बच्चे उन शब्दों को कहते समय बिल्कुल भी सजग नहीं होटल कि ह कुछ भी गलत कर रहे हैं। आओ हम प्रतिग्या करेंबच्चों को डाटने से पहले सोचेगे कि किस गलती पर डांटा जा रहा हैऔर हमकिस भाशा का प्रयोग कर रहे हैं।