Sunday, January 23, 2011

चलो आज फिर लिखते हैं|

अभी तो नया वर्ष आया और अब यह छब्बीस जनवरी भी आ गई |पिछले पचास सालों से यही सब तो देखते आरहे हैं देश भक्ति का जज्बा जगाने वाले गीत गाये जा रहे हैं -मेरेदेश की धरती सोना उगले उगले हीरा मोती, तिरंगा फहराने की तैयारियां हो रही है तो अपना बचपन फिर यादों में घुस आया है | रंग-बिरंगी झंडियां तैयार करते हम कितने आनंदित रहा करते थे ,विद्यालय में वीर हकीकतराय का नाटक खेला जाता और हकीकतराय का संवाद बोलते-बोलते लगने लगता कि सच मनमें भी देश भक्त हूँ | विद्यालयों में जुलूस लिकाले जाते और हम बच्चे हाथों में झंडा लेकर भारतमाता की जय और बापू की जयजयकार करते | झांकिया निकाली जाती और घरों में सुबह से ही उत्सब का माहौल रहता माँ पिता भी अपने बच्चे की गतिविधियों में आनंद लेते थे\ महिलाए घरों के बाहर जुलूस देखने के लिए आजाती और पिताजी रेडियो और टीवी पर गणतंत्र दिवस की परेड देखते रहते | शायद तब हम सभी मानते थे कि यह हमारा राष्ट्रीय त्यौहार है और इसे हमें पूरे जोश खरोश के साथ ही मनाना चाहिए | लगभग दस दिनों तक हम कार्यक्रम की तैयारी करते रहते |और जब छब्बीस जनबरी पर हमें लड्डू खाने को मिल जाते तब कार्यक्रम का समापन होता और दूसरे दिन छुट्टी देदीजाती कि बच्चे बहुत थक गए होंगे|
अब देखती हूँ तो वो माहौल नजर नहीं आता | छोटे बच्चों को तो यह कहकर अवकाश दे दिया जाता है कि तुम्हारी छुट्टी है और विद्यालयों में होने वालो की कार्यक्रम की बानगी ऐसी है कि शर्म आजाती है | मै्ने भी बच्चों के लिए कार्यक्रम तैयार किए -कुछ देश भक्ति गीत थे दो नाटक थे झान्सी की रानी का कविता वाचन था ,संस्कृत में सरस्वती वन्दना थी और एकबच्चा कृष्ण की भूमिका में नृत्य के लिए प्रस्तुत था | कुछ लोग प्रयास में आये |उन्होंने बच्चों को अभ्यास करते देखा और अनायास कह बैठे क्या मेडम सब फीकाफीका हैमैने पूछा क्या कमी लग रही है आपको तो उन्होंने बड़ी सहजता से जबाव दिया -जब तक कुछ चटपटा न होजाए कार्यक्रम में मजा नहीं आता उनका आशय े मुन्नी बदनाम हुई और शीला कीजवानी से था | मुझे बड़ा क्षोभ हुआ कि बच्चों की जो उम्र संस्कारित करने की होती है हम उसे सुनने और देखने के लिए क्या देते हैं और फिर ठीकरा बच्चों के सर फोड देते हैं किबच्चे बिगडते जा रह हैं | हमारी तो आदत ही हो गई है आलोचना करने की |कभी यह नहीं सोच पाते कि बदलती हुई स्थितियों के लिए आखिर जिम्मेदार कौन है ?क्या राष्ट्रीय पर्व केवल औपचारिकता मात्र रह गए हैं ? न तो हम बच्चों को अपना इतिहास बताते हैं और न उनमें इन संस्कार डालने का प्रयास करते है |बस जब देखो तब एक रटा हुआ संवाद हमारे मुँह से अनायास निकल जाता है क्या करें अब माहौल ही ऐसा हो गया है |
अरे वैसा माहौल रचाने में क्या आप इम्मेबार नहीं है क्या आप समाज और देश के नागरिक नहीं फिर आप अपेक्सएं केवल दूसरों सही क्यों करते हैं अपने हिस्से के कुछ काम तो कीजिए कमसे कम गहर के माहौल को तो साफ़ सुथरा बनाने की कोशिश कीजिए जब आप ही चुनिन्दा कार्यक्रम नहीं देखते तोबच्चों से किस मुँह से कहेंगे | कुछ सोचिए आखिर हम किस दिशा में जारेहेहै ? बच्चों के बिगडते ही हम विद्यालय और समाज को दोष देना शुरू कर देते हैं | कम से कम हमें अपने अभिवावकों से जोशिकायतें रही उनको दोहराने से तो बच सकते हैं पर हमारे यहाँ इस तरह के किसी भी प्रशिक्सान का सर्वथा अभाव है | बच्चे की शारीरिक कमजोरी तो हमें दिख जाती है पर उसका व्यवहार और उसका सोच हमारी चिंता का विषय कभी नहीं बन पाता |
शिकायत करना बहुत आसान है पर समस्याओं के हल खोजना कुछ कठिन अवश्य है | यह धन की अपेक्सा आपके समय और विचार की मांग करता है | हमारा कल जिन हाथों में महफूज है उस ओर अभी से ध्यान देना जरूरी है|

1 comment:

  1. हम ओर हमारे बच्चे एक अंधकार की ओर चल रहे हे.... ओर दोष हमारा हमारे इस समाज का हे, बहुत सुंदर लिखा आप ने धन्यवाद

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