Tuesday, September 14, 2010

ममता और आदर्श

सच ही कुछ भी भूला नहीं जाता
भले ही हम भूलने के नाम पर
तस्वीरों को बक्से में
कैद ही क्यों ना कर दें|
हम बहुत सचेतन होते हुए
स्वयं को अनेक व्यस्तताओं में
व्यस्त क्यों ना कर लें |
और अपने ऊपर लाख
लबादें क्यों ना ओढ लें |
ये यादें किसी की मुहताज नहीं होती
वे तो बस चुपके -चुपके आपके
जेहन में हमेशा बनी रहती है|
तभी तो बंटू के सर की मालिश
करते चिंटू का चेहरा
बंटू के चेहरे पर चस्पा हो जाता है |
और बातें करते-करते कितने
नए पुराने चेहरे जेहन में कौंध
जाते हैं|सब के सब
अपनी पूरी शिद्दत के साथ |
किस-किस को धकेलू
सब अपने ही तो है |
बस आज हम चलन से बाहर है
क्योंकि खोटे सिक्के है |
बिना कुछ बोले भी
आजकल कितना बोलजाता है मन |
ममता कोइतना अधिक मेग्नीफाई
कर दिया गया है कि
अब व्यक्ति और उसकी सत्ता
उसके आदर्श ,न्यायप्रियता
सब तराजू के पलड़े में
हलके पड़ते जा रहे हैं|
तब सोचती है एक माँ
क्या संतति मोह व्यक्ति
को दुर्योधन ही बना छोडता है
अंधी ममता केवल अपना
स्वार्थ हीदेखती है |
सच्चा ममत्व तो विश्व की
संततियो का हितैषी हुआ करता है|
और फिर पन्ना धाय यूं ही
तो इतिहास नहीं बनी होगी |
सच ये ममताऔर आदर्शों
का द्वंद्व सदैव चलता रहेगा
कभी अंधी ममता विजयी होगी
तो कभी आदर्शों की व्यापकता में
ममता सुबक-सुबक रोयेगी तो जरूर|
पर अंतत:मानवता ही
ममता पर भारी होगी |