Monday, September 14, 2009

आखिर इन बच्चों का कसूर क्या है?

मेरे जेहन में एक प्रश्न अक्सर कोंधता है  क्या हम बडों का अपने बच्चों के ऊपर अपनी इच्छाओं को लादना जायज है? हम जो-जो नहीं बन पाए हैं, वह सारी अपेक्षाए बच्चों के माध्यम से पूरी करवाना कहां तक उचित है। आप कह सकते हैंमाता- पिता अपने बच्चों में अपना सपना प्रतिबिम्बित होते देखना चाहते हैतो इसमें क्या बुराई है? आपके तर्क के सम्बन्ध में कहना चाहूंगी कि बच्चा भी अपने में एक सम्पूर्ण इकाई है। उसने भी अपने भविष्य को लेकर कुछ सपने देखें हैं।वह भी अपनी को प्रमाणित करना चाहता होगा। हो सकता है उसके भविष्य की योजनाओं और हमारे सोचे गये सपनों में जमीन -आसमान का अंतर हो।हो सकता है उसने अपनी क्षमताओं के हिसाब से एक नया कार्यक्षेत्र चुना हो।ऐसी स्थिति में हमें अपने वार्डों का सह्योग करना चाहिये। हम एक अच्छे गाइड तो जरूर बनें,उसे क्षेत्र विशेष की सम्भावनाओं से अवगत अवश्य करादें,े अपने अनुभवों का लाभ अवश्य दें,उसके   सहयोगी अवश्य बनें पर  उस पर अपने को लादें नहीं,उसे अपने अनुसार बढंनेदें।
उसे नसीहतें देते समय अपना बचपन नहीं भूलें। हम अपने सुझाव अवश्य रख सकते हैं पर यह सामने वाले पर निर्भर करता है वह इन सुझावों के प्रति कितना ग्रहणशील है।बच्चों को उपदेश की भाषा से एलर्जी होती है।वे हमारा सम्मान करें यह जितना आवश्यक है उतना ही ध्यान इस बात पर भी दें कि हम अपना बडप्पन बनाए रखें, हर समय की आलोचना बच्चों में खीज पैदा करती है, उन्हें लगता है कि आप उन्हें लेकर सीरियस नहीं है। जब आपका मन होता है आप उन्हेंडांटने लगते है'कभी हाथ भी छोड देते हैं क्योंकि आपका मानना है लातों के भूत बातों से नहीं मानते।आप नहीं जानते कि इसका कितना बडा खामियाजा हमें भोगना पडता है।बच्चे उस समय तो चुप हो जाते हैं पर आपको लेकर उनके मन में जो धारणा बन जाता है उसे जल्दी नहीं बदला जा सकता है।बच्चे का मन समझने के लिये खुद बच्चा बनना पडता है।उसकी मानसिक स्थिति में खुद को रख कर देखिये तो समझ आयेगा कि दुनियां में कोई भी डांट खाना पसन्द नहीं करता है, किसी को भी अपनी आलोचना सुनना पसन्द नहीं होता। यदि बात को समझा कर कहा जाये ,तो बच्चे जरूर समझते है। मैं अक्सर मांओं कोएक वाक्य कहते  सुनती हूं आने दे तेरे पापा को,आकर ऐसी पिटाई लगायेगें कि तुझे अक्ल आजायेगी। ये जुमले बच्चों के मन में पिता के प्रति नकारात्मक रूख पैदा करते हैं। अच्छा हो यदि बच्चा गलती पर है तो आप उसे उसी समय समझा दें।उसे अहसास करा दें कि तुम्हारी कई भी गलत जिद पिता अथवा मेरे द्वारा पूरी नहीं की जायेगी।

  बच्चे बच्चे हीहोते हैं,और उन्हें बचपन में ही प्रोढ बना देना हमारा लक्ष्य नहीं होना चाहिये।कभी- कभी बच्चों का कसूर उतना बडानहीं नहीं होता जितना बडा दण्ड हम उनके लिये निर्धारित कर देते है।यहां तक कि चोरी और झूठ भी वह अपने किसी विशेष प्रयोजन से बोलते है। यदि उनका प्रयोजन वैसे ही सिद्ध हो जाये तो उन्हें गाली देने, झूठ बोलने और चोरी करने की नौबत ही नहीं आयिगी।


Sunday, September 6, 2009

फुलक के स्थान पर मूल को सींचे।

प्राथमिक शिक्षा किसी भी देश की शिक्षा व्यवस्था की नींव है और यही नींव की ईंट सर्वाधिक उपेक्षित और अवहेलना का शिकार बनी हुई है।प्राइमरी का मास्टर सामाजिक विसंगतियोंसे इस कदर जकडा हुआ हैकि उसे केवल किटकिन्ना सिखाने वालाअ,आ ,इ सिखाने वाला मान लिया जाता हैउसके कार्य को बडा हल्का करके देखा जाता है।एक प्राथमिक विद्यालय का परिद्रश्य कुवछ इस प्रकार सामने आता हैब्लेकबोर्ड पर लिखे हुए कुछ वर्ण,उसे कापी पर तीपते बच्चे,बातों मशगूल और बच्चो को पीटते, हडकाते,डांटते ,अधैर्यशाली अध्यापक।ढेर सारी पुस्तकों से भरे बैग के साथ थके हुए,और उदास चेहरा लिये नन्हे-मुन्ने।आखिर हमारे देश के भविष्य के लिये इतना बोझिल पाठ्यक्रम क्यों रख दिया गया है? क्या एक स्लेट-बत्तीअथवा कागज -कलम और कुछ अक्षर कार्डों के साथ इन्हें नहीं सिखाया जा सकता?जब तक वह अक्षर भी नहीं जान पाता,भारीए-भारी वाक्यों से लदी-फदी पुस्तक उसके हाथों मेंथमा दी जाती हैऔर उससे अपेक्षा की जाती हैकि वह सब कुछ रटले,सुनादे,और 80-90%अंकों के साथ अगली कक्षा में चला जाये।और अध्यापक के काम की इतिश्री मान ली जाती है।क्या हम कभी सोच पाते है किबच्चे की यही कच्चाई,वर्ण और मात्राओं न पहचान पासकने की योग्यता उसके भविष्य पर कालिख पोट देती है,उसकी यही कम्जोरी बडे होने तक बनी रहती है।
दरअसल्प्राथमिक स्तर पर विषय की जानकारी के स्थान पर केवल लिखने, सुनने, बोलने और पढने की योग्यता का विकास ही किया जाना चाहिये जिससे वह वर्णों को पह्चान सके,उसे स्वयम लिख सके,वर्णों को मिलाकर पढ सके। मात्राओं पर और संयुक्त वर्णों पर जितना अधिक ध्यान इस अवस्था मेंदे दिया जायेगा उतनी ही लेखन की नींव पक्की हो जायेगी।फिर वह किसी भी कक्षा की पुस्तक को पढ सकेगा और्किसी भी शब्द को लिख सकेगा।
वैसे तोमुझे युवावर्ग और प्रोढ शिक्षार्थियों को पढाने का अवसर ही सदैव मिला पर अपनी प्रयास संस्था में कची मिती जैसे बालकों को ही सिखा रही हूं और मुझे ये अनुभव मेरे मानस बच्चे ही देरहे हैं। कभी- कभी मुझे बच्चों के इस प्रश्न का उत्तर देना भी बहुत कठिन होता है कि दीदी बच्चे को कौन सी किताब लेकर आनी है और मेरा उत्तर कि नहीं इन्हें खाली हाथ आने दो, मैं इन्हें ऐसे ही पढाउगीं .उन्हें आचर्य में डाल देता है पर धीरे - धीरे वे मेरी बात समझ जाते हैं इसलिये फिर कहती हूं जड में पानी दो, पतूं को सींचने से कुछ नहीं होगा।



Wednesday, September 2, 2009

कल की चिंता छोडो और वर्तमान में रहो

किसी दार्शनिक ने कहा था" भविष्य की चिंता मत करो,वह स्वत: संभल जायेगा क्योंकि तुम्हारा वर्तमान क्या कम है तुम्हे परेशान करने के लिये।"भगवान ईसा ने कहा था,"कल की चिंता छोड दो।"सर विलियम आसलर कहा करते थेकि"कल की चिंता छोडो और आज की सीमा में रहो---"ईसा से तीनसओ वर्श पूर्व रोम के एक प्रसिद्ध कविहोंस ने अपनी कविता में कहा था-"वर्तमान का जो निर्माण कर ले,आज के विश्वास के सहारे,कल को जो निषकाम कर ले,भोगेगा वही सुख भर्पूजो पर्याय सुख का निज नाम कर ले।"सारी की सारी उक्तियां यही संकेत करती है किवर्तमान अतीत के गुबार में सिमट जाता है,स्वयम अतीत हो जाता है। भविष्य भी आपका नहीं होता---फिर इसकी चिंताक्यों?हां जब वह वर्तमान का जामा पहन कर आये तो उसे भी देख लीजियेगा।प्राचीन रोमन विचारक कहते थे "जो आज है उसका ही भरपूर उपयोग करोभविष्य के लालच में पडकर आज की सौगात मत
गंवाओ।
सभी महान विचारकों के कथन से यही निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य को भूत और भविष्य की चिंता छोदकर वर्तमान पर ही केन्द्रित होना चाहिये।संशय और भय की अवस्था सबसेवधिक खतरनाक होती है। आपकी एकाग्रता नष्ट होजाती है,मन अशांत हो जाता है,एधर -उधर भटकता रहता है। आपका मनोबल इतना कम्जोर हो जायेगा किआप निरणय लेने की शक्ति खो बैठेगें। जो व्यक्ति स्वयम निर्णय नहीं ले सकता है वह सदा दूसरोंकीउधार में ली गई बुद्धि की वैशाखियों के सहारे चलेगा।किसी परेशानी के आने पर हम चिंतन करें न कि चिंता में ही अपनी रातें बिता दें। चिंता रतजगों के अनछाहे आयोजनों को जन्म देती है
तो हम आज से ही अपने आज को खूबसूरत बनाने में लग जाये ं क्योंकि कम से कम आज तो केवल आपका और आपका हीहै।

















। जान रस्किन ने अपनी पढ्ने की मेज पर एक पे

Tuesday, September 1, 2009

मां की प्रथम पुण्य तिथि पर्

अगर लूं इस धरती पर जन्म दोबारा
मां तू ही देना अपना प्यार सारा
यूं तो वर्ष भर पहले छोड दिया साथ
पर जीवन के हर पल में तुम रहती हो मेरे पास
तुम जाने वाली थी फिर भी पूछा मेरा हाल
बचपन से अब तक की कितनी घटनायें आती हैयाद
मा6 का जीवन में होना क्या होता है
अब और समझ आया है तेरे जाने के बाद

तुम कहती ठीक जब ऊपर जाना होगा
बताउगींवहां क्या-क्या होता है
तब तुम्हारी बातों पर हंसती थी मैं
लेकिन अब मां एक बार बता देती कैसी है वहां।
क्या देख पाती हो कितना तरसते हैं तेरे लिये
यूं तो बहुत खुश हूंअपने घर में
पर तेरे पास जाना कराता था
मुझे मां का अहसास ।

तुम्हारी बात याद है"दीदी में देखना मुझे"
करती भी हूं ऐसा ,दीदी भी मानती है मुझे बेटी
पर दिल में छुपी तेरी यादें
बार -बार लौटाती हैं मुझे पीछे

फिर से तेरे दिय्रे संसकारों को समेटे
बढती हूं राह में आगे
तेरी भूमिका में उतरने की कोशिश करती हूं
और रखती हूं तुझे सदा अपने पास

मां का खोना क्या होता है
समझ पाई हूं तेरे जाने के बाद

प्यारी बहिन अनुपम सारस्वत के सौजन्य से

मां की प्रथम पुण्य तिथि पर्

अगर लूं इस धरती पर जन्म दोबारा
मां तू ही देना अपना प्यार सारा
यूं तो वर्ष भर पहले छोड दिया तुमने साथ
पर जीवन के हर पल मेंतुम रहती हो मेर्रे साथ



तुम जाने वाली थीफिर भी पूछा था मेरा हाल
बचपन से अब तक की कितनी घटनायें आती है याद

मा