किताबों में लिखा होता है,पूरी वसुधा कुटुम्ब होती है।
सब अपने होते हैऔर पराया तो कोई होता नहीं
पर लिखे हुए को पढ्ना और व्यवहार में होते देखना
दो भिन्न -भिन्न अनुभव हुआ करते है ।
सोचना और करना ,एक ही समय में दो रूपों को जीना
मतलब दो चेहरों के मुखोटे एक साथ लगा लेना
अपने दुखों को दिल में गहरे छुपा कर
चेहरे पर ओढी हुई मुसकान चस्पा कर
एक ही समय में दो विपरीत ध्रुवों को
पास लाने की बेवजह कोशिश करना
और फिर अप ईमानदारी का ये हश्र देखना
सारी यादों का टूट -टूट कर बिखरते जाना
कतल करने वाले हाथों का आंसुओं को पोंछना
और सब कुछ यूं सह लेना जैसे कुछ घटा ही नहीं
आदर्श बनाये रखने के लिये घुट-घुट कर जीना
सच तो नहीं होता है ,फिर भी सच होता है
इसलिये फिर कहती हूं फर्क होता ही है
अपने और पराये में, मेरे और तेरे में
इस में और उसमें,हममें और तुम में
और अब भी जिद बाकी है कि वसुधा कुटुम्ब
हुआ करती है ,तो झेलते रहो,धोखे खाते रहो
और पूरी दुनिया को अपना मानने और समझने
की जिद पकडे रहो,पर अपने बनाये उसूलों को
तोडो मत,और लकीर पक्की ,बात पक्की
कि मेरे लिये तो वसुधा ही कुटुम्ब है