Sunday, December 19, 2010

ये चुप्पी कब टूटेगी ?

एक लंबे अंतराल के बाद फिर उपस्थित हूँ |मैं इतने दिनोंतक मौन क्यों हो गई?क्यों मेरी अंगुलिया कीबोर्ड को नहींछूपाई?
आज क्या हुआ कि हाथ फिर से गति पकड़ रहे हैं ?सच सवाल तो बहुत हैं पर उत्तर कहीं नहीं दिखाई देता |क्या आपके साथ भी ऐसा होता है जब आप अचानक चुप हो जाए और आपको ही कारण पता नहीं हो | क्या इन दिनों कुछ भी ऐसा नहीं घटा जिसे मैं आपके साथ बाँट पाती ,या जो घटा उसे इतना निजी समझा गया कि उसे कहने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई|कभी-कभी तो ये अंतराल बहुत सुखद होता है जब आप अपनी ऊर्जा को फिर से संचित कर आ बैठते हैं |
पर सच कहूँ कभी-कभी घटनाओं को पचाने में बहुत समय लग जाता है और हम तुरंत टिप्पणी करने की स्थिति में नहीं होते ?क्या ऐसा ही होता है पति और पत्नी का रिश्ता कि एक साथी दूसरे के प्रति इतना क्रूर हो जाए कि उसके टुकड़े-टुकड़े कर दे और बच्चों को खबर तक ना हो | क्या ये दंपत्ति फेरों के समय दिए गए वचनों को नहीं सुनते अथवा इन्हें टेकिन फॉर ग्रांटेड ले लेते हैं /और यदि प्रेम विवाह है तो स्थिति और भी अधिक शोचनीय है |आखिर हम किस प्रेम के वशीभूत होकर अपने लिए जीवन साथी का चयन करते हैं ? क्या विवाह करने का अर्थ केवल सामने वाले को अपने अनुकूल ही बना लेना हैं| क्या एक व्यक्ति अपनी अस्मिता खोकर ही दूसरे में निमग्न हो तो प्यार और कहीं उसने भी अपने अस्तित्व को बचाने की कोशिश की तो हश्र हमारे सामने | आखिर आप जीवन साथी चुन रहे होते है या अपने अहम की तृप्ति के लिए एक गोटी खरीद रहे होते है |जैसा एक चाहता है यदि दूसरा वैसा बन गया तो मामला ठीक और कहीं उसने भी अपनी जिदें अपने अभिमान को या कहें स्वाभिमान को रखना शुरू कर दिया तो सबकुछ खत्म | आखिर क्यों हो जाते हम इतने पजेसिब कि सामने वाले की हर छोटी बड़ी बात हमने चुभने लगती है | शायद हमने कभी सीखा ही नहीं कि आप दो एक हो रहे हैं ना कि एक अपना अस्तित्व खो रहा है | क्या हमारी संवेदनाएं बिलकुल ही मर गई ? हमारे पढ़े-लिखेपन ने ही हमें ऐसा जानवर बना दिया कि छोटे मोटे मुद्दोंपर हम इतने असहनशील हो गए कि हमें सामने वाले को मारना ही रास आया | दर असल हमें इस द्रष्टि से कभी सोचने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई ?बस पढलिख लिए ,नौकरी मिल गई और हमने शादी कर ली| विवाह जैसे महत्वपूर्ण मसले पर इस द्रष्टि से कभी सोचा ही नहीं गया |आखिर विवाह की ढेरों तैयारी के मध्य ये अहम मसला क्यों उपेक्षित छूट जाता है |हम वर और वधु देखते हैं ,उसकी पढाई-लिखाई ,घर ,संस्कार देखते है पर कभी भी यह आवश्यक नहीं समझते कि विवाह से पूर्व भावी जीवन साथियों को उन महत्वपूर्ण मसलों पर चिंतन करनेयोग्य बना दें जिनकी आवश्यकता उन्हें जीवन में हर पल पडती हैं |एम.ए. ,बी.ए. और एम.बी.ए की पढाई पढकर नौकरी तो की जा सकती है ,पैसा तो कमाया जा सकता है पर गृहस्थी चलाने के लिए ,एक दूसरे को समझने के लिए ,उत्तरदायित्व निभाने के लिए जो शिक्षा उसे चाहिए वह तो कभी दी नहीं गई |बस मानलिया गया कि तुम बड़े हो गए हो पढ़-लिख गए हो ,नौकरी पेशे में होतो चलो अब शादी कर देते हैं |और जब ये बच्चे इस जिंदगी को निभाने में असफल हो गए तब कहा जाने लगा अरे भाई अपनी शादी भी नहीं बचा सकें| वे बेचारे क्या करें कभी अपने माता-पिता के दाम्पत्य से सीखते है तो कभी अपने हमउम्र दोस्तों से सलाह लेते हैं | कहीं भी कोई कोशिश इनं विवाह सम्बंधोंको बचाने की नहीं हो रही| यदि बुजर्गों से पूछो तो वे कह देते हैं अरे हमने इतनी निभा ली तुमसे इतना भी नहीं होता |और अब तो एकल परिवार ही अधिक है जहां सब कुछ अकेले ही निपटाना है | सबके जीवन जीने के तरीके अलग-अलग होते हैं | कोई जरूरी नहीं जो आपको बहुत पसंद हो वही दूसरे की भी पसंद हो | फिर भी साथ रहने के लिए कुछ तो कोमन होना जरूरी होता है मसलन एक दूसरे की इच्छाओं का सम्मान ,पारिवारिक कार्यों को मिलबांट कर पूरा करना ,बच्चे की परवरिश का साझा दायित्व ,एक दूसरे के प्रति और उनके सम्बन्धियों के प्रति सामान्य व्यवहार ,सामने वाले के दुःख का अहसास | पर इन गुणो को विकसित करने की तो जिम्मेवारी ही नहीं समझी जाती |बस ले बेटा बडे से कोलेज में एडमीशन ,कर टॉप ,और फिर खोज नौकरी कम से कम लाखोंके पैकेज वाली |बस यहीहम सिखाना चाहते थे और यही उसने सीख लिया |फिर शिकायतें क्यों और किससे / कोई भी व्यक्ति एक दिन में ही बहुत खराब और अच्छा नहीं हो जाता | दिनप्रति दिन का व्यवहार उसके व्यक्तित्व को निर्धारण करता है |अब्बल तो हमारा ध्यान इस ओर जाता ही नहीं और कभी चला भी गया तो इसे बेबकूफी जैसी बातें मानकर नजर अंदाज कर दिया जाता है| हम कितने धैर्यवान है,विपरीत परिस्थितियों में अपने को कितना व्यवस्थित रख पाते है ,हमारा चिंतन कितना सकारात्मक हैकईबार जब हमारा कोई काम बिगड जाता है तो हम अपना विश्लेषण करने के बजाय अपने से कमजोर पर बरस बैठते हैं | बस सारी गलती उसके सर डाली और हो गए मुक्त |पर ऐसा कितने दिन चल पायेगा |कभी तो सामने वाले की सहन शक्ति भी जबाव देजायेगी |फिर आप क्या करेंगे|
समस्या तो अब इतनी गंभीर होती जा रही है कि अब विवाह करने से पहले व्यक्ति बहुत बार सोचता है ,कहीं यह जिंदगी भी दूभर न हो जाए | जीवन साथी की तलाश जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए की जाती है अब यदि जिंदगी न रहे ,वह ही किसी के क्रोध और पागलपन की भेंट चढ जाए तो काहे का जीवनसाथी और कैसा जीवन साथी | अब विवाह माता-पिता के लिए केवल अपने दायित्व से मुक्ति ही नहीं है ,केवल हाथ पीले कर देना ही नही है बल्कि अपने बच्चों को ढेर सारी योग्यताओं के साथ जीवन जीने की कला में निपुण कर देना भी है|यदि समय रहते यह चुप्पी नहीं टूटी ,तो परिणाम बहुत ही भयंकर हो सकते हैं| भलाई इसी में है कि हम सभी समय रहते जाग जाएँ |

Wednesday, December 1, 2010

कब टूटेगा ये भ्रम

मुझे लोगों से मिलना अच्छा लगता है सो मैं अपनी तरफ से कोई भी ऐसा अवसर छोड़ना नहीं चाहती |जहां भी मौक़ा मिलता है आज की युवा पीढ़ी से बात करने का कोई ना कोई बहाना तलाश लेती हूँ |
बेरोजगार युवाओं को रोजगार केलिए प्रशिक्षितकरने के लिए एक संस्था में मुझे जाने का अवसर मिला |वहाँ मुझे मानव मनोविज्ञान विषय पर बातचीत करनी थी | जब मैंने वहाँ का पाठ्यक्रम देखा ,उनकी माध्यम भाषा के विषय में जानकारी ली तो पता चला कि सब कुछ अंगरेजी में था पर जब मैं कक्षा में प्रत्याशियों से मिली तब मालूम चला कि वहाँ तो बहुत कम लोग अंगरेजी जानते थे | उन्होंने अपनी पढाई हिन्दी माध्यम से की थी ,अंगरेजी एक विषय के रूप में पढ़ी जरूर थी पर उस को बोलने ,सुनने और लिखने में महारथ हासिल न थी |कक्षा में दिए जाने वाले हर व्याख्यान को वे सुनते तो थे पर उनकी समझ में १०प्रतिशत ही आता था कारण था माध्यम भाषा |
कहीं भी कोई कोशिश उन छात्रों से जुडने की नहीं थी बल्कि हर स्तर पर उनमें यह अहसास भरा जा रहा था कि तुम बहुत कमतर हो क्योंकि तुम अंगरेजी नहीं जानते और दुनिया का पूरा ज्ञान केवल इसी भाषा में ही ह्रदयंगम किया जा सकता है, यदि तुम अंगरेजी नहीं जानते तो तुम कुछ भी नहीं हो ,कही स्टेंड नहीं करते और आज के युग में बिना अंगरेजी जाने जॉब का मिलना तो बहुत मुश्किल है | इन सब धारणाओं का परिणाम कमोबेश यही होता है कि हर माता-पिता अपने उस बच्चे को जिसे अभी अपनी मातृभाषा पर भी दक्षता हासिल नहीं हुई होती उसे अन्य भाषा के भंवर में भटकने के लिए छोड़ देते है फल स्वरूप वह न तो अपनी भाषा कों ही जान पाता है और न अन्य भाषा में कुशल होपाता है| |परिणाम यह कि न वह घर का रहता है और न घाट का |हिन्दी कों तो उसने कुछ माना ही नहीं सोच यह लिया कि येतो अपने घर की बात है आ ही जाए गी |बस अंगरेजी सीखना बहुत जरूरी ह| हाँ किसी भी भाषा को जानना बहुत जरूरी है पर आधा -अधूरा नहीं ,चारों भाषाई कौशलों (सुनना ,बोलना ,लिखना और पढना )के साथ| सारी शक्ति उसमें लगा देते तो भी अच्छा था पर यहाँ तो किसी भी भाषा पर दक्षता नहीं हो पाती |इसलिए आजकल अध्यापक और छात्र के मध्य एक नई भाषा प्रचालन में आ रही है जिसे आप खिचड़ी भाषा कह सकते है जिसमें हिन्दी और अंगरेजी का मिला-जुला रूप है| पढाने वाले ने तो पढ़ा दिया और माँ ले कि पढाने वाले ने समझ भी लिया पर जब परीक्षा में आपको किसी एक माह्यम भाषा का चुनाव करानाहोता है और आप अपने उत्तर्किसी एक भाषा में लिखना चाहते है तब सारी समस्या शुरू होती है| मेरे पास अक्सर छात्र आते रहते हैं और अपनी समस्या का हल पूछते हैं|
और एक नजर आज के माहौल पर ,हर व्यक्ति इंग्लिश मीडियम में अपने बच्चे का प्रवेश कराना चाहता है बिना ये जाने कि जिस प्राथमिक स्तर पर उसे अपनी भाषा की सबसे अधिक आवश्यकता होती है वहीं उसका सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि उसे ज्ञान प्राप्ति के लिए एक ऐसी भाषा पर निर्भर रहना पढ़ता है जिसे वह केवल रट कर ही सीखता है |कुछ सूचनाओं को केवल हम फीड कर देते है पर उस भाषा में वह अपने विचारों को व्यक्त करने में असमर्थ होता है | किसी विषय पर निबंध लिखना हो ,अपने अनुभवों को लिखना हो तो एक मात्र सहारा टूशन वाले सर रह जाते है जिनकी संकल्पना ही स्कूल में दिये जाने वाले ग्रह कार्य को पूरा करवाने में सहायक के रूप में की जाती है |
और आज के समय में कक्षा के अतिरिक्त किसी अध्यापक से पढना भी चलन बनाता जा रहा है |अरे जब ये अध्यापक आपको सबकुछ अतिरिक्त समय में सिखा ही देते हैं तो कक्षा में जाकर सीखने की आवश्यकता ही क्या है?
सच है सब कुछ्चल रहा है और हमसब आँख बंद कर देखने के आदि हो गए हैं | खासकर प्राथमिक स्तर पर तो अन्य भाषा की बात हीनहीं की जानी चाहिए कम से कम माध्यम भाषा के रूप में |मेरी संस्था में अभी कुछ दिनों पूर्व एक बच्ची आई जो किसीस्थानीय विद्यालय में दूसरी कक्षा में पढती थी ,उसके पिता वहाँ की शुल्क देने में असमर्थ थे तो मेरे पास अपने तीनो बच्चों को लेकर आये | सच में मुझे बहुत आश्चर्य हुआ जब मैंने उस बच्ची का बेग खो कर देखा तो उस बेग में हिन्दे,नैतिक शिक्षा,गणित,अंगरेजी,सामान्यज्ञान और विज्ञान की कापी थी जिसमें टूटे फूटे अक्षरों में गलत सलत कुछ सूचनाए फीड थी पर सब कुछ गलत था वह बच्ची हिन्दी की वर्णमाला भी नहीं जानती थी उसे वर्णों की पहचान भी नहीं थी|

ये सोच बदलना बहुत जरूरी है | भाषा चाहे कोई भी हो उस पर दक्षता होना बहुत आवश्यक है |

Saturday, November 27, 2010

आखिर हम गाली क्यों देते हैं?

है न विचित्र किन्तु सत्य कि हम सब जानते हैंकि गाली देना बुरीबात है लेकिन गाली है कि मुँह से निकल ही जाती है |हमारा अपनी जुबान पर नियंत्रण ही नहीं रहता |पहले भी ब्याह-बारातों में ज्योनार के समय गाली गई जाती थी पर वह अधिकतर दूल्हे की माँ बहिनो कों बरात में नचाने का उपालंभ ही हुआ करता था|हम जब किसी कों अपमानित करना चाहते हैंतो हमारा सबसे बड़ा हथियार गाली ही हुआ करता है | बचपन में हम भी कुत्ता ,बेबकूफ ,उल्लू ,बदतमीज जैसी गाली दिया करते थे| और जब बहुत गुस्सा आता था तो कडी खाई धुआ करी मर जाएजैसी अनिष्टसूचक अथवा कोसने नुमा गाली मर जा ,कट जा और तेरे हाथ पैर टूट जाए जैसी गालिया प्रयोग की जाने लगी|
कुछ और समझदार हुए और बाहरी परिवेश से परिचय हुआ तो माँ बहिनकी गाली कानो में सुनाई पडी | तब तक इन गालियों के गूढार्थ पता नहीं हुआ करते थे अत: बचपने में एक बार इस गाली का प्रयोग किया और माँ से खूब पिटाई भी खाई | सख्त हिदायत दीगई कि अब कभी ऐसे शब्द जुबान पर भी आये तो जुबान खीच ली जायेगी| बस इस प्रकरण का यहीं पटाक्षेप हो गया|
जैसे-जैसे बड़े होते गए और समाज का हिस्सा बनते गए, देखा कि पुरुषों की भाषा में गालिया ऐसे सम्मिलित होने लगी जैसे दाल में तडका|अनसुनी करते करते भी पाया कि कई सज्जनो की बाते तो इन आलंकारिक शब्दों के बिना पूरी नहीं होती| तब बहुत कोफ़्त होती थी पर हम कर क्या सकते थे| बहुत हुआ तो ऐसे लोगो के आगे नहीं पडते थे| समझदारी आई तब जाना इन गालियों के मूल में स्त्री जाति और उसके पक्षधरों कों अपमानित करने की मूल मंशा ही थी| साला और साली कितने मधुर रिश्ते होते हैं पर ये भी गाली के पर्याय होते चले गए और अब साला तो इतना फैशन में आगया कि उसे गाली नहीं वरन बातचीत का जरूरी हिस्सा माना जाने लगा |पर इसी रिश्ते का एक पहलू और था पति के भाई और बहिन यानी देवर और ननद | ये रिश्ते सदैव पूजनीय रहे कभी गाली की कोटि में नहीं गिने गए|आखिर क्यो क्योंकी ये पति परमेश्वर के हिस्से जो थे और सालासाली उस बदनसीब के भाईबहिन | धीरे-धीरे इस साजिश ने एक और रूप अख्तियार कर लिया |हमारी पूरी की पूरी शक्ति औरतो के खिलाफ प्रयोग होने लगी |उनकी इज्जत के इतने चीथड़े बिखेरने केलिए एक गाली पर्याप्त होती और वह शर्म से मुह छिपा बैठी| समय बदला और बराबरी की धुन में औरतों ने भी इसी हथियार का प्रयोग करना शुरू कर दिया पर वह यह भूल बैठी कि ये तो पुरुषों के द्वारा दी जाने वाली गालिया है हम अपनी गालियोंका शास्त्र अलग बनाए |कौन मेहनत करता सो उसी कोष से गालिया चुन ली गई और उनका धडल्ले से प्रयोग किया जाने लगा |बिना सोचे समझे कि इन सब गालियों से तो हमी अपमानित हो रहे है| मेरा बहुत मन हुआ कि पूछू अरे ये कैसा अनर्थ कर रही हो| भला अपने कों भी कभी गाली दी जाती है पर बराबरी की होड़ में किसे ये सब फालतू बकबास सुनने की पडी थी|पुलिस का महकमा तो गालियों के बिना अधूरा ही है| और अब तो स्थिति यह है कि वे बच्चे जो इन गालियों की एबीसीडी भी नहीं जानते वे भी इन गालियों का धडल्ले सेप्रयोग करते है| ऐसे कुछ बच्चों कों मैंने जब कुछ समझाने की कोशिश की तो उन्होंने बड़ी मासूमियत से जबाव दिया कि ये खराब बात होती तो सब लोग क्यों देते | दुकान पर चौराहे पर और घर पर ये गालिया तो उसके कानो में रोज ही पडती है | आखिर किस-किस से बचायेंगे आप | और बस हमने मान लिया है कि किसी कों डराने धमकाने के लिए दोचार भद्दी गालियों का प्रयोग कर दो |सज्जन तो ऐसा भाग खडा होगा जैसे गधे के सर से सींग और भले घर की लडकिया तो उस माहौल से बचना ही सुरक्षित मानेगी |और कहा जाएगा क्या मेडम ये भी कोई लिखने का विषय है ,ये तो सब चलता रहता है|

Friday, November 26, 2010

ज्ञान का व्यावहारिक प्रयोग बहुत जरूरी है |

मनुष्य का पूरा जीवन सीखने और सिखाने के अनुभवों से भरा हुआ है | जन्म से लेकर मृत्यु तक हम सीखते और सिखाते रहते है| कभी-कभी हम सीखते हुए भी सिखा रहे होते है इस द्रष्टि से प्रत्येक व्यक्ति अध्यापक है और अपने जीवन काल मेंकभी ना कभी शिक्षकके संपर्क में अवश्य आया होता है| याद कीजिए आपकी स्मृति में किस अध्यापक की यादे आज भी ताजा हैं | हो सकता है वक्त की धूल ने सब कुछ धुंधला कर दिया हो पर जैसे ही वह धूल हटती है अथवा आपके द्वारा हटाई जाती है सब कुछ कितना साफ़ दिखाई देने लगता है मानो कल की ही बात हो | हाथ में डंडी लेकर पढाने वाले मास्साब ,गुस्से में त्योरिया चढाते और बात- बात में गरियाते सर , कुछ भी पूछने पर मार का डर,लेकिन कभी-कभी इतने अच्छे अध्यापक जिनके कारण ही हम स्कूल जाने कों उत्साहित हो जाते ,इतनी अच्छी अध्यापिका कि माँ और दीदी से भी ज्यादा प्यारी लगती ,| आखिर क्या था उन अध्यापकों में कि आज भी उनका नाम हमारी जुबान पर चढा रहता है |
भले ही वे प्रशिक्षित न रहे हो पर उनके जीवन के अनुभव ने उन्हें हमारे समीप ला दिया था |क्या ज्ञान केवल पुस्तकों से ही प्राप्त किया जा सकता है ,काश ऐसा होता तो हम सभी आज बड़ी -बड़ी उपाधियों के साथ पंडित और विद्वान बन चुके होते | आज हमारे पास मोटी-मोटी किताबें तो है पर उनका ज्ञान हम पचा नहीं पाए है | हमने जो भी कभी पढ़ा होगा ,वह केवल परीक्षा के लिए और जैसे ही हमने परीक्षा पास की सबकुछ विस्मृत हो गया |क्योंकि हमने तो जो पढ़ा था और जिसके लिए पढ़ा था वह लक्ष्य तो मिल ही गया फिर उसे याद करने की क्या आवश्यकता रह गई ?यही हम मात खा जाते हैं |
जब हम दूसरों कों सिखाना प्रारम्भ करते हैं तब सबसे पहले हमारा व्यक्तित्व परिलक्षित होता है | हम कैसे है ,जीवन में किन चीजों कों हम प्राथमिकता देते है ,हम अपने छात्रों के विषय में क्या सोचते हैं ,हमारा शिक्षण के प्रति कैसा नजरिया है | हम छात्रोंके दिमाग में सूचनाए भर रहे होते हैं या उनके मस्तिषक कों सक्रीय करना चाहते हैं| किसी भी ज्ञान का व्यावहारिक प्रयोग कक्षा में छात्रों कोसजग रखता है |यदि हम किसी भी विषय कों पढाने से पूर्व उस विषय की जीवन में उपयोगिता बता दें तो उस विषय के प्रति रूचि बढ़ जाती है और हम उस विषय कों सहज रूप में सीख लेते है क्योंकि उसके साथ हमारा लक्ष्य और मन दोनों जुड जाते है|पहले हम तो अपने ज्ञान भण्डार की छटनी कर ले कि क्या बताना जरूरी है और क्या छोड़ा जा सकता है | विषय का मंथन तो कर ले , उसकी गरिष्ठता कों सुपाच्य तो बना ले पर हमें इतना सब्र कहाँ है हमें तो बस पढ़ी गई सूचनाओं कों ज्योंका त्यों उसके दिमागमें फीड कर देना है और उसे परीक्षा पास करने लायक बना देना है यही हमारा शिक्षण है और इसी काम का हमें वेतन मिलता है |लेकिन यह क्रम आखिर कब तक चलता रहेगा ?
सीखा इसलिए जाता है कि जिससे जीवन में कभी समस्या आये तो हम उसके समाधान ढूढ़ सके | मुझे पिताजी की एक बात आज भीयाद है | एक बार किसी घरेलू समस्या के कारण हम सभी परेशान थे | पिताजी कुछ तय नहीं कर पा रहे थे | तब उन्होंने हम भाई-बहिनों से कहा अरे जहा चार-पांच पीएच.डी बैठे हो वहा भी समस्या के समाधान नहीं निकला करते | हम सभी अवाक रह गए और सोचने लगे कि रिसर्च में तो यह्कभी सिखाया नहीं गया| पर आज जरूर समझ आ गया है कि यदि एक बार आपमे विश्लेषण की क्षमता विकसित हो जाए तब आप अधिकतर परेशानियो के हल ढूढने में समर्थ हो ही जाते है और नहीं तो कम से कम उसे अपने ऊपर हाबी तो नहीं होने देते |इसलिय हमेशा याद रखना चाहिए कि जब तक हम सीखे गए ज्ञान का उपयोग नहीं कर लेते तब तक वह ज्ञान हमारे अनुभव का विषय नहीं बनाता और जो हमारे अनुभव का विषय नहीं हो सकता वह पुस्तकों में तो शोभा पा सकता हैपर हमारे जीवन जीने का आधार नहीं हो सकता |

Monday, November 22, 2010

हम अपने अपने टापू में कैद क्यों है ?

हम सभी सामाजिक प्राणी है और हमें समाज के सहयोग की आवश्यकता हर पल पडती है |हमारा सबसे पहला साबका अपने पडौसी से ही पडता है|हमारे सुख-दुःख का सबसे पहला गवाह पडौसी ही हुआ करता है | हमने तो यह भी देखा है पडौसी हमारी रोजमर्रा की समस्याओं में सह भागी होता है पर अब शायद ऐसे पडौसी नहीं हुआ करते |हम वह् होते हैजैसा हमारा अडोस-पडौस,आमने -सामने होता है |शादीब्याह के सन्दर्भ में तो आपके -पडौसी ही आपसे संबंधी सूचनाओं के आधार हुआ करते है| कल हमारे पडौस में अम्माजी की मृत्यु हो गई |वह लंबे समय से बीमार थी | शाम ६ बजे उनकी मृत्यु हुई और लगभग ५० मिनिट बाद उस सूचना की सबसे पहली हकदार मैं ही बनी ,वह भी किसी तीसरे माध्यम से | खैर मैंने अपनी कालौनी के अन्य लोगों कों सूचित किया |
मैं समझ नहीं पा रही आखिर हम इतने औपचारिक कब से हो गए कि मृत्यु जैसे दुखद अवसर पर भी हम यह प्रतीक्षा करने लगें कि जब शव यात्रा निकलेगी तब हम भी उस भीड़ का हिस्सा बन जायेंगे| कहाँ बची है हमारी संवेदना ,क्या अब इन बड़ी कोठियों के लोगो के बीच मोहल्ले जैसा भाईचारा जैसा कुछ नहीं होता | कहा वह समय था ,जब किसी के घर ऐसे अवसरों पर सब कुछ पडौसी ही संभाल लेते थे| जब तक रिश्तेदार आते ,तब तक तो सब हाथोहाथ ले लिया जाता| और अब एक समय ऐसा आगया जब सब कुछ ऑफिस नुमा हो गया | जहां रोने केस्वर सुनाई देने चाहिए थे वहाँ यह देखा जाने लगा कि हम अपने घर कों पहले व्यवस्थित कर लें |मुझे लगने लगा कि अब हम पदौसियोंके मध्य नहीं रहते बल्कि मशी नुमा जीवो के मध्य रहते हैं| हमारे अपने इगो इतने बढ़ गए कि हम स्वयं कों अपने में पूर्ण मानने लगे | हमें किसी से कोई लेना-देना नहीं |हमारे पास इतना पैसा जो आगया है कि अब सब कुछ उससे खरीदा सकता है | जी हाँ रिश्ते भी | और क्या आपने देखा नहीं शादी-विवाहों में गीत गाने के लिए मंडली बुलाई जाने लगी है सब कुछ पेशे जैसा हो गया |लोग आते है आपको खाना परसते है, खईदी हुई मुस्कान से आपका स्वागत करते है |
और जो मेजबान है वह हाथ जोड़े दरवाजे पर केवल आपको अटेंड करते है| सब तो इतनी तेजी से बदल रहा है| शायद मेरे मन के किसी कोने में अब भी वह गंवईपन बाकी रह गया है जो जब चाहे अपना सर उठा लेता है और मुझे सोचने पर मजबूर कर देता है कि हम आखिर अपने -अपने टापुओ की हद कों तोड़ क्यों नहीं देते |हम अपनी संवेदनाओं का विस्तार क्यों नहीं कर लेते | और कम से कम दुःख के अवसरों पर तो आपसी वैमनस्य कों भुला क्यों नहीं देते ?हम पहले जैसे पडौसी क्यों नहीं बन जाते जब किसी के घर आहात भी होती तो पूरा मोहल्ला एक हो जाता | तब मोहल्ले की बहन बेटी सबकी बहन बेटी होती थी| एक कादुख सबका दुःख होता था |सब के सुख -दुःख में सब शरीक होते |पर शायद अब हमने अपने घर तो बड़ा बना लिया है पर दिल संकुचित हो गए है|

Saturday, November 20, 2010

मुझसे तो नहीं छूट पाता ये बचपना

आप चाहे कुछ भी कहते रहे मुझसे तो नहीं छूटता ये बचपना |अरे तो क्या ये जरूरी है कि ४० पार् कर लिया तो हमेशा चेहरे पर बुजर्गियत ही ओढ़े रहे ,बेबसी चिपकाए रहे ,सबकेआश्रित ही बने रहे ,अब जब बच्चे खेल सकते है नाच गा सकते है तो हम क्यों नहीं | भई, बालो का रंग ही तो स्वेत हुआ है मन पर तो कोई कालिख नहीं आई ना ,फिर हम चाहे छुहा-छाही खेले अथवा लंगडी टांग ,हम नाचे,गुनगुनाये और दिल खोलकर हँसे तो हर बार यह क्यों सुनाया जा रहा कि उम्र का ख्याल तो करो क्या अभी तक बच्ची बनी रहोगी| मेरा मन तो सबसे अधिक बच्चा पार्टी में लगता है कितना भी भारी दुःख हो कैसी भी मनहूसियत हो ये बच्चे अपनी भोली बातो से और डेढ़ इंची मुस्कान से आपका दिल जीत ही ले लेते हैं | मेरी तो हर सुबह इन्ही से शुरू होती है और शाम भी इन्ही के साथ डूबती है| और हमारी अम्मा है कि सारे दिन हमें सुनाये बिना नहीं मानती देखो अब ये उम्र है क्या बच्चों के साथ चहल-कदमी करने की ,हमारी बहू में न जाने कब बड़प्पन आएगा | जब देखो तब बस इन बच्चों के बीच पगलाई सी घूमती रहती है | न अपनी उम्र का ख्याल रहा है |अब है भी तो मास्टरनी पूरी जिंदगी बच्चों कों ही पढ़ाया और उम्र के इस मोड पर भीबच्चा ही बनी हुई है | क्या मुसीबत है जब सोलह-सत्रह साल के हुए और इन बच्चों के संग गेंद तड़ी खेलने का मन करता तो माँ कहा करती बेटा अब बचपना छोड़ बड़ी हो गई है कलको पराये घर जायेगी कुछ तमीज सीख | तब भी मन होता था माँ सब काम तो मैंने कर लिया ,अब क्यों डांटती हो | पर एक उम्र के बाद जैसे बचपन कों विदा करना ही पड़ता है| ससुराल आगई तो वहा भी छोटे छोटे बच्चों से दोस्ती कर ली ,और जैसे ही खाली समय मिला उनको बुला लिया किसी के लिए गुडिया बना दी तो किसी केसाथ झूठ मूठ रसोई की तैयारी कर ली| रात होते-होते बच्चों का झुण्ड आ धमकाता कहानी सुनाने के लिए ,भाभी कल वाली कहानी सुनाओ ना फिर राजकुमार का क्या हुआ | और चल निकलती बात में से बात | सास की आवाज कान में पड़ते ही बच्चा टोली सतर्क हो जाती और सब के सब हाथ हिलाते भाभी कल भी कहानी सुनाओगी ना | जब खुद मातृत्व पद के अधिकारिणी बनी तब भी बच्चों के साथ बच्चों के साथ बच्चा ही बनी रही | कभी नन्हे कों दूध न पीने पर कहती गटक गटक पीएगा दूध मेरा नन्हा राजा और कभी एक दो तीन कहते दूध का गिलास उसके पेट में पहुँच जाता |अब तो दादी नानी बनने की उम्र आ गई पर मन है कि अभी भी उन गलियारों में घूमने के लिए लालायित है | सच मेरा बचपन मेरा सबसे अच्छा समय ,गर्मी की दोपहरी हो तो सहेलियों के साथ गुट्टे और चकखन पे खेलते बीतती और सर्दियों की दोपहर गेंद तड़ी करते और गिट्टी फोड खेलते | शाम होते ही अपनी गुडिया -गुड्डे की शादी की बरात हाथ में आक की लंबी शाखाए लेकर निकलती और किसी भी सहेली के घर धमा चौकड़ी मचनी शुरू हो जाती |पढते थे और इतना पढते थे कि कक्षा में सबसे अब्बल आते पर खेल के साथ कोई समझौता नहीं | और अब देखती हूँ तो खेल के नाम पर कोई गतिविधि नहीं | बस अधिकतर हुआ तो बैठे-बिठाए कोई वीडियो गेम खेल लिए,| आज जब अपने प्रयास के बच्चों कों फूटबाल और कबड्डी खेलने भेजा तो सारे के सारे बच्चे इतने थक गए कि लगा ये सब शारीरिक तौर पर बहुत कमजोर है और बस तभी से प्राण कर लिया कि शनिवार केवल और केवल खेल और अन्य गतिविधियों के लिए मसलन गाना गाओ कला बनाओ बाते करो अपनी जिज्ञासा दूर करो और करो ढेर सारी मस्ती|

Tuesday, November 16, 2010

प्रतीक्षा

बचपन से अब तक
प्रतीक्षा ही तो करते आये है
कभी मनचाही वस्तु मिलने की
तो कभी अच्छे अंक आने की |
कभी फर्स्ट आने की
तो कभी मनचाहा जॉब मिलने की
कभी देश भ्रमण की
तो कभी सज्जनो की संगत की |
और अब भी
उम्र के इस मोड पर
प्रतीक्षा ही तो कर रहे है |
खुशहाल जीवन की
संतति के उज्जवल भविष्य की
ब्रद्धों के स्वास्थ्य लाभ की
और अपनी जीवनमुक्ति की |
करते ही रहे है हम
प्रतीक्षा ,प्रतीक्षा और
अनवरत प्रतीक्षा
कभी न खत्म होने वाली प्रतीक्षा
और अब
कुछ ही पलो में
खत्म हो जायेगी ये प्रतीक्षा
क्योंकि जब सब कुछ
समाप्त होने कों है
तो कैसी प्रतीक्षा
और क्यों प्रतीक्षा |
ये सब तो जीवन रहने तक है
प्रतीक्षा ,प्रतीक्षा और मात्र प्रतीक्षा |

Sunday, November 14, 2010

आज हम खूब नाचेंगे गायेंगे ।

आज्चाहचा का जन्म दिन है इसे बाल दिवस भी कहते है तो यह हमारा जनदिन हुआ ना ।दीदी तो कह रही थी कि आज तुम्ह्रए कोई नही डांटेगा ,आज तुम केवल मस्ती करोगे ,आज केवल प्यार ही प्यार मिलेगा पर मैन तो जब से उठा हू मान बात -बात पर नाराज हो रही है कभी कहती है आज तो छुट्टी है अभी सेकहा चल दिया जुल्फे काढ कर एक दिन तो मिला है ये तो है नही कि कुछ घर मे काम-धाम करे । मा आज बालदिवस है ना आज तो मै गाना गाऊंगा मुझे राजा बनना है और पता है मा मिठाई भी मिलेगी ।बस बस भाई को सम्भाल बहुत हो गई तेरी बकबक ।और पिताजी ने तो सुबह से ही मूद खराब कर दिया चल देती रोज बस्ता लेकर स्कूल् जायेगी। अरे घ का काम काज देख चार कोठियो मे काम कर । पिताजी पर आज तो बाल दिवस है ना । तो ,ऐसे नेताओ के जन्म दिन तो रोज होते है हमे उससे क्या चुप चाप बोरी उठा और कबाडा चुन कर ला , दोपहर बाद लकडी चुन कर भीलानी है।अरे होंगे कोई चाचा नेहरू ,होता होगा बच्चो का बाल दिवस यहा तन ढकने के लिए कपडे नही खाने के लिए भर पेट भोजन नही मिलता छोटा रोज बिना दूध के ही सोजाता है । पर पिताजी कम से कम आज तो मुझे मत डांटिए ।
आज तो सब उल्टा पुल्टा हो गया । लो और अब ये पिताजी के दोस्त और आगए ।बस ये दोनो बैठ कर ठर्र्रा पीयेंगे और ताश खेलेगे। मन गया मेरा तो बाल दिवस । बस अब सारा दिन घर मे बैठो और इनकी चिक-चिक सुनो। अरे आज स्कूल खुला होता तो कम से कम दीदी नेहरू चाचा की बात तो बता ती नही तो मै पुस्तकालय की रंगीन किताबो को पढ लेता । बस कर दी छुटी और मन गया हमारा बाल दिवस।
सोनू को देखो कैसा तैयार होकर इतरा रहा है । और सब बच्चे हाथो मेन मिठाई के पेकिट लेकर आ रहे है। अगली बार तो मै अपना स्कूल बदल लूंगा । कर दी बाल दिवस पर छुट्टी । मैने तो सोचा था कि आज स्कूल मे खूब सारे गाने गारता और सब मुझे प्यार से कहानी सुनाते पर अब क्तया हो सकता है । चाचा नेहरू आप हीमेरी बात सुन लो । क्या आपको अच्छ लग रहा है कि आज किसी बच्चे की आंखो मे आंसू हो नही ना फिर मेरे मा-पापा को समझादो ना कि आज बाल दिवस है आज तो सब्को मेरी ही बात माननी चाहिए पर ये बडे लोग हमे कही और कभी बडा मानने के लिए तैयार नही । बस्जब देखो इनका ही कहना मानो , अपने मन से कुछ मत करो। अब जल्दी से सुबह हो ,स्कूल खुले तो मै तीचर जी से कह दूंगा देखो दीदी, ये बाल दिवस पर छुट्ती बुट्टी मत करा करो। अब देखो ना मा ने एक बडा सा बोतरा कन्धे पर रख दिया और कह दिया कि जा और लकडिया चुन कर ला ,तभी तो रोटी बनेगी। और देखो मेरे दोस्त की बहिन भी उसे डांट रही हैकि क्यो समय खराब कर रहा है बोरा उठा और कबाडा बीन । तू समझता क्यो नही हम बच्चो के लिए कोई बाल्दिवस विवस नही होता । हमे तो रोज एक ही चिंता करनी है कि पेत कैसे भरे । देख रे तूने ज्यादा तीन पांच की तो कल से स्कूल जाना भी बन्द हो जायेगा ।
अब समझ आया कि ये बाल दिवस हमारेलिए नही है । अच्छा तो वो दूसरे बच्चे होंगे जिनके लिए बाल दिवस होता होगा । कोई बात नही जब मै मर कर चाचा के पास जाऊंगा तो पूछूंगा जरूर क्यो चाचू ,आप भी बच्चो मे भेद भाव करते हो । उस के लिए बाल दिवस और हमरे लिए काम दिवस।

Thursday, November 11, 2010

क्या सबला योजना हमें वाकई सबला बना पायेगी ?

वैसे तो यह सब सरकारी नीतियों की इबारत भर है ,इसका यथार्थ से क्या लेना देना | पर यह कभी नहीं समझ आता कि हम जिसके लिए इन योजनाओं का सूत्रपात करते है उन्हें शिक्षित होने बनानेका प्रयास क्यों^ नहीं करते | शिक्षित होना तो दूर की बात है असल में तोहम उन्हें साक्षर भी नहीं बनाना चाहते | हमने गरीबो जैसी एक जाति बना दी है और अब हम उन्हें कुछ लाभ दिलाने ेजैसी कवायद कर रहे है | हमारा किसी भी समस्या के मूलभूत पहलुओ से कोई लेना-देना नहीं होता |हम सदा फुलक को सीचने में ही अपना सारा श्रम लगा रहे है| हम कभी भी यह नहीं चाहते कि वह अपने पैरों पर खड़े हो सके ,बिना बैशाखियो के चल सके |हमारी हर संभव कोशिश रहती है कि वह हमेशा हमारे सहारे ही चलते रह| उनमे यदि विवेक जैसी चीज पैदा हो गई तो हमारे लिए खतरे की घंटी बज जायेगी | वह हमारे ऊपर निर्भर होना छोड़ देंगे | हम हमेशा उनके खैर ख्वाह बने रहना चाहते है | हम उन्हें कमाना नहीं सिखाते वरन उन्हें अपने हाथ की कठपुतली बनाए रखने में अपना गौरब मानते है| कैसे तो बदले ये स्थिति?
यदि केवल शिक्षा के ही आंकड़े लें ,तो तस्वीर कुछ इस तरह की नजर आती है | सब बच्चों को प्राथमिक शिक्षा का अनिवार्य अधिकार मिल् सकें,इसलिए इस शिक्षा के साथ मिड डे मील को जोड़ दिया गया | सोच तो बहुत अच्छा था पर तस्वीर ही बदल गई | माता-पिता अपने बालको कों पढने के लिए तो नहीं पर राशन मिलने के नाम पर उस एक विशेष दिन अवश्य भेजने लगे | मिड डे मील के साथ अनेक अनियमितताए जुड गई और यह कुछ लोगों के लिए खाने -कमाने का साधन बन गया|| इन बच्चों के लिए पुस्तके और कापिया मुफ्त दी गई तो हश्र यह हुआ कि इन पुस्तकों की कालाबाजारी शुरू हो गई | पढ़ाना - लिखाना तो दूर रहा ,अध्यापको केलिए अध्यापन कार्य से बचाबके लिए अनेक अवसर हाथ आ गए |बी.एड. वालो के लिए बिशिष्ट बी.टी.सी की व्यवस्था की गई ,,कोशिश कीगई कि हम सबको रोजगार देसकें पर स्थितिया तो और बदतर हो गई| न पढने वाले तैयार है और पढाने वाले तो अपनी समस्याओं से इतने अधिक घिरेहुए हैं कि पहले वह अपने कार्य स्थल तक सुरक्षित पहुँच जाए तब पढाने का नंबर आये|
आखिर हम करे क्या कि सब कुछ ठीक हो जाए|मेरी समझ से कुछ उपाय किए जा सकते है-
१. बच्चों कों शिक्षा देने से पूर्व अभिभावकों की मानसिक तैयारी करे|उन्हें यह महसूस कराये कि बच्चों की पढाई -लिखाई उनके स्वयं के परिवार के लिए आवश्यक है न कि सरकारी आंकडो कों पूरा करने के लिए |
२. बच्चोंको परिवार के कमाऊ सदस्य के रूप में तैयार करे |
३. ऐसे बालको की शिक्षा केतौर तरीके और पाठ्यक्रम में बदलाब बहुत जरूरी है |हम सब धान बाईस पसेरी सेरी वाली नीति अपनाएंगे तो परिणाम बहुत सुखद तो नही होंगे|
४. यदि संभव हो सके तो उनके पढाई के घंटे इस तरह से रखे जाए जिससे यदि वे कही अन्य अर्थोपार्जन का कार्य कर रहे हो तो वह बाधित न हो |
५.सरकारी योजनाओं के व्यावहारिक पक्ष जरूर देखे जाए|
६.जो अध्यापक इस कार्य में लगे है ,उन्हें बाल मनोविज्ञान का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है लेकिन यह ज्ञान केवल सैद्धांतिक न हो वह अध्यापक इन बच्चों की समस्याओं कों समझाने का माद्दा भी रखते हो|
अंतत किसी भी योजना के प्रारूप कभी बुरे नहीं हुए करते पर उन के कार्यान्वन में जो चूक हो जाती है ,उसके प्रति सतर्क रहना
७.

Monday, November 8, 2010

और तुम कहते होकि

जब हम चुप दिखते है
सबसे अधिक बोल
रहे होते है
मन ही मन ।
जब हम नहीं
लिख रहे होते हैं
हम सबसे अधिक
सोच रहे होते हैं
घटनाओं को ।
या कहो हम
पचा रहे होते हैं
अपने आक्रोश को
और जब सो रहे होते हैं
तो करते हैं तैयारी
अगले जागरण की ।
और तुम कहते हो यार
आजकल दिखते नहीं
कुछ लिखते नहीं।
रोज ही तो घट्जाता
है ऐसा
जिसे लिखे बिना
रहा ही नहीं जाता ।
पक रहा होता है
कल का कथानक
बुन रहे होते है
नये सपने
जुड रहे होते है
नए समीकरण ।
बदल रहे होते है पात्र
मेरेनाटक के
ईजाद हो रही होती है
नई मांगे ।
रच रहे होते हैं दुशमन
नए-नए षडयंत्र
अब बोलो सब लिख डालूं
तो पढ पाओगे
इतना निर्मम और कटु सत्य
इसलिए कभी -कभी
कडवाहट को कुछ कम करने में
लग ही जाते हैं
कुछ पल
और फिर एक नई इबारत के साथ
रचना तो ऐसे दौडती है
मानो खूब घोटी गई पट्टी
पर सर कंडे की पैनी कलम
सुन्दर और सुघढ हर्फोंमें।
और तुम कहते हो ।

Saturday, November 6, 2010

चलो ,आज पढाई को गुनते हैं।

जब से होश सम्भाला है बस एक ही आवाज सुनाई आती है पढो,पढो और खूब पढों। तब मन होता था पूछे आखिर पढ-लिख कर होगा क्या?यदि कभी पूछा होता तो जबाव मिलता पढोगे लिखोगे बनोगे नबाव ।चलिए ,आपकी बात मान ली और पढ भी लिया उन पोथियों को जो हमें जरा भी रुचिकर नहीं लगती थी लेकिन नम्बर लाने थे ,परीक्षा पास करनी थी । दूसरी कक्षा में जाना था । सब पढते गए ,रिजल्ट के आधार पर आगे बढते गए,अंक भी लाते गए पर इससे क्या हम तो पहली कक्षा में सिखाया गया सबक भी व्यवहार में नहीं लाते। अरे भाई पढ लिख कर नबाव तो बन गए पर हमें न तो बदलना था और न हम बदले।
सिखाते रहे गुरुजी बार-बार ,लिखवाते रहे इमला सौ बार -सदा सच बोलो ,हम लिख भी देंगे ,सुन्दर -सुन्दर हर्फों में ,बिलकुल वर्तनी की गलती नहीं करेंगे पर जब बोलना होगा हम सदैव झूठ ही बोलेंगे।बस इसी शिक्षा के लिए हाय-तोबा है। शिक्षा की तो पहली परिभाषा ही यह है कि शिक्षा व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन लाती है,उसे परिस्थितियों से समायोजन करना सिखाती है ,आत्म निरभर बनाती है ,समाज के लिए उपयोगी बनाती है ।कहां चूक हो रही है कि इतनी डिगरियों के बाबजूद भी हम कहींआधे-अधूरे हैं ।
मेरी समझ से एक बडा कारण है कि हमें जो पढाया जा रहा हैवह कहीं जीवन की स्थितियों सेतालमेल नहीं रखता ।
अकसर हम अपने विद्यार्थियों को रटने की प्रेक्तिस कराते हैं ,उन्में विषय की समझ विकसित नहीं कर पाते ।महाभारत का एक प्रसंग है जब सभी विद्यार्थियों को पाठ याद करने को दियागया और दूसरे दिन सुनने का क्रम आया तो अकेले युधिष्ठर ने कहा -गुरुजी मुझे पाठ याद नहीं हुआ है।जिस दो लाइन को सभी शिष्य आसानी से सुना रहे थे उस के लिए युधिष्ठर का यह कथन गुरुजी की समझ में नहीं आया। क्योंकि युधिष्ठर उस पाठ को जीवन में उतारने को याद करना मानते थे न कि केवकल शब्दों को रट लेना । यही अंतर हम पूरी शिक्षा व्यव्स्था में देख सकते है और इसका परिणाम भी हमारे सामने है कि हम केवल सूचनाओं के गडः तो हो गए हैं पर गहरी समझ विकसित होना अभी बाकी है।
जितना पढा बहुत है । अब उससे अधिक समय उसे गुनने ,समझने और जीवन में उतारने के लिए चाहिए ।छोटे-छोटे सन्दर्भ जीवन बदल दिया करते है बशर्ते हम सीखे हुए का कभी फुरसत के क्षणों में आत्म मंथन कर पायें।

Friday, November 5, 2010

मेरा आज कुछ खो गया है

मैं तकरीबन 6 या 7 साल की रही हूंगी जब खेल-खेल में एक चीटा मर गया था और हम दोस्तों ने उसे एक गढ्ढा खोद दफना दिया था और कई दिन तक सबकी नजर बचा मै उस स्थान पर पानी और फूल चडा आती थी।फिर धीरे-धीरे मैं सब कुछ भूल गई। 98 में हम जिस घर में रहते थे उस घर का बालक इक दिन अपनी जेब मे दो स्वान शिशुओ को लेकर आया और बोला आंटी जी देखो कितने प्यारे ह ैआप एक ले लो और एक मैं रख लूंगा । मैंने उस कुछ दिन के दुध मुंहे बच्चेको अपने घर में रख लिया और उसके हलके भूरे रंग को देखते हुए बच्चो ने उसका नामकरण भी कर दिया ब्राऊनी ।अब तो वह ब्राऊनी हमारे घर का खिलौना बन गई। पर उसे पालने के लिए जो कवायद चाहिए थी उसे मैं अपनी नौकरी के कारण पूरा नहीं कर पा रही थी।तो मैंअपने मांपिता के पास उसे छोड आई पर हर दोतीन दिन बाद उसे जाकर देख आती और मां कहती बेटा यह तो खाना भी नहीं खाती और तुम लोगों को बहुत याद करती है। लेकिन धीरे-धीरे वह पिताजी की चहेती बन गई और उसका भोजन पानी सनब पिताजी के साथ ही होता था । प्रसब के समय मां एक जच्चा जैसी देखभाल करती और उसके लिए कभी हलुआ और कभी खिचडी बनाती तो पूरा घर कहता अरे भाई पशु है पशु की तरह ही रखो । और पिताजी तो उससे भी एक कदम आगे थे। उसके सोने के लिए बिस्तर तैयार करना और पूरे दिन उसकी छोटी छोटी आवश्यकताओ का ध्यान रखना कभी-कभी हम भाई बहिनो के मन में हलका-फुलका आक्रोश पनपाता था ।
2002 में जब पापा नहीं रहे और हम अपने नव निर्मित घर में मां और ब्राऊनी के साथ रहने लगे,तब मैंने जाना कि ब्राऊनी तबहुत सदय और समझ दार हो गई थी। हम जब भी बाहर होते वह खाना खाना छोड देती ।गलती होने पर सिर झुका कर खडी रहती। मैं ,मेरे पति ,बच्चे ,मेरी बहिन सबके लिए ब्राऊनी उतनी आवश्यक हो गई थी ।वह हमारे घर के अनिवार्य सदस्य के रूप में जी रही थी ।अभी दो साल पूर्व जब मां भी चल बसी तब मुझे ब्राऊनी को पूरी तरह संभालना था ।सब तो शायद उसे पाल रहे थे पर मैं कहीं दिल से उससे जुड गई और उसके सम्बन्ध कहा गया एक शब्द भी मुझे तीर जैसा लगता । एक माह पूर्व उसे ब्रेस्ट केंसर हुआ डाक्तरों को दिखाया ।उसे कुछ इंजेक्शन दिए पर बता दिया कि यह अब ज्यादा दिन नहीं चलेगी । मुझे तो उसी दिन मानसिक रूप से तैयार हो जाना चाहिए था पर मोह कहीं कितनी जल्दी थोडॆ ही छूटता है। मैं उसके लिए और सजग हो गई । उसकी मन पसन्द सभी चीजे उसके लिए रखती।उसे बचपन में कच्चा आलू,गाजर ,भुटिया ,गिरी खाना बहुत पसन्द था।लेकिन अब वह इन की ओर तकती भी नही थी। उसकी दर्द भ्री रातों की गवाह हूं मैं , रात में उसे जाकर कम्बल उडा आना ,कभी उसकी पानी की बाल्टी भर कर रख आना मेरी दिनचर्या का अंग हो गया ।
आज मेरी वही प्यारी ब्राऊनी बिना किसी को कुछ बताए ,चुपचाप चिर निद्रा में चली गई। मेरा मन बहुत बैचेन है। कहने को तो दीपाबली की पूजा की है पर आज त्योहार त्योहार नहीं लग रहा। लगता है मेरा कहीं कुछ खो गया है ।

Wednesday, November 3, 2010

रिश्तों को भी चाहिए खाद -पानी |

ऐसे ही नहीं पनपते रिश्ते ।हम जिस समाज और घर परिवार के मध्य रहते हैं तो हमें उन रिश्तों का मान करना भी आना चाहिए। पर हम तो धीरे -धीरे अपने लोगों से ही कटते जा रहे हैं।हमने अपने लिए एक नई दुनिया बनाने की कोशिश की है पर हम अपनी जड से ही कट गए है। प्रत्येक बच्चा अपने माता और पिता के परिवार से निश्चित रूप से जुडा ही होता है और उसे अपने मा और पिता के परिवार के बारे में पूरी जानकारी होनी ही चाहिए । पर कम ही बच्चे ऐसे है जो अपने बाबा दादी नाना नानी ताऊ ताई चाचा चाची बुआ फुफा मौसा मौसी बहन बहनोई मामी मामी के रिश्तों की जानकारी रखते हैं । कारण है कि वे इन परिवारों में यदा-कदा जाते हैं और उन्हें भी अंकल आंटीनुमा जैसेकभी-कभार आने वालों कीलिस्ट में रख लेता है।
करें भी क्या ,हमारी व्यस्तताए जो इतनी अधिक बढ गई हैं। हमें आसमान की ऊंचाईयां जो छूनी है ,बडा उद्योगपति बनना है । ये पारिवारिक रिश्ते तो बहुत निभा लिए अब हमें ग्लोबल बनने दीजिए । हमारे पास देर रात तक चेटिंग के लिए समय है पर अपने व्रद्ध माता-पिता के पास दो घडी बैठने के पल नहीं। मा कब से आस लगा रही थी कि बेटा त्योहार पर आयेगा हम खूब सारी बातें करेंगे पिता ने सोचा था अब की बार बच्चे आयेंगे तो छत बदलबा लेंगे,बारिश में बहुत परेशानी होती है । पर बच्चे आये जरूर ,सबके लिए उपहार भी आये पर किसी के पास दो पल बैठने की फुरसत नहीं । सब आते ही अपने -अपने कार्यों में व्यस्त हो गए ।मां पगलाई सी बच्चों के मनपसन्द खाने बनाने में जुटी रही और जब उसने सोचा चलो अब तो फुरसत है कुछ कहेंगे कुछ सुनेंगे,पर ये क्या बच्चे तो अपनी दुनिया में मस्त है । जब भी मां वृहत परिवार के विषय में बताना चाहती हैं बडी उपेक्षा से अनसुना कर टिप्पणी दाग दी जाती है-
-क्या मां आप दूसरों के बारेमें बातें क्यों करती है ,और मां अवाक है क्यों रे ये दूसरे कौन हो गये । चुन्नी तेरी बुआ की और पूनम तेरी मामा की लदकी है सब भूल गया क्या ?क्या मां ,अपनी व्यस्तता में अपनी ही बहिन ध्यान रह आये यही बहुत है किस -किस को याद रखूं। मेरे पास बहुत काम है । इस सब के लिए समय नहीं।
सच है जिन रिश्तों की हमें परवाह ही नहीं वह अब क्यों बचे रहे ? क्या अपने सगे-सम्बन्धियो के साथ हमारा यह बरताव स्वागत योग्य है?हमने अपनी जडे इतनी खोखली कर ली हैं कि हम स्वयम को पहचानने से ही डरने लगे हैं।जिन रिश्तों को पषा नहीं जाता वह्क्यों कर पनपेंगे। आज हमें वह सब कुछ मिला है जिसकी चाहत हमने की थी । रिश्तों की परवाह नहीं की और अब परिणाम सामने है कि हमें बच्चों को पढाई में उसके खुद के ही परिवार का चार्ट बनाना सिखाना पढता है । जब मैंने बच्चों से कहा कि अपने माता-पिता के परिवार के सभी सदस्यों के नाम लिख कर कर दिखाओ तो बमुश्कोइल उसने चार नाम लिखे मा,पिता भाई का और बहिके नाम पर कह दिया मेरे तो बहै नहीं है । मेरे बार पूछने पर कि बुआ ,मौसी,मामा की लडकी कोई तो होगी उसका नाम लिखो। बडी मासूमियत से जबाव दिया वो मेरी बहिन कैसे हो सकती है । उसका तो भाई है।
अब ये नजरिया यदि बच्चों में विकसित हो रहा है तो हमें निश्चित रूप से सावधान हो जाने की जरूरत है। आखिर हम कहां जाना चाहते हैं ,हमने अपने लिए क्या लक्ष्य चुना है? हमारी प्राथमिकताए क्या हैं ?हम अपने ही हाथों अपने लिए गढ्ढा खोद रहे हैं?विरासत में क्या देकर जारहे हैं हम अपनी सनतति के लिए /क्या इसीभविष्य के सपने संजोये थे हमारे जन्म्दाताओ ने ?हम क्यों भूल रहे हैं कि रिश्तों की पहली बुनियाद आपसी व्यवहार है । हम सुख-दुख के कितने मौकों पर अपने सम्बन्धियों के पास वक्त गुजारते है,कितनी शामें हमारी उनके साथ्बीतती है । क्या कहा समय की कमी हैतो मेरे दोस्त समय तो सबके पास ही 24 घंटे होता है। इस काम को भी जरूरी मानोगे तो समय भी लनिआल्लोगे । एक बार ऐसा करके तो देखो। ये रिश्ते भी खाद पानी मा6गतेहै। जरा देकर तो देखिए कैसे लल्हाने लगेगी रिश्तों की बगिया

Monday, November 1, 2010

ऐसे होते हैं पिताजी

क्या आपका बच्चे ने आपकी अंगुली पकड़ के चलना सीखा है ? क्या उसकी तोतली बातें आपके दिमाग में रचीबसी है? क्या आप अपने बच्चे को अपने कंधे पर बैठा कर कभी मेला तमाशा दिखाने ले जाते हैं ?क्या आपका बच्चा आपके सीने से लग कर सोता है?क्या आपकी गोद उसे मिलती है?क्या आप उसेअपने हाथों से खाना खिलाते हैं ?क्या कभी उसका स्कूल बेग लेकर बैठते हैं और उसके बस्ते को चेक करते हैं?क्या आप बच्चे की बातों को तरजीह देते हैं या उसे बच्चा कहकर टाल देते हं?
क्या उसकी मित्रमंडली के बीच कभी उठे-बैठे हैं?क्या आप जानते हैंकि आप के बच्चे को कौन सा खेल खेलना पसंद है?क्या आपकी शामें उसके साथ बीतती हैंया आप इतने व्यस्त हैंकि शाम तो दूर उसके लिए आप छुट्टी के दिन भी उपलब्ध नहीं हो पाते?
क्या पूछा रही है आप ? भला इन सब का पापा होने से क्या सम्बन्ध ? मैंने अपने बेटे के लिए हर वह सुविधा खरीद दीहै जो उसे चाहिए |पढाई के लिए हर सब्जेक्ट का ट्यूटर लगा दिया है| स्कूल आनेजाने के लिए दो-दो गाडिया है |जितना जेब खर्च उससे कहीं अधिक देता हूँ |घर पर हर कार्य के लिए नौकर हैं ,आया हैं ,खाना सब उसकी पसंद का बनता है |उसके कहने से पहले ही उसकी सारी जरूरते हम पूरी कर देते हैं |आखिर मैं दिन रात इतनी मेहनत क्योंकरता हूँ सब उसके लिए ही ना ?अब उसे कहीं भटकने की जरूरत भी नही |लेपटोप है सारी जानकारिया घर बैठे एक क्लिक से प्राप्त कर सकता है और आप है कि मुझसे ही प्रश्न कर रहे है कि क्या आप अपने बच्चे को प्यार करते हैं ?
सच ही है एक पिता भला इससे अधिक क्या करेगा?पर शायद आपका बच्चा अपनत्व कहीं और खोज रहा हैउसे हमने घर नहीं बल्कि इक ऐसी छत जरूर दी है जहां एक साथ सब सामान जरूर मिलता है पर जो मिसिंग है उसे तो हम देखना भी नहीं चाहते ?आखिर क्यों हमारे बच्चे हम से दूर हो रहे हैं |कईं परिवार में केवल पैसा ही सब कुछ बन बैठा है क्यों बीमार होने पर केवल मंहगी दवाओनौर अच्छे अस्पतालों में एलाज्केलिए छोड़कर हम अपन र्कर्तव्य की इतिश्री माँ लेते हैं सेवा और सहानुभूति शब्द तो अब कोष से बाहर हो गए हैहम किसीसे तसल्ली सेबात नहीं कर सकते |उसे सान्तवना नहीं बंधा सकते |इतना समय कहाँ है हमारे पास ? किसी का दुखदर्द पूछने का समय इतने व्यस्त कार्यक्रम से कैसे निकाले और अब परिणाम हमारे सामने है हमारे घर एक अजायब घर और महंगे बाजार में तो बदल गए हैं पर अपनत्व और आत्मीयता कहीं खो गए हैं ?क्या बच्चे के देर से आने पर आप उसके लिए चिंता कर उसे खोजने जाते है या सोच लेते है -कहीं बैठा होगा अपने मित्रों के पास| ज्यादा दखल देना अच्छा नही| सब कुछ सच है पर यह भी उतना बड़ा सच है कि हमें अपने घर बचाने के लिए सजग होना ही पडेगा|

दोस्ती

जब पूछो किसी से दोस्ती के बारे में

बड़ा सरल जबाव होता है उसका

अरे दोस्ती का क्या वह तो

हो ही जाती है ,की नहीं जाती |

जब मेरा या उसका काम अटकता है

हम बन ही जाते हैं दोस्त

और जब हम बेकार होते है

दोस्त या तो बन जाते है दुश्मन

या हो जाते हैं तटस्थ

जैसे वे आपको जानाते ही नहीं|

अब नहीं हुआ करते लंगोतिया यार

होते है जींस नुमा दोस्त

जिन्हें जल्दी -जल्दी बदलनेकी

होती है आदत |

कभी सिखाया जाता था

सत्संगति किम न करोति पुंसाम ?

बुरी संगत को

पैर में बंधे चक्की पाट से

तौला जाता था |

और अब

जो जितना बड़ा दुर्व्यसनी है

उतना ही महान है

उसकी दोस्ती से ही

होते हैं आप सर्व् शाक्तिमान

आपके सभी काम हो जाते है सिद्ध

बिना लाइन में लगे हो जाता है प्रवेश |

तो अब न तो मेरा कोई मित्र है ऐसा

जो मेरे सब काम करा पाए चुटकी में

और सिखा पाए शोर्टकट

इसलिए बैठे रहते हैं हम

वर्षों -वर्षों इंतज़ार में

और सोचते हैं हम

क्यों नहीं गाँठ पाए दोस्ती

ऐसे लोगों से जो

बलशाली और प्रभावशाली हैं|

वरना हमारे भी हो जाते

वारे न्यारे कभी के|

Sunday, October 31, 2010

मेरी भी बात सुनो मम्मा

जी हाँ ,बच्चे को स्कूल भेज कर इतने निश्चिन्त मत हो जाईये|अपने लाडले के लिए शहर का चुनिन्दा स्कूल खोज कर और उसकी फीस भरकर ही आपका दायित्व समाप्त नहीं हो जाता | नवंबर कान्वेंट विद्यालयों में नन्हे मनों के प्रवेश का समय होता है हर तरफ मारा-मारी है माता पिता हीनही पूरा परिवार उनके प्रवेश को लेकर चितित है | और अब पूरी जुगाड लगाकर प्रवेश भी हो गया है |माता बहुत खुश है पर उस नन्हे मन पर दबाव बहुत अधिक है | सबकी अपेक्षाए उस नन्ही जान से जुड गई है|अंकों और प्रतिशत का भूत अभी से सवार हो गया है | मम्मियो के मन खुशियों से भरे-पूरे है | अब वह इठला -इठला कर बता रही है -पता है उस स्कूल में प्रवेश कितना कठिन है पर हम तो गंगा नहा लिए| मुझे आश्चर्य हो रहा है कि पहले तो बेटी के हाथ पीले कर माता-पिता गंगा नहाते थे अब उस शिशु के विद्यारंभ पर ही इति हो गई |
बच्चा नए माहौल और विदेशी भाषा के मध्य अपने को अजनबी पा रहा है | सुबह देर तक सोना चाहता है माँ के साथ बतियाना चाहता है पर स्कूल बस जो आगई समय हो गया | उसकी नींद भी पूरी नहीं होती तब तक तो उसे बिस्तर से निकालकर नहला धुला कर जबरदस्ती उनीफोर्म पहना कर ताईबेल्ट जूते मौजे से लैस कर जल्दी जल्दी नाश्ता करने के निर्देश देना शुरू हो जाता है | बेचारा क्या करे ?अभी तो वह ढंग से फ्रेश भी नहीं हुआ है पर क्या किया जा सकता है जबरदस्ती लाडले के मुह में नाश्ता ठूसा जारहा है ,पापा टिफिन और बस्ता लेकर खड़े है| सब उसके लिए ही किया जा रहा ही पर उसके मन में क्या चल रहा हैउसे कोई नहीं देखना चाहता | अब इतनी आपाधापी का युग है कि यदि मन वन पर ध्यान देने लगे तो उसके करियर का क्या होगा |उसे तो बहुत बड़ा डाक्टर या इन्जीनिय र नुमा जीव बनाना है और उसके लिए ही ये सारी कवायदे की जा रही है|
स्कूल पहुँच कर अपनी मेडम को अपने मन की बात बताना चाह रहा है पर वहाँ तो मेडम जी को पाठ्यक्रम पूरा कराबाना है | उनके पास कहाँ समय है इस बकवास को सुनाने के लिए | बस्जो कहा जा रहा है उसे चुपचाप रातो और लिखो| बस एक ही रत है अच्छे नंबर लाओ | भारी बोझ से लड़ा फदा अपराह्न में घर पहुंचता है और सोचता है अब तो छुट्टी हुई | पर माँ को जल्दी है उसे लंच कराने की ,स्कूल का काम पूरा कराने की ,और फिर ट्यूशन वाले सर भी तो चार बजे आजाते है | बेचारी क्या करे | बच्चा खेलने के लिए तरस रहा है उसका मन है माँ से ढेरो बाते करे ,अपने स्कूल की फिजूल वाली अपने दोस्तों वाली बाते बताएं , अपने दोस्त के विषय में बताना चाहता है पर उसे चुपचाप केवल वही करना है जो मम्मा कह रही है आखिर उसके करियर का सवाल जो है |
अब शाम हो गई ,अब होबी क्लास के लिए जाना है ,स्विमिंग पूल लेजाना है और अब कम्पूटर सीखना भी तो बहुत जरूरी है |लो सोचा था शाम तो अपनी होगी वह भी गई|
रात हो गई| पापा घार आगये हैं | आते ही पूछते है बेटा होम्बर्क पूरा हो गया है या नहीं और कुछ नहीं क्या पापा दिन भर बाद तो आपको देखा सोचा था माँ नहीं तो कम से कम आप तो गोदी लोगे कुछ मेरी सुनोगेपर आप भी| बच्चा रूआसा हो आया है | जल्दी जल्दी डिनर लगा दिया है बेटा जल्दी खाऊ और जल्दी बिस्तर पर जाओ नहीं तो सुबह स्कूल जाने में फिर देर हो जायेगी |
लो अब पूरी जिंदगी यही दिनचर्या जीनी है|

Thursday, October 28, 2010

लडकी की शादी के लिए क्या जरूरी है –शिक्षा ,नौकरी या दहेज ?

बात तो कई दिनों से मथ रही थी पर आज तो इंतहा हो गई और मैं यह पोस्ट लिखे बिना नहीं रह पाई।मेरी मौसी जात बहिन की शादी 18 नवम्बर की तय हुई,निमंत्रण पत्र भी भेज दिए गये ।मैं बहुत उत्साह में थी ,सबसे मिलने –जुलने का अवसर जो हाथ आया था। पति देव ने भी छुट्टियो के लिए आवेदन दे दिया था और मैं योजनाए बनाने में व्यस्त हो गई। कल शाम मेरे बहनोई का फोन आया । उन्होने जानकारी दी कि दीदी शादी केंसिल कर दी गई है क्योंकि ऐन वक्त पर लडके वालों की मांग बढ़ गई और मैं पूरा करने की स्थिति में नहीं हूं।फोन मेरे पति ने ले लिया और उन्हें सांतवना देने लगे , आपने बिल्कुल ठीक निर्णय लिया, हम आपके साहस की प्रंसंशा करते है और आपके साथ है।
बात तो केवल इतनी सी है पर मैं बहुत सारे सवालों से घिर गई हूं। यदि लडकी की शिक्षा दीक्षा की बात है तो लडकी उच्च शिक्षित है ,नौकरी पेशा की बात है तो बैंक
मेनेजर है, दहेज की बात करें तो कन्या के पिता मध्य्वर्गीय जरूरतों को पूरा कर लेते हैं जिस लड्के से सम्बन्ध तय हुआ वह नौकरी की दृष्टि से लड़्की से एक पायदान नीचे ही है फिर ये शादी क्यों न हो सकी ?पहले तो यह माना जाता था कि अपनी सामर्थ्य के अनुसार माता –पिता जो धन सम्पत्ति ,गहने आदि देते हैं ,उसे ही दहेज कह दिया जाता है । फिर माता-पिता अपनी लड कियों को पढाने लगे ।उनमें जागरूकता आई पर शादी की समस्या मे दहेज के मामले में कोई परिवर्तन नही हुआ। अब लडकिया शिक्षित भी हो गई लडकों के बराबर बल्कि उनसे एक कदम आगे ही ,नौकरी पेशा भी हो गई लेकिन दहेज की समस्या में कोई रियायत नहीं मिली । हम लडकियो की समझ में नहीं आता कि हम करें तो कया करें?
जब पढाई की बात आती है तब भी एक तनाव होता है कि यदि ज्यादा पढ लिख लिए तो मुसीबत कि उतना योग्य लडका नहीं मिला तो ,शोध के लिए जाएं तो शोध निर्देशक का पहला सवाल होता है _अरे भाई तुम् लडकियों के साथ एक ही मुसीबत है अब कहीं बीच में शादी वादी हो गई तो तुम शोध का कार्य क्या करोगी ,अपनी गृहस्थी में लग जाओगी पर यही प्रश्न कभी भी किसी शोध छात्र के सामने नही उठाया जाता जबकि शादी तो उनकी भी होती है ।
जोब के लिए जाये तो फिर वही प्रश्न कि शादी के बाद नौकरी कर पाओगी या नहीं । लगता है जिन्दगी के सारे प्रश्न केवल विवाह और विवाह से ही जुडे हुए हैं । कभी- कभी तो लगता है कि शादी केवल हम लडकियों की ही होती है क्या ?अब यदि किसी कारण से कहीं सम्बन्ध न हो पाये तो भी मीन मेख लडकी में ही निकाली जाती है अरे वो पहले से ही तेज है क्या किसी के साथ घर बसायेगी ।अरे पहले मां पिता की जिम्मेवारी तो उठा ले तब शादी की बात हो ।यदि परिवार में पुत्री ही पुत्री है और यदि कहीं अपने माता-पिता की देखभाल करने का संकल्प ले लिया तो और मुसीबत ।अब उसे शादी के बारे में तो बिल्कुल ही नहीं सोचना चाहिए। हमेशा से लडका अपने माता पिता के साथ रहता है शादी से पहले और शादी के बाद भी और यह बहुत सम्मान की बात समझी जाती है पर यदि आपने कन्या की योनि में जन्म लेकर कहीं गलती से भी इस विषय में सोच भर लिया तो समझो आफत आ गई। बेचारा लडका तो जिन्दगी भर बीच मझदार में पड जायेगा ।अब वह यदि अपनी पत्नी की बातों का समर्थन करता है तो अपने माता पिता की नजरों में ससुराल का मजनू कहलायेगा । आज तक समझ नहीं आया जिन मांबाप की सेवा करके बहू को पुण्य प्राप्त होता है ,उसी सेवा को करते हुए जामाता को निन्दा का पात्र बनना पड़्ता है और लड्की को भी लगातार आलोचना का पात्र बनना पडता है।यदि कडा दिल करके घर की बहू कहीं माता – पिता के विषय में सोचना प्रारंभ कर दें तो यह मान लिया जाता है कि वह ससुराल को क्या देखेगी उसे तो अपने पीहर वालो से ही फुरसत नहीं मिलती
मेरी अनेक मित्र है जिन्होंने आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लिया है । उनका पूरा जीवन किसी एक परिवार की सेवा और केवल अपनी ही संतानो के लिए नहीं वरन समाज के एक बडे वर्ग की सेवा में बीत जाता है। हमें तो खुश होना चाहिये पर इसमेंभी हमें इतराज हो जाता है हम खोद –खोद कर यह जानने में लगे रहते हैं कि आखिर उनकी शादी क्यों नहीं हुई ? जरूर कुछ कमी रही होगी और हम तब तक चुप
नहीं बैठते जब तक कि हम अपनेमन की संतुष्टि ना कर लें।कैसी गन्दी मानसिकता है और कैसे गन्दे समाज के बीच रहते हैं हम? कन्या के माता –पिता होना ही इतना दुर्भाग्य पूर्ण होता है कि वे कभी गंगा नहीं नहा पाते ?उच्च शिक्षा दिलाकर तो वे अपने
पैरो पर और कुलहाडी मार लेते हैं। फिर कहीं बच्ची की नौकरी और लग जायें तो माना तो यह जाता है कि सोने में सुहागा पर शादी के लिए यह भी एक समस्या ही है । मसलन जिस शहर में उसकी शादी हो रही है क्या वहां लडकी को नौकरी मिल पायेगी?
क्या लडकी नौकरी के साथ अपने विवाहोपरांत के दायित्वों को पूरा कर पायेगी ? अब उसके सामने दो ही विकल्प हैं या तो वह नौकरी छोड दे और नई स्थितियों मे स्वयम को समायोजित कर ले अथवाऐसी नौकरी खोजें जिससे घर और परिवार बाधित न हो ।
अब इन स्थितियों में क्या यह ज्यादा उचित नहीं है कि वह नौकरी विवाह के बाद ही करना शुरु करे।उससे पूर्व वह स्वयम को नौकरी के लिए तैयार अवश्य कर ले, अपनी शिक्षा दीक्षापूरी कर ले ।
बस आज इतना ही पर मेरी बात अभी पूरी नहीं हुई ।बाकी का अगली पोस्ट

Monday, October 25, 2010

आओ बातें करें।

पाठक गण, आपको आज का विषय अटपटा लग सकता है पर कितना जरूरी है इस छोटे से मुद्दे पर बात करना । आपने प्रताप नारायण मिश्र का आलेख बात तो पढा ही होगा ।तब से कितना पानी गुजर गया पर बात अपनी जगह अब भी कायम है। यह भी हो सकता है कि आज संचार् क्रांति के युग में फोन ,चेटिंग और एस एम एस ने बातों की जगह ले ली हो ।
और अब आमने सामने आप किसी से बातें करने का मौका न पाते हों। हम कितना बोलते हैंऔर कैसा बोलते हैं क्या कभी इस पर विचार किया है? क्या बोलने से पहले हम अपने शब्दों को तौलते है ? क्या जिससे बातें की जारही है उसके पद और गरिमा का ध्यान हम रख पा रहे है ं? हमारे मुंह से निकला एक एक शब्द कभी व्यतर्थ नहीं जाता ।हमारे शब्द किसी के चेहरे पर प्रसन्नता ला सकते हैं उअर किसी के चेहरे के नूर को छीन भी सकते हैं।कुछ दिनों पूर्व हमारे यहां एक सज्जन आये । यदि उनकी बातों का पूरा ब्योरा यहां दूं तो आप स्वत: ही समझ जायेंगे कि वे ह्रजरत ्पूरे समय केवल अपना गुणगान ही करते रहे ही करते रहे ।कभी- कभी तो अपने को इतने ऊंचे पाय्दान पर रख देते कि सुनने वाले को खीझ पैदा हो जाती।इतना बडबोला होना ठीक नहीं ।
बोलने से पहले शब्दों का चुनाव करें,उनकी वाक्य में स्थिति निशिचित करें ,माहौल का ध्यान रखें किसी खुशी के अवसर पर गये हैं तो वहा6गमी के े प्रसंग न सुनायें ,किसी बीमार को देखने गए हैं तो स्वस्थ होने की बातें करें न कि उन् प्रसंगों को छेडे जिनमें उस तरह के मरीज चल बसे हों। जीवम मृत्यु तो निशिचित है पर आप्की बातें बीमार और उनकेघर वालों पर बहुत प्रभाव डालती हैं।शादी सम्बन्ध के मामलों में बातें करते समय तो और भी सतर्क रहना चाहिए। सब कुछ सच बता देने पर कम से कम सम्बनधों में कटुता नहीं आती। पहले सब्ज्बाग दिखाकर सम्बन्ध तो तय किए जा सकते हैं पर उनका अंत कभी सुखद नहीं हुआ करता। भले ही यह सुझाव आपको व्यावहारिक न लगे पर सोलह आने सच तो यही है कि बातोमें स्पष्टता आपकी स्थिति को मजबूत बनाय्रए रखती है।
बहुत अधिक बोलने वाले अक्सर मात खा ही जाते है । बचपन में जब कहीं पत्र भेजना होता था तोमां कहती थी बेटा पहले रफ कागज पर ल्ख लो कहीं सक्शात्कार देने जाना होता तो उसका अभ्यास पहले घर पर करने की सलाह दी जाती थी ।आज मुझे उन सब बातो का औचित्य समझ आता है।बातें तो सभी करते हैं पर सोच समझ कर बोलंने वालों की तो बात ही कुछ और होती हैं।

Thursday, October 21, 2010

हम स्वयं में खुश क्यों नहीं रह पाते ?

हमारा अपना वजूद इतना छोटा हो गया है कि हमने सारी खुशियों का आधार दूसरो को मान लिया है |कल हम इसलिए दुखी थे कि सामने वाले ने हमें तरजीह नहीं दी और आज इसलिए दुखी है कि मिस्टर क हमसे खुश नहीं है ,आने वाले दिनों में हम इसलिए परेशान रहेंगे कि हमें हमारा मनाचाहा नहीं मिला |क्यों भाई ,क्या हम स्वयं में खुश रहने की आदत नहीं डाल सकते | हमेशा अपने दुःख के लिए सामने वाले को दोषी ठहराना जरूरी है क्या?हम स्वयं में झाकने की कोशिश क्यों नहीं करते ?क्या हमारे साथ जो भी घटा ,उसके लिए हमेशा तीसरा व्यक्ति ही जिम्मेदार होता है / हम उसी काम को ही तो करते है जिसमे सुख मिलता है |यदि हम दबाव में काम कर रहे है तो हमें सोचना होगा आखिर हम उस दबाव में क्यो है ?कही ऐसा तो नहीं हम स्वयं भी उस कार्य में रुचि रखते है और ठीकरा दूसरों के सर फोड देते है | मेरी दोस्त ने मुझसे कहा - हा मुझे भी पता होता है कि यह काम गलत है पर दूसरों के संतोष के लिए मै ऐसा कर देती हूँ |बाद मे मेरी आत्मा मुझे बहुत कचोटती है |अब या तो उन्हें अपनी आत्मा की आवाज् सुननी चाहिए अथवा जो किया उसमे खुश रहना चाहिए था | मैंने उनसे प्रश्न किया जब आपको पता है कि यह कार्य अनुचित है तो आपने आखिर उसे किया ही क्यों ?बड़ा रटा हुआ सा जबाव मिला -यदि मै ऐसा नहीं करती तो मुझसे मेरे अपने नाराज हो जाते |इसका अर्थ तो यह हुआ कि कही न कही आपके मन में भी उस गलत के प्रति मोह रहा होगा | कहने के लिए कह देना और फिर अंतत: वही करना तो ऐसे विरोध का आखिर अर्थ ही क्या हुआ |प्रत्येक व्यक्ति कम से कम अपने विषय में तो जानता ही है अपनी शक्तियों को भी पहचानता है फिर अपनी सीमाओं में खुश रहना क्यों नहीं सीख लेता | उतने ही पैर क्यों नहीं पसारता जितनी उसकी चादर है| दर असल हम अभी तक अपने से ही अनजान है |हम अपनी शक्तियों को परखे विना ही दूसरों के बल पर अपने काम का निर्धारण करते है | हमारी अपनी प्रकृति क्या है , हम् कितना सह सकते है ,हमारी खुशियों का आधार क्या है ?यह सब सोच कर ही जिन्दगी में निर्णय करे|
अपने चारों ओर अपना दायरा बनाए ,उनमें अपनी खुशिया खोजे |अपनी रूचिया जाने |अपने शौको को विकसित करे | खुश रहने के तो अनेको तरीके है ,बच्चे की मुस्कराहट मे खुशिया ढूढे ,किसी जरूरत मंद की सहायता करे और देखे आप कितने खुश हो जाते है ?खुश रहने की की तो कोई सीमा नहीं , अच्छी पुस्तक पढ़े और खुश हो जाए ,आसमान मे उड़ते परिंदों को निहारे और खुश हो ,रचनात्मकता आपको सदैव खुश रखेगी , अच्छा सोचे ,सकारात्मक विचार रखे ,मन को आनंद की अवस्था मे बनाए रखे |भय को अपने ऊपर हावी ना होने दे ,आपकी खुशी आपके हाथो मे है |उसे ढूढने की कोशिश तो कीजिए|

Tuesday, October 5, 2010

मैं भी पढ़ने जाऊंगी |

माँ मेरा भी नाम लिखा दो
मैं भी पढने जाऊँगी
अ आ इ ई उ ऊ सीखूं
ज्ञानवान बन जाऊंगी |

गिनती और पहाड़े रटकर
घर का बजट बनाऊँगी
दीदीजी का कहना मानूं
घर को स्वर्ग बनाऊँगी|

तुम भैया को पढने भेजो
मैं तेरा हाथ बटाऊँगी
घर का सारा काम खत्म कर
फिर मै स्कूल जाऊंगी|

तुम जो कहती मै सब मानू
पर तुम भी तो जानो माँ
माँ तू भी तो एक बेटी है
उस का दिल पहचानो माँ| |

नानी मेरी तुझे पढाती
तो क्या तू पढती ना माँ
अपना साहस आत्मबल तो
पढने से ही आता माँ |

बच्ची की सुन भोली बातें
गले लगाया माता ने
बस्ता लाई कापी लाई
नाम लिखाया माता ने |

Monday, October 4, 2010

करवट

मौसम बदल रहा है
नीयत बदल रही है
किस्मत हमारी देखो
मुँह ढकके सो रही है |

हमने कुरान बांची
गीता भी सुन चुके हैं
आरती परमपिता की
रोज कर रहे हैं|

न जाने क्योंकर रूठी
किस्मत हमारी हमसे
सुबह भी हो चुकी है
करवट न बदली उसने|

कोशिश भी कर चुके हैं
हम धैर्य रख चुके हैं
कभी हम बरस चुके हैं
अब रीते हो चुके हैं|

आख़िरी है कोशिश
और दांव आख़िरी है
कर्मों के हम पुजारी
किस्मत भुला चुके हैं|

ताकत न हमने परखी
अपने ही बाजुओं की
अब समझ चुके हैं
कटवट बदल चुके हैं|

Tuesday, September 14, 2010

ममता और आदर्श

सच ही कुछ भी भूला नहीं जाता
भले ही हम भूलने के नाम पर
तस्वीरों को बक्से में
कैद ही क्यों ना कर दें|
हम बहुत सचेतन होते हुए
स्वयं को अनेक व्यस्तताओं में
व्यस्त क्यों ना कर लें |
और अपने ऊपर लाख
लबादें क्यों ना ओढ लें |
ये यादें किसी की मुहताज नहीं होती
वे तो बस चुपके -चुपके आपके
जेहन में हमेशा बनी रहती है|
तभी तो बंटू के सर की मालिश
करते चिंटू का चेहरा
बंटू के चेहरे पर चस्पा हो जाता है |
और बातें करते-करते कितने
नए पुराने चेहरे जेहन में कौंध
जाते हैं|सब के सब
अपनी पूरी शिद्दत के साथ |
किस-किस को धकेलू
सब अपने ही तो है |
बस आज हम चलन से बाहर है
क्योंकि खोटे सिक्के है |
बिना कुछ बोले भी
आजकल कितना बोलजाता है मन |
ममता कोइतना अधिक मेग्नीफाई
कर दिया गया है कि
अब व्यक्ति और उसकी सत्ता
उसके आदर्श ,न्यायप्रियता
सब तराजू के पलड़े में
हलके पड़ते जा रहे हैं|
तब सोचती है एक माँ
क्या संतति मोह व्यक्ति
को दुर्योधन ही बना छोडता है
अंधी ममता केवल अपना
स्वार्थ हीदेखती है |
सच्चा ममत्व तो विश्व की
संततियो का हितैषी हुआ करता है|
और फिर पन्ना धाय यूं ही
तो इतिहास नहीं बनी होगी |
सच ये ममताऔर आदर्शों
का द्वंद्व सदैव चलता रहेगा
कभी अंधी ममता विजयी होगी
तो कभी आदर्शों की व्यापकता में
ममता सुबक-सुबक रोयेगी तो जरूर|
पर अंतत:मानवता ही
ममता पर भारी होगी |

Tuesday, August 31, 2010

माँ ,तुझे सलाम |

आज माँ को गुजरे दो वर्ष बीत गए|माँ |कहाँरहती हो आजकल ?क्या अपने बच्चे याद नहीं आते ?हम बच्चे तो हर क्षण तुम्हारे भाव में ही जीते है है |छुटकी कहती है _माँ तो हमेशा मेरे दिल में है , जब भी कभी परेशानी में होती हूँ माँ तुरंत ढाढस बंधाने आ जाती है |वाकई माँ ,तुम हमेशा उपस्थित रहती हो बस दिखाई नहीं देती |कितनी तो बाते हैजो तुम्हें बताना चाहते है ,तुमसे राय लेना चाहते है |माँ तुम तो बड़ी दूरदर्शी निकली| सच ही यदि शिक्षा का हथियार हाथ में नहीं देती तो कितने असहाय हो जाते है हम |किस तरह संस्कारित कर पाई हमें/ हम तो बहुत रूठे,मटके होंगे पर तुम्हारे दृढ निश्चय के चलते तुम्हारी संताने इस सांचे में ढल सकी |कैसे आसानी से सब कर लेती थी |हम तो अपने बच्चों के आगे कैसे असहाय हो जाते हैं|भोले भंडारी पिता के साथ कैसे घर गृहस्थी को निभा लेगई |जब आप कहती थी तब हमेंअहसास भी नहीं था कि जिंदगी इतने रंग दिखाती है |आपके द्वारा कथा-कहानियों के रूप में बताए गए तथ्य कब जीने का आधार बन गए जान ही न पाए |पर माँ एक बात जो जरुर कहना चाहूंगी ये सत्य का मार्ग है बड़ा कटीला|बेईमानी और दुष्टता का परचम लहरा रहा है और सत्य एक कोने में दुबका ढेर सारे कष्टों के साथ सिसक रहा है| पर मन है कि सत्य का दामन नहीं छोडना चाहता |माँ इस संसार से विदा होते वक्त तुमने आशीर्वाद दिया था -बिटिया सदैव फलो-फूलो |मै तो बस इस आशीष के सहारे हूँ |
और माँ एक बात और कहानी थी तुम्हारी बिटिया की बगिया खूब फल-फूल रही है |आँगन में नन्हे-मुन्नों की किलकारी गूँज रही है |बस सारा दिन ये शिशु मुझे जीने की ढेरो वजह दे जाते है|सब ठीक चल रहा है|और
क्या लिखू ,तुम्हारी पारखी नजरे तो सब परख लेती है |
माँ की दूसरी पुण्यतिथि पर
तेरी सभी संताने

Wednesday, August 25, 2010

अब कोई चिठठी क्यों ं नहीं लिखता?

इस एस.एम.एस. ,मोबाइल,फेसबुक और न जाने क्या _ क्या के युग में चिठ्ठी पत्री की बात करना पिछडापन कहलाता होगा ै।पर मैं क्या करूं मुझे जो आनन्द पत्र पढने और लिखने में^ आता है उसकी बात ही निराली है।आज मैंने अपने पत्रों की फायल निकाली और मां का पत्र बार-बार पढा। मेरी मां जो बहुत कम बोलती थी पर पत्र में मुखरित होती थी ।
मैंअपनी नौकरी पर पहली बार घर से बाहर हैदराबाद निकली थी और घर को बहुत याद करती थी ।मां -पिता महीने में एक पत्र जरुर लिखते थे और वह पत्र मुझे दुनिया दारी सिखाते थे ।उन पत्रों मे6 घर की हर-छोटी -बडी सूचना होती थी। वे पत्र मुझे जगत से जोडे रहते थे । केवल हम भाई बहिनों के बारे में ही नहीं ,बल्कि घर के पालतू जानवर ,सेवकों और यहां तक कि अडोस-पडोस की सभी बातें विस्तार सेहोती थी । सम्बोधन ही इतना मधुर हुआ करता था किलगता था माँ^ अपने हाथो^से प्यार से खाना खिला रही हो|पिताजी का एक वाक्य तो आज भी नौकरी में समय का पाबन्द बनाए हुए है| बार-बार लिखते थे _बेटा काम पर जाने में कभी देर मत करो|यदि दस बजे पहुचना हो तो कोशिश करो कि ९ -५५ पर पहुच जाओ|
छोटी कुक्कू अपने पत्रों में ढेरो सबाल लिख भेजती थी और घर में यदि कभी कुछ गडबड घट रहा होता तो उसकी सूचना सबसे पहले गुप्तचर के रूप में मुझे दे देती थी| भैया हमेशा ढाढस बंधाए रहते और दीदी हर पत्र में दुष्ट लोगो से बचने की सलाह देती रहती थी |
विवाह के दो साल बाद ही मुझे नौकरी पर जाना पड़ा था | पति ने जब पहला पत्र भेजा तो मन बहुत उमंगित था |पत्र देखते ही और सुन्दर हरफो में पते के स्थान पर अपना नाम लिखा देखा तो न जाने कितनी मधुर यादे साथ चली आई|सभीस्टाफ सदस्यों के बीच बैठी थी इसलिए पत्र खोलने का साहस नहीं हुआ |जैसे ही शाम को घर पहुची ,दरवाजा खोलते ही पहला काम किया पत्र को पढना| पत्र पढती जाती थी और अपने घर को जीती जाती थी |पति के पहले पत्र के नाम पर जो कल्पनाएँ पाल रखी थी सब धराशाई हो गई| पत्र की शुरुआत प्रिय से थी |बहुत ही सधी भाषा में कुछ जरूरी सूचनाये थी |माँ-बाबूजी और बिट्टू की परेशानियों^ का जिक्र था और अंत में
तुम्हारा प्रिय लिखकर पत्र खत्म हो गया था|सच मानिए वह छोटा सा सूचनाओ से भरा पत्र मुझे उर्जावान बना गया था | न जाने दिन में^ कितनी बार उन पंक्तियोंको पढती और धीरे-धीरे पूरा पत्र ही कंठस्थ हो गया था|
मेरी सखी पत्र के रूप में^साहित्य ही लिख दिया करती|आज भी मेरे मित्रों^ के यदा-कडा पत्र आजाते है^ पर उन्हें^ पत्र कहना पत्र विधा का अपमान करना है |अब पत्र मनोयोग से नही लिखे जाते वरन दो लायनेघसीट दी जाती है |मै ठीक हूँ आशा है तुम स्वस्थ होगी | बस पत्र समाप्त |अरे भाई नेहरूजी ने तो पत्र के माध्यम से ही अपनी बेटी को पूरे भारत के दर्शन करा दिए थे |पत्र लेखन तो एक कला है |आपकी लिखावट आपके व्यक्तित्व का दर्पण है\आपकी लेखन शैली ,आपके जीवन दर्शन को बताती है| आपकी शब्द संपदा विस्तृत होती है|पत्र चाहे औपचारिक हो ,अनौपचारिक अथवा व्यावसायिक हो ,अपनी बात कहने का माध्यम तो है|फिर इन पत्रो६ से परहेज कैसा ?|ठीक है आपके पास सूचना संसाधन के ढेरो विकल्प मौजूद है आप फोन,मेल फेक्स कर सकते है पर पत्र लिखने के अपने लाभ है|आज भी अपने सगे संबंधियो को चिठ्ठी-पत्री अवश्य लिखे |अपने बच्चों उनके जन्म दिन पर एक अच्छा पत्र लिखकर अवश्य दे^| पत्र संबंध सुधारने का अच्छा जरिया है|आपका पत्र एक विशिष्ट पत्र है जो आपके भावों-विचारों को खोलता है |अब आप इसका फ़ोर्मेट भी इंटरनेट से डाउनलोड करते है तो इसमे आपका अपना क्या है?अपने प्रियजनों के जन्मदिन ,विवाह,त्योहारों के अवसर पर शुभकामनाये भी ग्रीटिंग कार्ड भेजकर इतिश्री माँ ली जाती है| क्या हम एन अवसरों पर अपने भावो को व्यक्त करने के लिए एक सुन्दर पत्र नहीं लिख सकते ?अब कबूतर की आवशयकता भी नहीं महसूस की जाती क्योकि किसी को अपने पहले प्यार की पहली चिठ्ठी जो नहीं लिखने होती|अब खातों में फूल नहीं भेजे जाते | अब तो हम इतने व्यस्त हो गए है कि पत्र लिखने और पत्र पढाने के लिए हमारे पास समय ही नहीं है,फिर कितने कागज़ की बचत भी हो रही है ना |

Tuesday, August 24, 2010

राखी

भाई की कलाई पर
सजती ये राखी
भाई को कितने -कितने
दायित्वों की याद
शिद्दत से दिलाती राखी
मसलन भूल न जाना
मैं हू तेरी प्यारी बहना
बचपन की हंसती -खेलती यादें
मां के अंगना की शरारतें
पिताजी का दुलार
और दीदी की प्यार पगी डांट
याद दिलाती है राखी ।
राखी केवल राखी ही नहीं
प्रतिनिधित्व करती है
उस सम्बन्ध का
जिसमें प्यार और कर्तव्य
दूध में पानी कीमाफिक
मिला होता है।
भाई को देखते ही
मांऔर पिता भाई केचेहरे
पर चस्पा हो गये ।
भाई की आंखों में उमडा
प्यार का समन्दर
और मन गुनगुनाने लगा
रहे भैया बहना का प्यार











Saturday, August 14, 2010

ये आजादी क्या होती है दीदी

आज एक बच्ची के सवाल ने
कर दिया मुझे अनुत्तरित ।
जब सभी बच्चो ने
आजादी के तराने गाये
और कल के कार्यक्रम की
तैयारी मे वे ेउल्लसित
नज़र आये
े तब
कक्षा के बाहर झांकती
दो आंखो ने
बडी मासूमियत से
मुझ पर प्रश्न दागा ।
ए,दीदी मुझे भी बताओ ना
ये आजादी क्या होती है
भारत माता कैसी होती है
क्या वह भी मेरी मा की माफिक
दिन भर सिर पर
बोझा ढोती है ।
और क्या उसके बच्चे भी
मेरे जैसे फटेहाल घूमते है
क्या उसका नन्हा बेटा भी
भूख से े चीख -चीख कर
रोता है और बापू के
हाथो खूब पिटता है ।
क्या कल मेरी मा के
हाथो मे भी झंडा होगा
क्या कल मेरा शराबी बाप
हम बच्चो को नही पीटेगा
यदि ऐसा होगा तो यह आजादी
बहुत अच्छी मिठाई है
कल सेमै भी पढूगी
भारत माता की जय
और गन्धीजी अमर रहे
के नारो से प्रयास गुजादूंगी ।
अब बोलो न दीदी ये आजादी
रोज रोज क्यो नही आती ।

Sunday, August 8, 2010

सच की ताकत

हाँ सही पढ़ा आपने
सच बहुत ताकतवर
होता है |
पर इस सच को कह पाना
इस सच को सह पाना
इस सच को जी पाना
बेहद त्रासद अनुभव
हुआ करता है |
बेपेंदे के लोटे से स्वार्थी जन
जहां मतलब निकलता हो
जहां उनकी दाल् गलती हो
हवा के रुख से
बदलते हैं अपनी निष्ठाएं |
सच नितांत अकेला और
निरावरण हुआ करता है
सच आपके साहस की
हर पल परीक्षा लेता है|
कई बार तो सारे के सारे झूठ
अपने पूरे प्रलोभनों के साथ
आपको खींचने की पूरी
कोशिश शिद्दत से करते हैं|
इनसे बचने की झमेले में
हो जाते हैं लहूलुहान आप
ये सारे के सारे झूठे वजूद
आपको बुरी तरह तोड़ते है |
और फिर भी आप
नहीं छोड़ पाते सच का साथ
तब होता है सच विजयी
अपनी पूरी ताकत के साथ |
और आप अनायास कह उठट्रे हैं
सच में ताकत
सच की ताकत
हमें जीना सिखाती है
बार-बार हरबार |

Monday, August 2, 2010

ये कैसा प्रेम

एक व्यक्ति के चारों और का माहौल
बस प्यार और प्यार से आच्छादित
फ़िल्में देखता है तो बस प्यार से भरी
साहित्य पढ़ता है तो वही प्रेम की बातें
प्रेम कथाओं का इतना बड़ा समुन्दर
अखबार इन्हीं खबरों से लबरेज हैं
और हर पत्रिका का कवर पेज
किसी न किसी प्रेम में डूबी
नायिका के चित्र से सज्जित |

ऐसे माहौल में जिंदगी के बीस बरस बिता
जब हो जाता है प्यार
और लगने लगती है दुनिया रंगीन
परदे की बातें बनती है जीवन का सच
और जैसे ही शुरुआत होती है
उन लम्हों की जिन्हें जीवन का
सबसे खूबसूरत लम्हा कहा जाता है |

अचानक बदलने लगती है दुनिया
पता नहीं कहाँ गुम हो जाताहै
प्रेम का साहित्य,चुक जाते है विद्यापति
खो जाती हैं प्रेम कथाएं
और चारों और से होने लगता है
आक्रामक व्यंग्यों का हमला
अब बताया जाने लगता है उसे वासना
और न जाने क्या-क्या |

ये सब इतना जल्दी घटता हैकि
प्यार करने वाले समझ ही नहीं पाते
कि जो कल मूवी देखी थी
देवदास,हम आपके है कौन
और बहुत सी प्रेम में ें डूबी तहरीरें
क्या सब बकबास थी
तो क्यों रचा जा रहा था ऐसे बकबास
प्यार का माहौल
क्यों बनाई जा रही थी ऐसी
झूठी पिक्चरें और क्यों रच रहे थे
ऐसा साहित्य |

जबाब दिया जा रहा था
अरे वह तो बस देखने और
पढने के लिए था
ये सब सच थोड़े ही ना होता है
बस देखो पढ़ो और भूल जाओ |
अब तुम ही बताओ मेरे मित्र
कैसा है ये प्रेम |

Tuesday, July 27, 2010

सावन तो आयो है

फिर आया मनभावन सावन
याद आ गया बाबुल का आँगन
पीपल सरिस पे झूला डल गए
माजी की बांछे अब खिल गई |
आयेगी अब बिटिया रानी
घर भर में खुशिया दौडेंगी
साबन की मल्हारे गूंजेगी |
भैया जी मगन हो गए
बहना का अब लाड मिलेगा
बचपन फिर किलकारी लेगा |
सोच सोच कर सब ही खुश थे
पर ये कैसा सावन आया
बुंदिया बरसी मेहदी रच गई
पर प्यारी लाडो न आई |
अब आया था उसका मेल
मैया बापू दुखी हो गए
देख के बिटिया का येखेल |
सावन बावन क्या होता है
झूले तो अब बीत गए है
अब सब ये है बीती बातें |
अब तो मैं हूँ क्लब में जाती
हरे रंग की साडी पहने
हरियाली तीजे मनती है|
झूला ,पटली और मल्हारे
किसको अब अच्छी लगती है |
सावन आये भादों जाए
क्या मतलब अब इन बातों का
हमने तो इतना जाना है
तीन ही ऋतुएं होती है अब
जाड़ा ,गर्मी और बरसात |

Friday, July 23, 2010

प्राथमिक शिक्षा ही पूरी शिक्षा व्यवस्था की नींव है।

बडे दुख का विषय है कि अभिभावक अपने पाल्यों की प्राथमिक शिक्षा के प्रति सतर्क नहीं है।इसे अक्षर ज्ञान के अतिरिक्त और कुछ नहीं माना जाता जबकि सारी इमारत इसी नीव पर आधारित होती है।किस कक्षा को पढाती हो ,क्या कहा पहली दूसरी को तब तो समझो तुम कुछ नही कर रही हो । तुम्हारे तो मजे ही मजे है ।बस अपना टाइम पास किये जाओ । इन टिप्पणियों को सुनते-सुनते तो मुझे भी एकबारगी यही लगने लगा कि बच्चों को अक्षर ज्ञान देना बहुत ही सरल कार्य है ।शायद यही कारण हो इन प्राथमिक शालाओ के अध्यापको को विशेष तरजीह नहीं दी जाती।उसे केवल पट्टी ,स्लेट अथवा कापी पर किटकिन्ना डालने वाला मान लिया गया । बहुत हुआ तो सामूहिक रूप से गिनती या पहाडे बुलबाने के लिये अधिक्रत मान लिया गया।
जब मैं अपने बी.एड. प्रशिक्षणार्थियो के साथ प्राथमिक और माध्यमिक शालाओं मे गई तो कमोवेश मैंने गुरुजी का यही रूप देखा ।कक्षा मे एक बच्चे को खडा कर दिया और वह सभी बच्चों को सामूहिक अभ्यास करवा रहा है और गुरूजी अपने अन्य कार्य में व्यस्त हैं |बहुत हुआ तो एक डंडा उठाकर बच्चों पर फटकार दिया और चुप होने का निर्देश दे दिया |
जिस समय में बच्चे को गुरूजी का स्नेह ओर व्यक्तिगत निर्देशन चाहिए था ,वह कीमती समय केवल चुप बैठने में बीत गया | किसी तरह से पहली दूसरी तीसरी और अन्य कक्षाएं चढता गया पर न तो उसे शुद्ध लिखना आया और न पढना| और हम अध्यापक बस बच्चे में दोष देखते रहे |जब मैंने प्रयास में बच्चों को अक्षर ज्ञान देना प्रारम्भ किया ,तब पाया कि एक व्यक्ति ढेरों भूलें इसलिए करता है क्योंकि वह उसका सही रूप जानता तक नहीं |
मात्राओं का ज्ञान और संयुक्त वर्ण बनाना सिखाते समय यदि सावधानी बरती जाती तो आज ये त्रुटियाँ नहीं होती| जिस समय में मूल्योंका विकास किया जा सकता था ,वह समय बहुत बोझिल पाठ्यक्रम की भेंट चढ गया |हम अपने बच्चों को अंकों की अधिकता से ही नापते रहे और बच्चों के कंधे भारी बस्ते के बोझ तले दब कर झुकते चले गए|मासूम बचपन जो कहानियों का भूखा होता है पता नहीं बड़ी –बड़ी बातों को जानने में चूक गया| वह अपनी कोलोनी और अपने परिवेश से अपरिचित ही रह गया और हम उसे देश और विदेश के पाठ रटाते रहे| वह अपनी मात्रभाषा पर पकड़ नहीं बना पाया और हम उसे आर ए टी रेट और केट ही रटाते रहे |
जो समय उसे छोटे –छोटे गीत सिखाने का था उसमें हमने अश्लील और द्विअर्थी गानों पर ठुमकना सिखा दिया और इतराते रहे कि हमारा बालक आधुनिकता के सारे पैमानों पर खरा उतर रहा है |हमने उसे स्वतन्त्र व्यक्तित्व माना ही कब उसे लेकर हम अपने सपनों को पूरा करते रहे| उसकी क्या योग्यताएं है ,वह किस क्षेत्र में अपनी प्रतिभाओं का प्रदर्शन कर कुशल बन सकता था यह सब तो हमारे लिए बहुत गौण हो गया|हमने अपने स्तर को मेंटेन रखने के लिए सब कुछ तय कर लिया | हमने उस विद्यालय केवातावन को जानने की कोशिश भी नहीं की जहाँ हमारा लाडला दिन का एक महत्वपूर्ण समय बिताने जा रहा था |
क्या अपने पाल्य की शिक्षा –दीक्षा को लेकर हमें सजग नहीं हो जाना चाहिए ?बच्चे के घर लौटनेपर कितनी सारी बातें होती हैं जिन्हें वह अपने माता-पिता को बताना चाहता है ,क्या बच्चों का होमवर्क करवाना देना अथवा उसके लिए भी किसी ट्यूटर की व्यवस्था कर देना काफी है? क्या आपका बच्चा स्कूल से लौटकर यह नहीं चाहता कि आप उसका सर सहलाते हुए उससे बातें करें | यदि वह किसी दिन्स्कूल नहीं जाना चाहता तो उसकी भी कोई निशिचित वजह होती है| हो सकता है वह स्वयं अपने से परेशान हो आप उसकी सभी बातों को सुनने के लिए समय निकालें और उसकी परेशानियों पर ध्यान दें |
ये कुछ छोटी-छोटी बातें हैं जिनके प्रति अभिभावकों को सतर्क होना बहुत जरूरी
है|अपने बच्चों पर केवल पैसा खर्च कर ही हम माता- पिता के दायित्व से मुक्त नहीं हो सकते||

Wednesday, July 14, 2010

मेरी पाठशाला

नन्हे-नन्हे ये शिशु
अपनी तुतलाती भाषा में
जब कहते है
दीदी हम तो खेलेंगे
पढेंगे नहीं |
तब मैं अकसर सोचने पर विवश
हो जाती हूँ
क्या गलत कहते हैं
शुभम,शाहीन और सोनिया |
ये उम्र ही खिलंदड़ी की है
जब हम जबरन उन्हें अ से अनार और
आ से आम रटाते है
और वह बोलने के बजाय अनार और
आम खाने की फरमायश करते है |
ल से लट्टू सिखाने पर
लट्टू चलाने की जिद
तो प से पतंग उसे आकाश
में उडती नजर आती है \
रेट माने चूहा और
केट माने बिल्ली कहते ही
वे नन्हे -मुन्ने चूहें बिल्ली की
अपनी ढेर सारी बातें
मसलन दीदी बिल्ली सारा दूध पी गई
और चूहे ने मेरा कपड़ा
कुतर दिया |
बों बतराना चाहते है|
और कमाल है
इन की बातें कोई
नहीं सुनना चाहता |
सब बस उसे मारपीट कर
उसके छोटे से दिमाग में
सब कुछ भर और ठूस देना चाहते है|
तब समझ आया इन बच्चों की तो
एक बिलकुल निराली दुनिया है
जहा किताबे नहीं
केवल आपका स्नेह और ममत्व चाहिए|
फिर सीख तो वे यूं लेते है
कि बस ज़रा सा सहारा
भर लगा दीजिए |
सच कहूँ तो
मैं इन बाल-गोपालो को
नहीं सिखाती
बल्कि ये ही मिल कर मुझे
रोजाना एक नया सबक
सिखा देते हैं|

Sunday, July 11, 2010

क्या हुआ

क्या हुआ जो हमारे वे हो न सके
हम पर मर न सके हम से जी नसके ।

जब -जब हमने बुलाया वे आ न सके
हाल अपने दिल का सुना ना सके।

हमने सपने बुने और बुनते रहे
उनको अपना जहा हम दिखा ना सके।

हमने आंसू बहाये उन्ही के लिये
वे आंसू की माला बना ना सके।

हमने उनको चुना और वे समझे नही
हम उन्ही के ख्बावो मे डूबे रहे ।

इंतहा हो गई और वे आये नही
हमको पूछा नही और छूआ नही ।

पर हम उनके हुए और होते रहे
साथ उनका कभी भी मिला ही नही ।

अब हम भी चले उनसे सब तो कहा
पर वे समझे नही तो हम क्या करे।

Thursday, July 8, 2010

आंख क्यो भर आई है

कदम -कदम पर अपनो का दंश
व्यक्ति को किस कदर तोड देता है ।
ये अपने कहे जाने वाले
क्यो हर कदम पर केवल
अपना और अपना स्वार्थ ही देखते है।
अब कैसे कहे इन्हे हम अपना
और जब अपने है ही नही तो
क्यो ना अपना जगत अलग बनाये
जहा अकेले है तो क्या
निक्रष्ट स्वार्थ की गन्ध तो नही
जब पूरी वसुधा ही कुटुम्ब है
तो क्या अपने और क्या पराये
इन मानवो से अच्छे तो
वे शुक शावक है
जिन्हे हम पशु -पक्षी की
संज्ञा से नवाजते है।
कदम -कदम पर दुतकारते है ।
और वही देते है हमारा साथ अंत तक
जैसे सत्यवादी युधिष्ठर का
साथ दिया था श्वान ने
अरे मुझे तो ये पषु-पक्षी बहुत ही भाते है
कम सेकम बच्चो का सा
निर्मल हृदय तो रखते है ।

Monday, July 5, 2010

प्राथमिक शिक्षा ही पूरी शिक्षा व्यवस्था की नीव है।

बडे दुख का विषय है कि अभिभावक अपने पाल्यो की प्राथमिक शिक्षा के प्रति सतर्क नही है।इसे अक्षर ज्ञान के अतिरिक्त और कुछ नही माना जाता जबकि सारी इमारत इसी नीव पर आधारित होती है।किस कक्षा को पढाती हो ,क्या कहा पहली दूसरी को तब तो समखो तुम कुछ नही कर रही हो । तुम्हारे तो मजे ही मजे है ।बस अपना टाइम पास कर रही हो। इन तिप्पणियो को सुनते-सुनते तो मुझे भी इकबारगी यही लगने लगा कि बच्चो को अक्षर ज्ञान देना बहुत ही सरल कार्य है ।शायद यही कारण हो इ प्राथमिक शालाओ के अध्यापको को विशेष तरजीह नही दी जाती।उसे केवल पट्टी ,स्लेट अथवा कापी पर किटकिन्ना डालने वाला मान लिया गया । बहुत हुआ तो सामूहिक रूप से गिनती या पहाडे बुलबाने के लिये अधिक़्रत मान लिया गया।
जब मै अपने बी.एड. प्रशिक्षणार्थियो के साथ प्राथमिक और माध्य्मिक शालाओ मे गई तो कमोवेश मैने गुरुजी का यही रूप देखा ।कक्षा मे इक बच्चे को खडा कर दिया और वह सभी बवच्चो को सामूहइक अभ्तयास करवा रहा है और गुर्

Wednesday, June 23, 2010

दीप सब अब बुझ गये है

आंख के आंसू सूख गये है
दीप अब सब बुझ गये है
हो गई है रात काली
चान्द भी अब छिप गया है
पैर मेरे थम गये है
चाल मद्धिम हो गई है

रहा न अब कोई उपाय
हो गये हम है हम निरुपाय

एक तेरा आसरा है
सहारा न दूसरा है
क्या अभी कुछ और् बाकी
जो मुझे ही देखना है
अब ना जो आये प्रभूजी
नाम तेरा बदनाम होगा
कुछ ना बिगडेगा हमारा
जो भी तेरा होगा

हम तो तेरे भक्तहै बस
और कुछ ना जानते है
अब जो होगा वो ही होगा
सोच जो तूने रखा है।

अब क्या करना हमको करना

जो भी करना तू ही करना

बस इसी मे है भलाई
मौन मन अब हो गया है।

Sunday, June 20, 2010

बहुत याद आते है पिताजी

पिता केवल जनक ही नही हुआ करते
हुआ करते है हमारा सम्बल
हमारे सन्स्कार
हमारी यादे
और सबसे अधिक हमारी शक्ति ।
बच्पन अप्ना रूप तभी
ले पाता है जब पिता
नन्ही अगुलियो को थामे
जीवन की पथरीली डगर
पर चलना सिखाता है
डगमगाते े कदमो को
स्थिरता देता है
और नीर-छीर विवेकी
बनाता है।
मा महिमा मंडित होजाती है
और पिता अपने पुरुष्त्व के
खोल मे सिला बधा
न तो बेटी की विदाई पर
खुल कर रो पाता है
और न अपने स्नेह का
इजहार ही कर् पाता है
पर इससे क्या
पिता छोटे
े तो नही हो जाते

बहुत याद आते है पिताजी

Wednesday, June 16, 2010

युग को कलियुग बना रहे

राम का युग त्रेता का युग था
कृष्ण का युग था द्वापर
युग को कलियुग बना रहे हम
गलत सोच अपनाकर।

नई बात नही , हर युग मे
नारी का शोषण होता है
आज भी सीता का देश निकाला
द्रोपदी का चीर हरण होता है।

लेकिन् सीता को सहारा देने
त्रेता मे वाल्मीकि आये थे
और मूकदर्शक बनी सभा से
दुर्योधन ने शाप ही पाये थे ।

अपमान झेलती आज नारी का
दुख कम करने कोई आता है?
तमाशा देखना पसन्द सभी को
मरहम कोई लगाता है?

सम्पत्ति के बटबारे पर
विवाद होता आया है
राम को यदि वनवास मिला तो
पान्ड्वो ने अज्ञातवास पाया है।

हक छिन जाने पर भी राम ने
वनवास सहर्ष स्वीकारा है
भरत ने भी भाई की खातिर
राज गद्दी को नकारा है।

युद्ध मे अपनो के आगे खडे
अर्जुन के हाथ डगमगाये थे
धर्म की रक्षा के लिये ही
धनुष पर वाण चढाये थे।

आज हर विवाद का हल
हिंसा से ही होता है
धर्म का भले ही नाम दे
जन क्रोध के वश मे होता है ।

सूरज वही चन्दा वही
वही आसमा के तारे है
जो कल था वह आज भी है
बस बदले विचार हमारे है।

हम कलियुग मे नही जी रहे
युग को कलियुग बना रहे
यह युग भी त्रेता बन जायेगा
निष्कपट अगर भावना रहे।


प्रिय वरुण के सौजन्य से

Saturday, June 12, 2010

कहते हो कि हम आधुनिक हो गए |

अब हम देहाती गवार नहीं रहे |
बहुत पढ़ लिख गए हैं
पहले तो बक्सों में
दो चार कपडे रखे होते थे
और वही हमारे आलमपनाह हुआ करते थे|
अब तो बड़ी अलमारिया
कपडो से भरी
और लोकर जेबरों से लदे -फदेहै|
हम यह भी नहीं जानते कि
कितने रंग और कितनी वैरायटी
से हमारे बार्दरोब फुल है
पर यह भी उतना ही खरा सच है कि
आज ये सब प्रदर्शन और प्रदर्शन है |
पहनने की इच्छा कब की खत्म हो चुकी है|
आज कोठी में तो आ बसे हैं पर
मोहल्ले के रिश्ते दीमक चाट गई|
घर की बैठक में सोफे और दीवान तो सज गए
पर आने वाले औपचारिक होगये
अब दोस्तों की हंसी और ठहाके नहीं गूंजते |
बेडरूम तो सज गए
पर नींद चोरी हो गई
जहाजनुमा पलंग और गुदगुदे बिस्तरों पर
दंपत्ति करवटें बदलते अपनी ही छाया से
अजनबी हो गए|
घर के आले मेंरखे दर्पण में
मुखडा देखने की फुर्सत तो थी
अब ड्रेसिंग टेबल में अपने चेहेरे
भी बेगाने होगये\
और आप कहते हैं कि
हम आधुनिक हो गए|
बड़ी-बड़ी उपाधियों के पुलंदे तो बंधे
पर बेटा और बेटियाँ ही
पराये हो गए|
बैंकों के खाते तो दुगने तिगुने हुए
पर परिवार तो किरच-किरच बिखर गए|
दुनिया में रिश्ते तो बहुत बने
पर खून के रिश्ते तो
तार-तार हो गए\
और तुम कहते हो कि हम
आधुनिक हो गए|

Wednesday, June 9, 2010

सुख-दुःख

जीवन में जब दुःख आया
घनघोर अन्धेरा घिर आया
लेकिन इस अन्धेरें में भी
बहुत कुछ नजर आया |

नजर आयी अपनी कमजोरी
पक्के रिश्तों की कच्ची डोरी
दुनिया के मेले में
सुन्दर मन और सूरत भोरी |

दुःख कभी बर्बाद न जाए
जीवन में कुछ नया सिखाये
किसी कोने में कहीं छिपे
उन गुणों को सामने लाये|

बाद में सुख जब आता है
ईश्वर में विश्वास बढाता है
सुख और दुःख के आने से
जीवन का मतलब आता है|

प्रिय बेटा वरुण के सौजन्य से

Monday, June 7, 2010

मत भूलो कि तुम लड़की हो |

कितनी बार तो समझाया है
पर हर बार भूल ही जाती हो
कि तुम एक लड़की हो|
किताबों में जो कुछ लिखा है
और जो तुमने पढ़ा है
वह तो किताबों का सच है|
बस याद करने और परीक्षा में
पास होने और उपाधि लेने के लिए |
तुम्हारा एम.ए.,बी.ए. होना
डिग्री लेने के लिए अच्छा है
पर उसे व्यवहार में लाने से
सामाजिक व्यवस्था बिगड़ती है |
पगली लड़की ,इतनी भी नहीं समझती
नौकरी वौकरी तब तक ही ठीक लगती है
जब तक स्वीकृति मिले |
ये तुम्हारा अपना स्वतंत्र निर्णय नहीं
और दो चार किताबें क्या पढ़ ली
फ़िल्में क्या देख ली प्यार करने
चल पड़ी|
अरी बेबकूफ ये सब
े भले घर की लड़कियों को
शोभा नहीं देता |
माँ -बाप की बदनामी होती है|
और तू है कि किताबों का हवाला दिए
जारही है|
कहाँ सर छुपाये तेरा बूढा बाप
और माँ तो मर ही जायेगी |
और कैसे होगी तेरे भाई-बहिनों की शादी
पगली ,पड़-लिख,पर उतना ही
बोल ,जिससे घर बना रहे |
ये रीजनिग ,मनोविज्ञान सब
वाहियात बातें है
क्या कहा तू अब बड़ी अफसर बन गई है |
पर बहना , घर में तेरा दर्जा अभी वही है
पहली क्लास बाला ,अभी तो तू ककहरा सीख |
और ये लड़का ,जो आज तुझे
हवा में झूला रहा है
ये तो उसके मुंगेरीलाल के सपने हैं
जो सुनने में हसीन जरूर लगते हों
पर जल्दी ही बिखर जाते हैं|
फिर एक बार सुन
और हमेशा याद रख कि
तू एक लड़की भर है|

Saturday, June 5, 2010

बिजूके

पिताजी
यानी स्नेहिल सा स्पर्श
आवश्यकताओं को कहने से
पहले ही समझने वाले
कभी अंगुली थाम
तो कभी कंधे पर
कभी पीठ पर बिठा
तैराते यमुना में
कभीमेले में घुमाते
तो कभी बस में बिठा
अपने बचपन को शेयर करते |
ऐसे मेरे पिता
ना जाने कब और क्यों
एक दिन अचानक
बिजूके ं हो गए|
मैं समझ ना पाई |
कभी खेत में लगे
मुखौटेको देखकर
पूछा था पापा-पापा ये क्या है
लाली ,खेत की रखवाली
करते है ये बिजूके
और हतप्रभ होती
मैं जान ना पाई थी तब
ये अशक्त बिजूके क्या रक्षा
कर पायेंगे खेतों की
क्या डरेंगे पक्षी
इस कपडे पहनेबांस से
पर जब पिताजी का स्वर्गवास हुआ
तब जाना बैठक में चुपचाप बैठे पिता
बीमार पिता ,अशक्त पिता
घर की रक्षा के लिए
बिजूके बने रहते |
और हम वयस्क होते भी
सब कुछ उन पर छोड़
बहुत ही निश्चिं त रहते थे|
न जाने क्यो
ं तब से घर की बैठकमें
बैठे बुजुरगों के चेहेरों पर
मुझे बिजूके चिपके नजर आते हैं|

कृष्ण कृपा

व्यथित न हो जीवन में
कृष्ण मुझसे कहता था
लेकिन यह मूरख मन
चिंता में डूबा रहता था |

घोर निराशा की रात काली
जब जीवन से छूट गई
लीलाधर की लीला
तब मुझे समझ आई |

यशोदा ,सुदामा या ब्रजवासी
सबको बहुत रुलाया है
तो इसमें नई बात क्या
तेरी आँख में आंसू आया है|

चित से नटखट कान्हा का
काम परेशान करना है|
लाख विप्पत्ति आये जीवन में
तुमको हंसते रहना है|

नटखट काम भले हो कितने
श्याम का श्वेत बड़ा ही दिल है
बाधा कितनी आये राह में
मिलनी पक्की मंजिल है|

तू भले ही भूल जाएगा
या प्रश्न चिन्ह लगायेगा
लेकिन वो कुशल सारथी
रास्ता पार् कराएगा |

व्यथित न हो जीवन में
जब कृष्ण मुझसे कहेगा
तब ये मूरख मन बस
कृष्ण कृपा में डूबा रहेगा|

प्रिय बेटे ड़ा. वरूण भारद्वाज के सौजन्य से

Thursday, June 3, 2010

जो अपने देते हैं,उसे क्या दंश कहते हैं|

एक सवाल अक्सर आजकल
मन में उमडता-घुमड़ता है
जो अपने होते हैं
वो क्या दंश देते हैं?

अपना अंश जब बड़ा हो

अपने फैसले लेता है
और हम निजी कारण वश
उससे इत्तफाक नहीं रखते |

तब हम अथवा वे
गलत ठहराये जाते हैं|
खोद-खोद कर गड़े मुर्दे
उखाड़े जाते हैं|

नई दलीलेंखोजी जाती है
तर्कों के अम्बार रचे जाते हैं
और ऐसा शो किया जाता है
मानो हम दूध के धुले हैं|

इस नाटक का पटाक्षेप

भी होता होगा देर -सबेर
पर तब तक इतना कुछ
घट चुका होता है कि
कहने सुनने के लिए
जो शेष रह जाता है
वह बस मानसिक यंत्रणा
और थुक्का फजीहत के
सिवा कुछ और नहीं होता|

सच है रिश्तों की दुनिया बड़ी
मनमोहक और प्यारी होती है
पर जब टूटती है तो सब
कुछ ले डूबती है |

दर असल अपनों के द्वारा
खाई चोट दिल पर सीधा
वार करती है
और चोटिल जन की गति
सांप-छछूदर की माफिक होती है |

इसलिए तो कहती हूँ कि
अपने कलेजे के टुकड़े के
द्वारा दिए गए घाब
घाब और दंश नहीं
हुआ करते
वे तो प्यार की अधिकता के
चिन्ह और अपने व्यक्तित्व के
दर्पण हुआ करते हैं|

Wednesday, June 2, 2010

कान्हा अब तो आना होगा

कान्हा अब तो आना होगा
अपना वचन निभाना होगा
कल-कल करते बरसों बीते
नयना भी अब हो गए रीते |

विदुर घर छिलके खाते हो
द्रुपद का चीर बढाते हो
बिठा कर गीध को निज
गोद में आंसू बहाते हो |

जब हम बुलाते हैं
कान्हा क्यो न आते हो
पल-पल हमें तरसा
न जाने क्या तुम पाते हो|

मेरे धीरज की परीक्षा है
यह तो मुझको मालूम है
पर कान्हा अब क्यों

मुझे कमजोर करते हो|

जब दी बिपत तुमने
तुम्ही को दूर करनी है
हमारा अब क्या बिगडेगा
भक्त तेरे कहाते हैं|

कान्हा तुमको आना होगा
अपना वचन निभाना होगा |

Sunday, May 23, 2010

अकेली नहीं हो खोखी

बेनीमाधव मेरे पडौसी हैं |बचपन में उनकी अंगुली पकड़कर कर मैंने चलना सीखा है|जामुन और आम के पेड़ों पर पत्थर फेंकते कई बार उनके हाथों पिटी भी हूँ|खोखी इन्ही चाचा की एकमात्र पुत्री है|कभी कपड़ा काड़ने तो कभी चित्रों में रंग भरने में खोखी दीदी मेरी मददगार रही है|मोहल्ले में बेंड-बाजे बजते तो लीडर दीदी हमें बरात दिखा लाती |हर दूल्हे में कुछ न् कुछ कमी निकालते हम बच्चे कभी दीदी की बातों पर खिलखिलाए तो कभी ठुनके पर दीदी हमें हर बार मनाती रही |हमउम्र लड़कियों के शादी -विवाह मेंदीदी कुछ गुमसुम रहने लगी |एडी तक लहराते बालों को झटक कर जूडा बनाती हुई एक कमरे में दुबकी पड़ी रहती |धीरे -धीरे  वे बच्चे जो दीदी की गोद में खेले थे, अपना संसार बसा घर-गृहस्थी में रम गए|दीदी को देखने की फुर्सत अब किसके पास है?

   खोखी दीदी के घर भी दो बहुए आई है   पर लाडली पुत्री के योग्य वर आज तक नहीं मिल पाया और अब उसे भाभियों ने मनहूस करार दे दिया है जिनके श्रृंगार करने में,दासत्व निभाने में दीदी ने अपने जीवन की सार्थकता समझी थी |कभी उनका लंबा कद,गौर वर्ण और स्मार्टनेस लड्कियोंके लिए ईर्ष्या का विषय हुआ करती  थी ,उनकी शालीनता की दाद दी जाती थी ,आज वही कड़ उनका शत्रु बन बैठा है,कंधे झुकाकर जैसे वह अपने को बौना बनाने पर तुली है,गौर वर्ण समय की मार झेलते कुंद हो गया है |आज वही दीदी जब मुझे अपनी माँ के साथ  बाजार में मिल गई ,मैं दौडकर उनके पास पहुँची,हाथ छूकर बोली ,खोखी दीदी हो ना,बनी चाचा कैसे हैं?माँ मुझे एकदम देखती रही फिर जल्दी-जल्दी बेटी से बोली ,"चलिबे खोखी,रास्ते में बातें ना करिबो|"

 उनकी हिन्दी बंगला सुनकर मैं ही बोल उठी थी ,चाची,मैं अपर्णा हूँ ,कार्तिकेय की बेटी |अच्छा-अच्छा तुमी अर्पणा ,बम्बई से कब लौटी,दुल्हा कहाँ है ?बनी चाचा की पत्नी से मैं हमेशा डरती थी |रौबीला व्यक्तित्व था उनका|किसी जमाने में हम उन्हें मोहल्ले की डिक्टेटर  कहते थे |अब तो बहुत दीन-हींन लग रही थी |ढलती उम की बेटी का सोच उन्हें अंदर ही अंदर तोड़ रहा था |मैं चाची  को विस्तार से बताने लगी ,चाची अकेली आई हूँ |दीदी से मिलना चाहती हूँ|इन्हें अपने घर ले जाऊं ?चाची की शंका अभी मिटी नहीं थी -काहे जाबे खोखी, तुमी कल आइबो |"जाते-जाते दीदी की आँखों में तैरता गीलापन मुझे भिगो गया |

   दीदी का हाथ दबा मैं आगे तो चल दी ,पर पलट-पलट कर अपनी उस खोखी दी को बार-बार देखती रही जोई अपने कंधे जुका कर अपने लंबे कद को छोटा बनाए हुई थी ,कजरारे नेत्र नीचे झुके हुए थे और अविवाहिता दी को बाहर जाने के लिए बूढ़ी माँ को गार्ड बनाकर ले जाना होता|मुझे अपना रक्त जमता नजर आरहा था | खोखी दी का धुंधला चित्र मेरे ऊपर हावी होता जा रहा था |क्या अविवाहिताओं की यही परिणिति है ? क्या उनकी पढाई-लिखाई ,सीना-पिरोना, रूप-कद-काठी केवल एक नए घर की तलाश के लिए होता है ? यौवन की अठखेलियाँ पति कहे जाने वाले पुरुष की धरोहर होती हैं और अगर वह साथी न् मिले तो अपनी स्मार्टनेस ,अपने लंबे कड़ और रूप-रंगत को तिजोरी को तिजोरी में बंद  कर एक लंबी उम्र को यूंही काटना होता है|सूनी मांग लिए खोखी जैसी बहिने अपने परिवार पर बोझ बन जाती है|एक व्यक्तित्व जो अपना निर्णय लेकर की जीवनों को मुक्ति दिला सकता था, हजारों असहायों का सहाय्य  बन सकता था ,आज सड-गल रहा है|सामाजिकता के बंधन ने उसका गला घोंट दिया है|कुछ न कहकर भी दीदी मुझसे बहुत कुछ कह गई है-अपर्णा , तुम भी तो नियति की शिकार हो,तुम्हारा भाग्य अच्छा था जो एक अच्छे परिवार की स्वामिनी बन बैठी ,मांग में दमकता सिन्दूर तुम्हारा रक्चक है और पांव की अँगुलियों के बिछुए तुम्हारा पथ खोल देते हैं | पर हम जैसी कहाँ जाते?पति न् मिलना हमारा अपराध घोषित किया गया है | मन-बहलाब के लिए किसीसे बात कर लें तो तो उंच-नीच का डर रहता है|कुछ करें तो सुनने को मिलता है-सारा दिन खाली ही तो रहती हो,चार कपडे सिल दिए तो कौन पहाड़ टूट पड़ा ?मांबाप का प्यार अब सुबह-शाम रोटी देने की मजबूरी बन गया है | वह भोजन मुझसे कहाँ सटका जाता है अपर्णा ,हाथ का निबाला पानी पीकर निगल लेती हूँ,थाली सरका नहीं सकती ,अभी घर की बहुए आयेंगी और कहेंगी-हमारा पति दिन-रात हाड तौडकर कमाए और तुम नाली में बहाओ|"

    शाम का  धुन्द्ल्का का मेरे जीवन पर छा गया है | वह कौन है जो इस जाल को तोडेगा?दी ,तुम्हारी बातें सच है ,पर तुम अकेली कहाँ हो ?तुम जैसी न जाने कितनी खोखिया है जो अपने जीवन को इसी रूप में बिताने को विवश हैं|पर तुम सबकी परिणिति यह नहीं है|अपने को यहाँ तक लाने की जिम्मेवार भी तो तुम ही हो |कभी परिवार की रक्षा तो कभी समाज का डर ही तुम्हारा घेरा रहा है ,उन सबसे हटकर अपने लिए तुमने सोचा ही कब है? क्याकभी  खुद पर लादा बोझ झटक पाई हो ,कभी खड़े होकर कहा है,-माँ ,मैं अकेली चल सकती हूँ |तुम्हारा साया मेरे ऊपर रहे पर मुझे इतना लंगड़ा मत बनाओ कि बिना बैशाखियों के दो कदम भी न चल पाऊ | कभी अपने आत्मविश्वास को टटोल कर देखा है,तुम्हारे उठ खड़े होने भर होने की देर हैं ,इक जमात तुम्हारे इशारे पर अपने सर कटा देगी,बचपन जैसी नेतागीरी करके देखो  तो सही | तुम अकेली कहाँ हो? आदेश देकर देखो तो सही, सैकड़ों खोखियाँ तुम्हारे निर्णय पर हाथ उठा देंगी |पूरी एक टीम नेतृत्व के इन्तजार के खड़ी है |तुम्हारी नन्ही अपर्णा भी अब बड़ी हो गई है अपनी दीदी का साथ देने के लिए |हाँ खोखी दीदी ,तुम अकेली कहाँ हो 

Tuesday, May 18, 2010

मेरा बचपन लौट आया

कल तो मेरा बचपन लौट आया ,

अपने पचास वर्षों को पीछे छोड़ ,

मैं अपने माँ-बापू के घर आँगन की ,

चिड़िया बन खूब फुदकी |

चोर सिपाही  खेली ,

माटीकेबर्तन बनाए ,

ढेरों लाल-पीले -नीले हरे

गुब्बारे खरीदे और उन्हें लेकर खूब खेली |

फिर दीबले की चुस्की भी खाई ,

पापा के कंधे पर बैठ मेला देखा,

झूला झूला और खुशी-खुशी 

माँ की छाती में दुबक सोगई |

मेरे घर की छत पर

बच्चों की किलकारी के बीच 

मैं भी खूब चहकी |

हाँ मैं खुश हूँ बहुत खुश हूँ 

मेरा बचपन जो लौटा है|

तुम्हारा क्या

तुम तो मुझे कल भी पागल कहते थे|

जब मैं खुले मैदान में

यूं ही दौड़ लगाने के लिए,

तुम्हारे निहोरे करती थी |

और तुम बड़े होने का वास्ता दे 

मुझे गुमसुम रहने की सीख देते थे|

आओ,मेरे संग

तुम भी बच्चा बन जाओ 

कुछ क्षण के लिए |

और देखो बचपन कितना भोला होता है

और हमें ऊर्जावान बना जाता है|

Sunday, May 9, 2010

माँ तो बस माँ होती है|

मेरी हो या उसकी हो

माँ तो बस माँ होती है|

बेटे की हो या बेटी की 

संतान बुरी हो या अच्छी हो 

माँ तो बस माँ होती है|

उसका आँचल बहुत बड़ा है

सब कुछ उसमें आजाता है 

कुपूत -सपूत  वह नहीं जानती 

माँ तो बस माँ होती है|

सबको अपनी छाँव ही देती 

तपन आग की वह सह लेती

खुद भूखी रहकर भी 

पेट सभी का भर देती  है 

माँ तो बस माँ होती है|

याद बहुत आती है माँ की 

जब वह पास नहीं होती है

पर यह भी उतना ही  सच है

छोड़ हमें  कहीं नहीं जाती है

माँ तो बस माँ होती है|

होता होगा माँ का दिन भी 

मुझे समझ में  नहीं आता है 

जिसने मुझको जन्म दिया है

पाला-पोषा बड़ा किया है

संस्कारों से मुझे बुना है

वो मुझसे क्या यह चाहेगी

एक दिवस पर याद करू मैं 

बाद में उसको विस्मृत कर दूं 

मेरा तो हर दिन ही अपनी

उस माँ के चरणों में नत है 

माँ तो बस माँ होती है |

जननी,पालिता,धाय कह लो

सौतेली और मम्मी कह लो 

मम्मा कह लो  मोम  बना लो 

फिर भी वह तो माँ  होती है 

माँ तो बस माँ होती  है|

तेरी- मेरी ,इसकी- उसकी 

जिसकी -किसकी होती होगी 

फरक  नहीं पड़ता है माँ को 

माँ तो बस माँ होती है|

दीदी माँ

माँ जो हम दोनों की थी

जा चुकी है हमें छोड़कर

पर अपने ही छोड़े अंश में

अपना स्वरूप देखने की कहकर|

दीदी आपमें ही देखती हूँ उनका रूप 

आप ही तो निभाती हो कि  माँ के दायित्व 

एहसास कराती हो कि माँ जितना अपना

आज भी कोई है मेरे लिए|

निस्संकोच  सुख-दुःख बाँट पातीहूँ जिससे 

आप ही तो हो वो

जिस घर संसार में आज खुश हूँ 

वो भी पापा संग खोजा था आपने ही |

आपसे मिलना ,माँ होने का अहसास कराता है

माँ जो अपनी थीहमारी अपनी

सदा जीवित रहेगी मनमें 

एक सुखद अहसास के साथ|

जब उसकी यादों में डूब जाती हूँ

और छलकने लगती है आँखें

तो वही मुझे याद दिलाती है 

मत रो,मैं हूँ तेरे पास ,तेरी दीदी के रूप में|

प्यारी बहिनअनुपम के सौजन्य से 

Tuesday, April 20, 2010

मन मौसम हो आया है|

ना जाने क्यों 

   ये मन

मौसम हो आया है |

जब गर्म हवाएं चलती है

लू सबको झुलसाती है

घर के एसी ,कूलर भी 

गरम हवाएं देते हैं

इस मन का क्या हाल कहें 

मुरझाई ककड़ी जैसा है|

जब पारा कमहो जाता है

सर्द हवाएं चलती है

जाडे की लंबी रातें

बातों में कट जाती है 

यह मन जाने क्यों 

भुनी मूंगफली होता है|

जब आती बरखा रानी है 

और चाय पकौड़ी चलती है

बरसाती रातों में मन

जाने क्यों भीगा-भीगा  है|

  पतझड़ का मौसम आया है 

पीले पत्तों से बाग अटे

चर-चर मर-मर ध्वनियों से

अपने ही पागल कान ढके 

मन भी झरता-झरता सा है|

 बासंती मौसम आया है

पीपल की लाल नई कोंपल

मेरे मन को भा गईहै

मन हरियाला सावन है

अब हवा भी देखो महक उठी 

आँगन अपना सरसाया है

मन मौसम हो आया है|

Sunday, April 11, 2010

अब रिश्ते भी गणित हो गए |

हाँ जब मैं छोटी थी

माँ हर बात पर कहती थी 

रिश्ते रिश्ते होते हैं

कोई दो दूनी चार के फार्मूले 

नहीं हुआ करते|

ये तुम्हारे सवाल नहीं है

जिनके उत्तर अन्तिम पृष्ठ पर छपे हो 

और तुम सवाल  ना कर पाओ 

तो झट उत्तर टीप लो|

हर रिश्ते की गरिमा और उसका वजूद

अपनी शिद्दत से महसूस कर पाते थे|

घर मेंशादी हो ,ताऊ-चाचा,बुआ 

मामा,मौसी के यहाँ

भाई बहिन काजन्म हो|

हर बार हमारा जाना सुनिशिचित था|

और रिश्तों की गर्माहट से 

और हरहराहट से जिंदादिल होते हम

एक और अवसर की प्रतीक्षा में

खाना -पीना सब भूल जाते|

अब नाते -रिश्तों का क्या 

सब भौतिकता निगल गई

अब तय होते हैं रिश्ते

संबंधों से नहीं

खून से नहीं

केवल और केवल आपके 

स्टेटस से,

स्वार्थ से ,

मतलब से 

अब वाकई रिश्ते गणित हो गए 

दो और दो चार हो गए|

Sunday, April 4, 2010

व्यावहारिकता

यदि व्यावहारिकता के नाते 

ना चाहते हुए भी

मुस्कराहट बिखेरनी होती है|

आंसुओं को जज्ब कर 

भरसक खुशनुमा शक्ल  

अखित्यार करनी होती है|

और उन मवालियों के आगे

घुटने टेकने होते हैंजिन्हें आप

स्वप्न में भी देखना पसंद नहींकरते|

तो ऐसी सामाजिकता और

व्यावहारिकता के चलते

बेहतर है एकांत|

जहां आप कम से कम

अपना मन तो खोल पाते है|

अव्यावहारि क   कहे जाते

कम से कम मजबूर तो नहीं होते 

उन आदर्शों और मूल्यों  

की रक्षा तो  कर पाते हैं

जो आपका ओढन और बिछावन होते है|

कम पाते है तो क्या 

अपने मन के राजा तो हैं|

तलवे तो नहीं चाटते 

उन अपराधियों के

जिन्हें मनुष्य कहते

शर्म भी खुद शर्मा जाती है|

ऐसी व्यावहारिकता से तो

कई गुना अच्छा है

अपने वजूद को जिन्दा रख पाना|

बोले तो अब क्या बोलें?

कहने को अलफाज नहीं ,

शब्दों के आगार नहीं है|

कह-कह कर मन घट रीता ,

उम्मीदों की थाह नहीं है |

अपना सा सब हम कर बैठे,

सीमा अपनी खत्म हो चुकी |

दे दी अब तो अंतिम अरजी ,

भविष्य हमारा उज्जवल होगा 

सुन लेगा विश्वास बढ़ेगा ,

आस्था का संसार बनेगा|

बोल -बोल कर मौन हो चुके ,

वीणा के सब तार सो गए |

अब अपना विश्वास बढा  है ,

जो भी होगा हित में होगा |

घटा अंधेरी छंटने वाली ,

नया सवेरा आता होगा|

 

Monday, March 29, 2010

माँ

सत्यवती राठोर ,इन्द्रसेन की परिणीता है|भरा-पूरा घर है |ससुराल मायका सब संपन्न है |सत्यवती उर्फ सत्या इन्द्र के आँखों की पुतली है पर फिर भी क्या हैऐसा जो हर पल सत्या को बैचेन किये रहता है |आम व्यक्ति उसके कष्ट को मनोकल्पित मानता है|सच भीहै धन-दौलत की तो कोई कमी नहीं,अब उसका सोच ही दुनिया से हटकर है तो कोई क्या करे 

सत्या अपने इतिहास के पन्ने पलटती है तो बचपन ,कैशोर्य ,यौवन आँखों के आगे साकार हो जाते हैं|माँ की दुलारी बिटिया अपने २१वे वर्ष में स्वयं एक नन्हे-मुन्ने की माँ बन बैठी है |माँ से उसने जितना प्यार पायाहै सब अपने शिशु की झोली में डाल देना चाहती है पर अफ़सोस ऐसा कर नहीं पाती,उसकी हर बार की कोशिश नाकाम हो जाती है|मात्र इसलिए कि वह जननी नहीं सिर्फ पालिता है पालिता|उसका स्नेह शंकित निगाहों के घेरे में है|

  पालिता होने के भी एक लंबी कहानी है|संवेदनशीलता,दया,उदारता,निस्वार्थ सेवा भाव से पोषित सत्या की प्रारम्भ से ही ये इमेज रही है कि उसे कैसी भी दुर्दमनीय स्थिति यों में डाल दो ,लौटकर वापिस आजायेगी|घर भर को उस पर बड़ा नाज है|

उसे भी अपने पर बड़ा भरोसा है तभी तो असामायिक कष्ट से पीड़ित एक बिखरते परिवार को बचाने का संकल्प लिए सत्या इन्द्रसेन की  विवाहिता और दुधमुहे बच्चे की माँ बन बैठी |इन्द्र तो सत्या के ऊपर न्योछावर से रहते है|उन्हें लगाने लगा है दुःख की बदली छंट गई है,फिर सुख के दिन आगये है|इन्द्र अपनी मित्रमंडली के सिरमौर हैअपनी बातों और हंसमुख स्वभाव के कारण |लौटकर घर आते है तो सब व्यवस्थित मिलता है|उनके कंधे काबोझ अब बँट गया है अब उन्हें माँ नहीं बनाना पड़ता ,घर में माँ जो आगई है|ऐसैन्द्र और सत्या मानते हैं पर घरवालों की नज़रों में माँ नहीं ,केवल काम में हाथ बंटाने वाली आई है|

इन्द्र की द्रष्टि में गाड़ी थर्ड गेयर में में दौड रही है|नन्हे कान्हा को विगत याद नहीं अत: वह सत्या को माँ ही कहता है|घुटनों के बल सरकता कान्हा अब दौड़ने लगा है|उसे देख माँ के मन में लड्डू फूटते है तभी एक बुजर्ग शख्शियत कान्हा को बुरी नजर से बचाने के लिए अपने आँचल में छुपा लेती है और सत्या एकांत में अपनी उपेक्षा को भीगे आँचल में समेत लेती है|बुजुर्गयित का सम्मान करते -करते सत्या के धैर्य का बाँध टूटने लगा है|क्या उसे मशीन माना जारेअहा है,मात्र कलपुर्जों का संकलन,जिसमें भावना का कोई स्थान नहीं |काश ऐसा होता पर उसके सीने में धडकता दिल मौजूद है  जिसेलाड- प्यार को सूद सहित किश्तों में चुकाने की बात बेमानी लगती है |कान्हा नटखट है ,नासमझ है,गलतिया भे करता है बच्चा जो ठहरा पर जब माँ उसे गलातिलों का अहसास कराने बैय्हती है तो बिजली की फुर्ती से नंबर दो की माँ  होने का बिल्ला उस पर चस्पा कर दिया जाता है| कान्हा की गलतियों पर प्लास्टर चडाते डाक्टरों से उसे बेहद चिद होती है| वह उन्हें अपनी जिंदगी से निकाल फैंकना चाहती है पर इन्द्र का भोला चेहरा उसकी आँखों के  आगे तैर जाता है|इन्द्र के ऊपर अहसानों  का बोझ है जिसे इस जन्म में तो नहीं उतारा जा सकेगा?

  माँ सत्या तलवार की धार पर चलती है|यश बड़ों के हाथ में और गडबड सदा से सत्या के सर मादी गई है|क्या सत्या जैसी मांओ के हस्से केवल कर्तव्यों की लंबी फेहरिस्त ही आती है और अधिकार के नाम पर शेष शून्य ही बचाता है?अल्हड़ सत्या अचानक बहुत बड़ी हो गई है|उसे माँ होने में गरिमा अनुभव होती है|पर निर्देशों की बौछार से कभी माँ नहीं बनाने  देती |इन्द्र के साथ होने पर उसे अपराध बोध सालता है कहीं कान्हा से  पिताभी ना छिनजाए|बदता कान्हा अब सब समझाने लगा है|अपने घर में माँ को टोकते देख माँ से ही पूछ बैठता है और किसी के घर में तो ऐसा नहीं होता सब बच्चे मम्मी के साथ जाते,खाते सोते है| हमें क्यों हर कदम पर बूढों पर छोड़ दिया जाता है |सत्या ने उसे सब कुछ अक्षरश: बता दिया है|किश्तों में फीड की गई सूचनाओं  की कड़ी अब जुडती जा रही है| कल की हल्की- फुलकी दांत को मेग्नीफाई करके देखा जारहा है| कान्हा के मन में कब का पलता विद्रोह अब रंग लाने लगा है| मन में बे्मालूम सी दरार आ गई है|माँ-बेटे दोनों ही ओवर कान्सास हो गए है|गाहे-बगाहे माँ की अनुपस्थिति में जो कुछ थमाया गया है, अब उसे भुनाने का दौर जारी है|

   ऐसी बदलती स्थितियों से सत्या स्तब्ध है | माँ होने का दायित्व बोध गहराता है तो सब कुछ छोटा लगता है पर जब उसके स्नेह को संदिग्ध   मानकर टिप्पणी उछाली जाती है ,माँ बहुत आहात होती है|उसे लगता है प्रेमचनद की निर्मला याँ शकुन कभी गलत नहीं थी, लेखक गन केवल एक पक्ष को बड़ा-चदा कर प्रस्तुत कर पाठकों की सहानुभूति लूटते रहे| जो मुहरा बना, उस पर तो कभी किसी का ध्यान गया ही नहीं| उसे पैरों टेल कुचला गया पर आशा की गई कि उसके मुँह से उफ़ तक ना निकले,बल्कि वह  हमेशा तरोताजा मुसकाराहत बिखेरती रहे,सिर्फ इसलिए कि उसने किसी की सेवा का संकल्प लिया है,सिर्फ इसलिए कि वह उदारमना है|

        स्थिति की भयाबहता से माँ पलायन का रास्ता चुनती है पर दूसरे ही क्षण मस्तिष्क उस के पलायन पर हावा हो जाता है-समाज को सच्छी का आइना दिखाओ सत्या वरना सबकी सहानुभूति बिन माँ के बच्चे के ओर ही रह जायेगी,तुम माँ बनकर भी माँ नहीं बन पाऊगी, बच्चा मन करके बिगडेगा लेकिन उसे रोकने का साहस कौन जुटाएगा?दूसरी माँ होने का दोष ही इतना बड़ा है कि वह हर बार एक ही आक्षेप लगायेगा, इस हथियार के गलत उपयोग से उसकी जिंदगी अँधेरे के गर्त में चली जायेगी|

उसे रोको सत्या, अभी समय है| हिम्मत मत हारो माँ, तुमने किसी को बचाने कासंकल्प लिया है| तुम अकेली कहाँ हो, समाज की ढेरों सत्या तुम्हारे साथ हैं,बात जोह रही है कि कोई देवदूत आये और उन्हें रास्ता दिखाए,बताए सबको कि सत्या जैसी माओ की समस्या क्या है?उन्हें बदनाम तो किया गया पर किसी ने कारण नहीं जाना | मूल और नक़ल का अंतर बताते हुए समाज ने उसके मातृत्व को भुनाया है,पड़े-लिखों की जमात में एक भी ऐसा नहीं निकला जो उनका पक्ष रखा सकता| सबने केबल अपना स्वार्थ देखा\छोटी-छोटी बातों में केवल सौतेली तराजू पर ही तुला गया ?क्या बच्चे कभी पिटते नहीं,क्या उनको कभी डांटा नहीं जाता 

,उनकी अनुचित मांग के लिए कभी मना नहीं किया जाता, ऐसा होता है लेकिन वही जब सत्या माँ करती है तो उसके सन्दर्भ बदल जाते है,वह दोष हो जाता है केवल इसलिए कि उस शिशु की धाय है जननी नहीं|सभी के मुख तो खुले है कि कहने के लिए पर कान पूरी तरह बंद है| किसके आगे खोलेगी सत्या अपना मन, पति के आगे पर वह तो पिता हैं कैसे समझेंगे एक माँ की पीड़ा को|उसे केवल आदर्शवादी होने की संज्ञा दी गई है|आदर्शवादी सत्या को अपने विचार टाट में मखमल का पैबंद  नजर आते हैं ,आया करें ,सत्या को क्या परवाह है , वह तो कपड़ों की धुल झाडकर जीवन संग्राम में फिर तन कर खड़ी हो गई है| समाज से दो-दो हाथ करने |वह जानती है इसमें उसे घायल होना पडेगा, अपनो की जाली-कटी सुननी होगी,सपूत उसे दोषी ठहराएगा ,इन्द्र पशोपेश में होंगे,बुगुर्ग अपनी बुजुर्गियत को भुनाएंगे  फिर भी सत्या एक आदर्श स्थापित करेगी क्योंकि यह उसका सपना है|

ा 

Sunday, March 28, 2010

मुखौटे

दृष्टि जाती जहा-जहा

मुखौटे पाती वहा-वहा

मानो,हर चेहरा चेहरा नही

मुखौटा है।

शायद अब मुखौटे नही बिकते

चेहरे बिकते है बाबा के मोल।

एक मुखौटा चस्पा है

मेरे भी मुख पर

क्योंकि ठानी है मैने

सच कहने की।

रिश्ते-नातो मे बन्धी मै

मुखौटे दर मुखौटे चडाती जाती  हू।

कही मै किसी की जाया हू

तो कही कोईमेरी जाया है।

कभी सहोदरो का अनुराग है

तो कभी जीवंभर का साथ है।

ये मुखौटे ,दिल्चस्प मुखौटे

हर बार विजयी होते है

सच की ताकत को खीच लिये जाते है।

2.एक दफा,कीथी कोशिश मैने

सभी मुखौटे उतारने की

रात के घुप्प अन्धेरे मे

बन्द कमरे के सन्नाटे मे

सम्बन्धो का जाल

तेज़ दांतो से कुतरा।

उतारते-उतारतेमुखौटे

थक गये मेरे हाथ,बीतने लगी रात,

देखाआइने मे,करोडो मुखौटो के बीच

बदरंग चेहरा।

अंगाठादिखाते सुन्दर मुखौटे

फूले नही समाते।
और मै उस बदरंग 

चेहरे के साथ आज भी 

बिना मुखौटे के आज भी

जीवित हू।

पर मुझे घोर अव्यावहारिक 

की संज्ञा दी जाती है

और सब ओर से दरकिनार

कर दिया जाता है।


 




Tuesday, March 23, 2010

और छोटू बडा हो गया ।

अभी तो 

अपना छोटू

छोटू था ।

लडता -झगडता-और मचलता

अपनी छोटी-छोटी जिदो

को मनवाने की खातिर।

रूठना-मटकना और 

फिर हारकर

अम्माके आंचल मे

दुबक कर सोजाना।

और जगना

फिर इक नई मासूमियत के साथ।

पर अब ये सब बीती

बाते है

क्योंकि आधुनिकता तो

जल्दी-जल्दी 

बडा होनाभर

सिखाती है।जिम्मेवार बनाती है

भले ही सारा का सारा 

बचपन बिला भरजाये।



मन की बात

बड़ी-बड़ी बातों को कहना और उन्हें व्यवहार में लाना 
दूसरों के लिए सिद्धांत बनाना और उस पर स्वयं चलना 
सत्य को रट लेना और उसको आचरण में उतार पाना 
यदि सरल ही होता ,तो आज सब पंडित हो गए होते | 

जब बात अपने वजूद की होती है 
तो हम ही नहीं बदलते 
हमारी परिभाषाएँ भी 
तेजी से बदलती है| 
मसलन सत्य बदलता है 
नाते रिश्ते बदलते हैं 
चेहरे बदलते हैं 
वादे बदलते है 
और यह सब बदलता है 
मात्र अपने को बनाए रखने की खातिर|

Monday, March 22, 2010

मेरे घर गौरैया आयी है

आज मैं बहुत खुश  हूँ 

क्योंकि मेरे घर 

गौरैया आयी है

अभी -अभी 

उसने चावल और गेंहू 

के दाने भी चुगे

और कुल्लड में रखे

पानी में चोंच भी बोरी है|

मैंने उसे अपनी आँखों से देखा है

अब वह मेरे बगीचे की

बोगंबिलिया के झुर्मुट में

अपने सखी-सहेलियों से 

बतरा रही है|

देखो वो भोली गौरैया 

मुझे निहारती है

और चुन-चुन करती 

कह ही देती है

अपने मन की बात|

मै फिर आउगी

बस करनामुझसे बात

मत रहना उदास

मेरा घोंसला कहीं भी हो 

पर ये पड़ाव भी

मुझे बहुत भाते है|

जहां मुझे मिल जाए इंसान 

और मुझे देख नाचें बच्चे|

Friday, March 19, 2010

अध्यापक शिक्षा और मूल्य बोध

  जे. कृष्णमूर्ति के शब्दों में –"जानकारी इकठ्ठा करना और तथ्यों को बटोरकर आपस में मिलाना ही शिक्षा नहीं है,शिक्षा तो जीवन के अभिप्राय को उसकी समग्रता में देखना-समझना है|-----पूर्णत: समन्वित प्रज्ञाशील मनुष्य तैयार करना है|परीक्षा और उपाधि प्रज्ञा का मानदंड नहीं है|"उक्त सन्दर्भ
उक्त सन्दर्भ में आज की शिक्षा हमें बौद्धिक और सूचना-संपन्न भले ही बना रही हो परन्तु यह भी सच है कि हमने संवेदना की कीमत पर बुद्धि का विकास किया है|शिक्षा देने का काम शिक्षक का है और एक सच्चे शिक्षक के लिए अध्यापन तकनीक नहीं ,वह उसकी जीवनपद्धति है |क्या हमने कभी उन कारणों को तलाशने की कोशिश की है जिनके कारण शिक्षा मूलभूत शैक्षिक मूल्यों की अपेक्षा से दूर होती जा रही है ?निश्चित रूप से हमने बहुत सी पुस्तकें पढ़ी हैं ,उन सूचनाओं को याद भी कर लिया है ,परीक्षाएं भी पास कर ली हैं ,हमारे पास बहुत सारी उपाधियां भी हैं और इन उपाधियों ने हमें जीविका के साधन भी उपलब्ध करा दिए हैं|इसका अर्थ है यदि शिक्षा रोजगार के लिए थी ,तो हम निश्चित रूप से सफल हुए हैं| पर यह भी उतना ही सच है कि आज हम मशीन तो हुए हैं पर मनुष्यता कहीं बहुत पीछे छूट गई है|हमारी संवेदना दिन-प्रतिदिन मरती जा रही है|हमारे पास भौतिक सम्रद्धि तो अपार है पर हमारी संस्कृति ,हमारे मूल्य ,हमारे आपसी सम्बन्ध ,हमारी जड़े खोखली होती जा रही हैं और आज का सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यही है |
  शिक्षा देने का कार्य मुख्य रूप से शिक्षक का है | शिक्षक एक निश्चित पाठ्यक्रम और निश्चित शिक्षण विधि के अनुसार एक सिस्टम में बंधकर अपना कार्य करता है||उसे केवल उतना करना है जितना उसके लिए निर्धारित है||वह उड़ाका.गोताखोर अथवा तैराक के रूप में अपना कार्य करता है जबकि आज की परिस्थिति में उसे स्वयं को रूई धुनने बाला धुनिया और कुम्हार के रूप में प्रस्तुत करना होगा|दर असल मूल्य शिक्षा केवल किताबों का विषय हो ही नहीं हो सकती, उसे तो व्यवहार में दिखना चाहिए|समय का मूल्य सिखाने के दो उपाय हो सकते हैं |पहला आप छात्र को यह वाक्य याद करने को देंदे और दस पांच बार लिखवा लें और दूसरा उपाय है आप स्वयम दैनिक जीवन में इस आचरण का पालन करें |
  केवल नोट्स और मोडल पेपरों से काम ना चलायें,मूल ग्रंथों का अध्ययन करें|
इंटरेक्टिव मेथोडोलोजी को अपनाएँ |हम मूल्यों को संप्रेषित करने के लिए पहले स्वयं तो संवेदित हो|बदलते परिवेश में मूल्यों की निश्चित दिशा तो तय करें|अब परिवेश में भौतिक संसाधन ही तो बदले हैं ,उनके साथ हम मूल्यों को कैसे नकार सकते है?वैसे भी शाश्वत मूल्य तो कभी नहीं बदला करते,हाँ,उस तक पहुँचने के साधन और कर्मकांड जरूर बदल जाते हैं|
यदि हम चरित्र और व्यक्तित्व को स्थान ही नहीं देते ,तो प्रत्येक स्तर पर हमें इतने चरित्रों के अध्ययन की क्या आवश्यकता थी?किसी भी परिस्थिति में हमारा द्रष्टिकोण 
और निर्णय बहुत मायने रखते हैं|शिक्षा जीवन को दिशा देने के लिए होती है,उसे भटकाव में छोड़ने के लिए नहीं|
  इन विषम परिस्थितियों में भी हम असमर्थताओं में नहीं ,भरपूर संभावनाओं में घिरे हैं|ईमानदारी,बहादुरी,सत्य,दया,सहानुभूति,परदुख कातरता ,क्षमा ,अस्तेय ,क्या इन मूल्यों की वर्तमान में आवश्यकता नहीं बची है,क्या ये मूल्य अपने अर्थ खोते जा रहे हैं?मेरा विचार है नहीं,आज भी इन शाश्वत मूल्यों का महत्त्व कम नहीं हुआ है|यदि ऐसा होता तो शिक्षा जगत के लिए तारें जमीन पर, थ्री इडियट , और मुन्ना भाई की फ़िल्में इतनी सामयिक ना होती|अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा आयोग जिसके अध्यक्ष जाक डेलर्स थे ,ने अपनी रिपोर्ट ज्ञान का खजाना में स्पष्ट रूप से संकेत दिया है कि जीवन भर चलने 
वाली शिक्षा मुख्य रूप से चार स्तंभों पर टिकी होती है-१.जानने के लिए ज्ञान २.करने के लिए ज्ञान ३.साथ रहने के लिए ज्ञान और४.होने (अस्तित्व ) के लिए ज्ञान |
  शिक्षा का उद्देश्य निश्चित ही रोजगार स्रजन है पर शिक्षा हमें बेहतर मनुष्य भी बनाए जिसमें मानवीय गुण हों तथा विश्व को बेहतर ढंग से रहने वाली जगह बनाए|यदि ह्रदय सच्चा है तो चरित्र होगा|चरित्र के साथ घर में शान्ति होगी और जहां घर अच्छे हैं ,उससे राष्ट्र और विश्व प्रभावित होगा|
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