यदि व्यावहारिकता के नाते
ना चाहते हुए भी
मुस्कराहट बिखेरनी होती है|
आंसुओं को जज्ब कर
भरसक खुशनुमा शक्ल
अखित्यार करनी होती है|
और उन मवालियों के आगे
घुटने टेकने होते हैंजिन्हें आप
स्वप्न में भी देखना पसंद नहींकरते|
तो ऐसी सामाजिकता और
व्यावहारिकता के चलते
बेहतर है एकांत|
जहां आप कम से कम
अपना मन तो खोल पाते है|
अव्यावहारि क कहे जाते
कम से कम मजबूर तो नहीं होते
उन आदर्शों और मूल्यों
की रक्षा तो कर पाते हैं
जो आपका ओढन और बिछावन होते है|
कम पाते है तो क्या
अपने मन के राजा तो हैं|
तलवे तो नहीं चाटते
उन अपराधियों के
जिन्हें मनुष्य कहते
शर्म भी खुद शर्मा जाती है|
ऐसी व्यावहारिकता से तो
कई गुना अच्छा है
अपने वजूद को जिन्दा रख पाना|
मैं आपसे पूर्णत: सहमत हूँ ! अपनी अंतरात्मा को कुचल कर कभी कोई समझौता नहीं करना चाहिए ! ऐसी सामाजिकता का कोई अर्थ नहीं जो हमें अपनी ही नज़रों में गिरा दे ! सारगर्भित प्रस्तुति के लिये आभार !
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