Friday, February 25, 2011

अध्यापक शिक्षा और मूल्य बोध

अध्यापक शिक्षा और मूल्य बोध
जे. कृष्णमूर्ति के शब्दों में –"जानकारी इकठ्ठा करना और तथ्यों को बटोरकर आपस में मिलाना ही शिक्षा नहीं है,शिक्षा तो जीवन के अभिप्राय को उसकी समग्रता में देखना-समझना है|-----पूर्णत: समन्वित प्रज्ञाशील मनुष्य तैयार करना है|परीक्षा और उपाधि प्रज्ञा का मानदंड नहीं है|"उक्त सन्दर्भ
उक्त सन्दर्भ में आज की शिक्षा हमें बौद्धिक और सूचना-संपन्न भले ही बना रही हो परन्तु यह भी सच है कि हमने संवेदना की कीमत पर बुद्धि का विकास किया है|शिक्षा देने का काम शिक्षक का है और एक सच्चे शिक्षक के लिए अध्यापन तकनीक नहीं ,वह उसकी जीवनपद्धति है |क्या हमने कभी उन कारणों को तलाशने की कोशिश की है जिनके कारण शिक्षा मूलभूत शैक्षिक मूल्यों की अपेक्षा से दूर होती जा रही है ?निश्चित रूप से हमने बहुत सी पुस्तकें पढ़ी हैं ,उन सूचनाओं को याद भी कर लिया है ,परीक्षाएं भी पास कर ली हैं ,हमारे पास बहुत सारी उपाधियां भी हैं और इन उपाधियों ने हमें जीविका के साधन भी उपलब्ध करा दिए हैं|इसका अर्थ है यदि शिक्षा रोजगार के लिए थी ,तो हम निश्चित रूप से सफल हुए हैं| पर यह भी उतना ही सच है कि आज हम मशीन तो हुए हैं पर मनुष्यता कहीं बहुत पीछे छूट गई है|हमारी संवेदना दिन-प्रतिदिन मरती जा रही है|हमारे पास भौतिक सम्रद्धि तो अपार है पर हमारी संस्कृति ,हमारे मूल्य ,हमारे आपसी सम्बन्ध ,हमारी जड़े खोखली होती जा रही हैं और आज का सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यही है |
शिक्षा देने का कार्य मुख्य रूप से शिक्षक का है | शिक्षक एक निश्चित पाठ्यक्रम और निश्चित शिक्षण विधि के अनुसार एक सिस्टम में बंधकर अपना कार्य करता है||उसे केवल उतना करना है जितना उसके लिए निर्धारित है||वह उड़ाका.गोताखोर अथवा तैराक के रूप में अपना कार्य करता है जबकि आज की परिस्थिति में उसे स्वयं को रूई धुनने बाला धुनिया और कुम्हार के रूप में प्रस्तुत करना होगा|दर असल मूल्य शिक्षा केवल किताबों का विषय हो ही नहीं हो सकती, उसे तो व्यवहार में दिखना चाहिए|समय का मूल्य सिखाने के दो उपाय हो सकते हैं |पहला आप छात्र को यह वाक्य याद करने को देंदे और दस पांच बार लिखवा लें और दूसरा उपाय है आप स्वयम दैनिक जीवन में इस आचरण का पालन करें |
केवल नोट्स और मोडल पेपरों से काम ना चलायें,मूल ग्रंथों का अध्ययन करें|
इंटरेक्टिव मेथोडोलोजी को अपनाएँ |हम मूल्यों को संप्रेषित करने के लिए पहले स्वयं तो संवेदित हो|बदलते परिवेश में मूल्यों की निश्चित दिशा तो तय करें|अब परिवेश में भौतिक संसाधन ही तो बदले हैं ,उनके साथ हम मूल्यों को कैसे नकार सकते है?वैसे भी शाश्वत मूल्य तो कभी नहीं बदला करते,हाँ,उस तक पहुँचने के साधन और कर्मकांड जरूर बदल जाते हैं|
यदि हम चरित्र और व्यक्तित्व को स्थान ही नहीं देते ,तो प्रत्येक स्तर पर हमें इतने चरित्रों के अध्ययन की क्या आवश्यकता थी?किसी भी परिस्थिति में हमारा द्रष्टिकोण
और निर्णय बहुत मायने रखते हैं|शिक्षा जीवन को दिशा देने के लिए होती है,उसे भटकाव में छोड़ने के लिए नहीं|
इन विषम परिस्थितियों में भी हम असमर्थताओं में नहीं ,भरपूर संभावनाओं में घिरे हैं|ईमानदारी,बहादुरी,सत्य,दया,सहानुभूति,परदुख कातरता ,क्षमा ,अस्तेय ,क्या इन मूल्यों की वर्तमान में आवश्यकता नहीं बची है,क्या ये मूल्य अपने अर्थ खोते जा रहे हैं?मेरा विचार है नहीं,आज भी इन शाश्वत मूल्यों का महत्त्व कम नहीं हुआ है|यदि ऐसा होता तो शिक्षा जगत के लिए तारें जमीन पर, थ्री इडियट , और मुन्ना भाई की फ़िल्में इतनी सामयिक ना होती|अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा आयोग जिसके अध्यक्ष जाक डेलर्स थे ,ने अपनी रिपोर्ट ज्ञान का खजाना में स्पष्ट रूप से संकेत दिया है कि जीवन भर चलने
वाली शिक्षा मुख्य रूप से चार स्तंभों पर टिकी होती है-१.जानने के लिए ज्ञान २.करने के लिए ज्ञान ३.साथ रहने के लिए ज्ञान और४.होने (अस्तित्व ) के लिए ज्ञान |
शिक्षा का उद्देश्य निश्चित ही रोजगार स्रजन है पर शिक्षा हमें बेहतर मनुष्य भी बनाए जिसमें मानवीय गुण हों तथा विश्व को बेहतर ढंग से रहने वाली जगह बनाए|यदि ह्रदय सच्चा है तो चरित्र होगा|चरित्र के साथ घर में शान्ति होगी और जहां घर अच्छे हैं ,उससे राष्ट्र और विश्व प्रभावित होगा|
*********************
Posted by beena at 3:59 PM

Tuesday, February 22, 2011

हमें जाना कहाँ है ?

अरे भाई ,जब किसी वाहन में बैठते हो तब भी कंडक्टर पूछता है टिकिट कहाँ का काट दूं और आप झट से अपना गंतव्य, अपनी मंजिल बता देते हैं तो फिर इस जीवन के लिए आपने कोई मंजिल निश्चित ही तय की होगी ,आपको अपने लक्ष्य भी बहुत स्पष्ट होंगे और आप सही रूट की बस भी पकड़ना चाह रहे होंगे |पर यह इतना आसान कहाँ है? आज तो स्थिति यह है कि बनना कुछ चाहते हैं पर पढाई किसी ओर दिशा में कर रहे हैं| कभी कम्प्यूटर ,तो कभी मीडिया ,कभी साहित्य में हाथ आजमा ते हैं तो कभी दुकान खोल लेते हैं | कभी हम टीवी कलाकार बनाना चाहते हैं तो कभी डांसर, कभी गायकी में हाथ आजमा लेते हैं तो कभी- कभी लेखन भी शुरू कर देते हैं | आज के विद्यार्थियों से बातें करते हुए मुझे ऐसे अनुभव अक्सर हो रहे हैं | उनको यह नहीं पता होता कि हमें अपने जीवन में क्या करना है ,अपनी कोई रूचियाँ नहीं, बस बदलती दुनिया के साथ रोज रंग बदल लेते हैं | कभी एम.बी.ए जैसी उच्च शिक्षा पाने के बाद फिर सोचते हैं चलो अब आई.ए.एस. की तैयारी कर लेते हैं| कभी लगता है कि स्नातक परास्नातक तो बेकार की बातें हैं, चलो अब कोई प्रोफेसनल कोर्स कर लेते हैं फिर सोचाते है इसमें तो अच्छी कमाई नहीं चलो अब किसी ओर में हाथ आजमा लेते हैं | यानी कि हम आधी जिंदगी तक तो यही निश्चित नहीं कर पाते कि आखिर हमें करना क्या हैं|
बस हमारे सामने एक भीड़ है ,बहुमत जिधर चला जाता है उधर ही हम भ्रमित जाते हैं | हम कभी यह समझ ही नहीं पाते कि प्रत्येक व्यक्ति की अपनी प्राथमिकताएं हुआ करती हैं और उसे अपनी पारिवारिक परिस्थितियों के अनुकूल निर्णय लेने होते है| कोई जरूरी नहीं कि जो कार्य दूसरे के लिए लाभ का सौदा हो वह हमारे लिए भी हो | हमारी अपनी रूचिया, हमारा अपना परिवेश, हमारे अपने सरोकार बहुत मायने रखते हैं फिर दुनिया में कोई भी कार्य छोटा या बड़ा, अच्छा या बुरा नहीं हुआ करता| बुरा हुआ करती है हमारी नीयत, हमारा सोच, हमारे अपने कथन, हमारी अपनी विचार धाराए | आप जब भी किसी काम को अपने हाथ में लें पूरे मनोयोग के साथ और रूचि के साथ उसे पूर्ण करें सफलता अवश्य मिलेगी |
हम बहुत सारे कार्य अपने हाथ में ले लेते हैं -कुछ में हमारी रूचि नहीं होती कुछ दुनिया दिखावे और स्तर कोबनाये रखने के लिए जरूरी होता है और कुछ यूं ही बेमन से कर लिया जाता है| पर याद रखें सफल हम वहीं होते हैं जहां अपनी पूरी ताकत लगा देते हैं ,जो हमारी रूचि का काम होता है,जिसको करते हुए हम बोर नहीं होते ,जिसे करते हुए हमें आनंद आता है,समय यूं ही बीत जाता है और हमें पता भी नहीं चलता|
दुनिया के सारे काम .सारे रास्ते हमारे लिए खुले हैं |बस हम सबसे पहले अपनी प्राथमिकताए तो तय करें| हम अपने मन को जाने तो सही ,हम अपने विचारों को मान तो दें |हम अपने अस्तित्व को प्रमाणित तो करें |हम वही करें जो वास्तव में करना चाहते हों | हमें खुशी भी मिलेगी और हम अपने लक्ष्य में सफल भी अवश्य होंगे|

Monday, February 21, 2011

वह बूढ़ा नीम और मेरे बाबा जी

कुछ यात्राएँअचानक ही विस्मरणीय बन पडती है| कल ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ| मेरे चचेरे भाई के बेटे की सगाई का अवसर था | मैं और मेरी मेरी बहिन वहां पहुँच गए | वैसे भी हम दोनों ऐसे किसी भी अवसर को नहीं छोडते जहां हमारे अपने लोगों से मिलानाजुलना होताहो| | सब कार्यक्रम की चमक दमक में खोए हुए थे | मैंने भाई से कहा- भैया क्या हम अपना पुराना घर देख सकते हैं ?मुझे सपने में भी विशवास नहीं था कि भाई इतनी जल्दी मेरे इस प्रस्ताब को मान लेंगे | कुछ ही देर मैं हम उस अहाते में थे जहां मेरे पिता का बचपन बीता था और जहां मेरी माँ ब्याह कर आई थी\ वहाँ पहुंचते ही मुझे माँ की बताई छोटी-छोटी बातें बेहद याद आरही थी कि कैसे छत से गिरकर बाबा के प्राण छूटे थे और कैसे उस घर में चोरों के किस्से माँ ने हमें सुनाये थे|वह लिपा -पुता अहाता आज भी अपने गौरवशाली अतीत को बयान कर रहा था|
वहाँ दो भैंसे बंधी हुई थी और सालो पहले जैसा चित्रण माँ किया करती थी उसमें कोई भी बदलाब नहीं हुआ था | मैनें अपने बाबा को कभी नहीं देखा | मेरी बडी दीदी और भैया जब ५-६ साल के रहे होंगे तभी उनका देहावसान हो गया था| उस समय शायद फोटो खींचने का रिवाज नहीं होता होगा सो हमने बाबा को कभी चित्रों में में नहीं देखा था| बस बाबा जीवंत थे तो केवल माँ और पिता के द्वारा बताई गई घटनाओं में| उसी अहाते में एक बहुत- बहुत बूढ़ा नीम का पेड़ था| जब मैंने अपने ताऊ जी से पूछा कि क्या यह पेड़ पिताजी के समय भी था तो वहाँ खड़े एक बुजुर्ग बोले - लाली तेरे बाप के बाप यानी तेरे बाबा का लगाया हुआ पेड़ है यह | सच में मैं बहुत भावुक हो उठी और दोनों हाथों से कसकर उस बूढ़े पेड़ को पकड़ लिया और बाबा कहते हुए फफक उठी | किसी की समझ में नहीं आरहा था कि आखिर मुझे हो क्या गया है | मैं बीना जिसने कभी अपने बाबा को देखा तक नहीं ऐसा क्यों कर रही हूँपर सच बताऊँ न जाने मुझे ऐसा क्यों लगा कि मेरे बाबा अपनी पोती को सूखे पत्ते गिराकर आशीर्वाद दे रहे हों | वो स्पंदन मेरा पीछा आज भी नहीं छोड़ रहा | मन करता है बस उस अपने नीम बाबा के नीचे कुछ पल और गुजार लेती |मेरे अंधे बाबा अपने अंतिम समय में मुझे लेकर क्या कल्पनाएँ कर पाए होंगे मैं नहीं जानती क्योंकि उस समय तक तो मेरा अस्तित्व भी नहीं था |
पर हमारे पूर्वज हमेशा हमारे साथ स्सये की तरह बने रहते हैं | उस नीम बाबा को देखकर ही मुझे ख्याल आया कि पिताजी के हाथों लगा वह बूढ़ा पीपल शायाद्बाबा के नीम की ही प्रेरणा रहा होगा| सारी की सारी यादों ने अपने सभी पाठ खोल दिए है और मैं बाबली सी कभी इधर तो कभी उधर जाती अपने लगाए छोटे-छोटे पौधों अपनी संतानों के लिए बूढ़ा नीम और पीपल बनाने के स्वप्न देखने लगी हूँ कि कभी मेरे नाती-पोते भी इन पेडों में हमें अनुभव कर पायेंगे|