Saturday, January 29, 2011

मै आपकी ही बेटी बनना चाहूंगी |

मेरे अच्छे पिताजी ,
आज आठ वर्ष पूरे हो गयेआपको इस संसार को छोड़े | न जाने किस लोक में होंगे आप और पता नहीं मेरी बात सुन भी पायेंगे या नहीं |हमने संस्कार आपसे तो ही ग्रहण किए कभी आपने कुछ कहा नहीं पर आपका व्यक्तित्व सब कुछ कह देता | आपके चेहरे पर फ़ैली वह निशल मुस्कराहट किसी को भी प्रभावित कर देने के लिए काफी थी|किसी भी दुःख में आपको विचलित होते नहीं देखा| मुझे आज भी वह शाम याद है जब घर में छुटकी के बीमार होने पर हम सभी बहुत परेशान हो गए थे और आपको शांत और अविचिलित देखकर मैंने आपसे कहा भी था आप इतने शांत कैसे रह सकते है ?आपका उतनी ही गंभीरता से भरा जबाव था बेटा दुःख में हाथ पैर छोडने से काम नहीं चलता ,धैर्य रखो और प्रभू का स्मरण करो सब ठीक हो जाए गा | हम संसारी जीवो को उस समय आपका ये गीता जैसा सन्देश अखरा था पर आप कितना सही थे यह बाद में जाना | आपने ही तो सिखाया कि मुसीबत उतनी बड़ी नहीं होती जितना हम उसे आंक लेते हैं किसी समस्या का हल खोजना तो बुद्धिमानी हो सकता है पर उसको लेकर चिंतित होकर बैठ जाना कोई विकल्प नहीं| कितनी यादे आज मेरे जेहन में आरही है| लोग कहते थे कि शर्माजी ५ बेटियों के पिता है फिर भी कैसे मुसकाते रहते हैं |हाँ , पापा शायद आप के कंधे इसीलिए नहीं झुके क्योकि आपने अपनी पुत्रियों को संस्कारवान और मजबूत बनाया | पर पापा, हम बच्चिया आपके लिए बस एक लडकी ही बनी रही |कभी भी संतान होने के दायित्व की पूर्ति नही कर पाई| जो किया भी वह भी इस भाव के साथ कि जैसे कोई अहसान कर रहे हो|आपका अंतिम समय पास था पर हमने कभी भी आपको कमजोर पड़ते नहीं देखा |
कैसे कर पाते थे आप ये सब |दादी तो आपको ९ माह का ही छोड कर चल बसी थी और आपका बचपन इधर-उधर ही बीता |शायद अनुभव ने आपको समय से पहले ही गंभीर बना दिया |आपने अपनी सीमित आमदनी में कैसे हम सबको शिक्षित भी कर दिया| कभी किसी के आगे कभी हाथ पसारते नहीं देखा \सब को अच्छे घरों में ब्याह दिया |पर पापा हमने क्या किया|कभी आप से यह भी नहीं कह सके कि पापा अब आप आराम कीजिये ,हम सब सभाल लेगे |अरे कभी कुछ बाजार से ला भी दते थे तो ऐसा महसूस करते मानो हम बहुत बड़ा बोझ ढोकर लाये है |मैंने बहुत सोचा और अब मुझे लगता है कि फिर मैं आपकी बेटी बनकर ही जन्म लूंगी|

Sunday, January 23, 2011

चलो आज फिर लिखते हैं|

अभी तो नया वर्ष आया और अब यह छब्बीस जनवरी भी आ गई |पिछले पचास सालों से यही सब तो देखते आरहे हैं देश भक्ति का जज्बा जगाने वाले गीत गाये जा रहे हैं -मेरेदेश की धरती सोना उगले उगले हीरा मोती, तिरंगा फहराने की तैयारियां हो रही है तो अपना बचपन फिर यादों में घुस आया है | रंग-बिरंगी झंडियां तैयार करते हम कितने आनंदित रहा करते थे ,विद्यालय में वीर हकीकतराय का नाटक खेला जाता और हकीकतराय का संवाद बोलते-बोलते लगने लगता कि सच मनमें भी देश भक्त हूँ | विद्यालयों में जुलूस लिकाले जाते और हम बच्चे हाथों में झंडा लेकर भारतमाता की जय और बापू की जयजयकार करते | झांकिया निकाली जाती और घरों में सुबह से ही उत्सब का माहौल रहता माँ पिता भी अपने बच्चे की गतिविधियों में आनंद लेते थे\ महिलाए घरों के बाहर जुलूस देखने के लिए आजाती और पिताजी रेडियो और टीवी पर गणतंत्र दिवस की परेड देखते रहते | शायद तब हम सभी मानते थे कि यह हमारा राष्ट्रीय त्यौहार है और इसे हमें पूरे जोश खरोश के साथ ही मनाना चाहिए | लगभग दस दिनों तक हम कार्यक्रम की तैयारी करते रहते |और जब छब्बीस जनबरी पर हमें लड्डू खाने को मिल जाते तब कार्यक्रम का समापन होता और दूसरे दिन छुट्टी देदीजाती कि बच्चे बहुत थक गए होंगे|
अब देखती हूँ तो वो माहौल नजर नहीं आता | छोटे बच्चों को तो यह कहकर अवकाश दे दिया जाता है कि तुम्हारी छुट्टी है और विद्यालयों में होने वालो की कार्यक्रम की बानगी ऐसी है कि शर्म आजाती है | मै्ने भी बच्चों के लिए कार्यक्रम तैयार किए -कुछ देश भक्ति गीत थे दो नाटक थे झान्सी की रानी का कविता वाचन था ,संस्कृत में सरस्वती वन्दना थी और एकबच्चा कृष्ण की भूमिका में नृत्य के लिए प्रस्तुत था | कुछ लोग प्रयास में आये |उन्होंने बच्चों को अभ्यास करते देखा और अनायास कह बैठे क्या मेडम सब फीकाफीका हैमैने पूछा क्या कमी लग रही है आपको तो उन्होंने बड़ी सहजता से जबाव दिया -जब तक कुछ चटपटा न होजाए कार्यक्रम में मजा नहीं आता उनका आशय े मुन्नी बदनाम हुई और शीला कीजवानी से था | मुझे बड़ा क्षोभ हुआ कि बच्चों की जो उम्र संस्कारित करने की होती है हम उसे सुनने और देखने के लिए क्या देते हैं और फिर ठीकरा बच्चों के सर फोड देते हैं किबच्चे बिगडते जा रह हैं | हमारी तो आदत ही हो गई है आलोचना करने की |कभी यह नहीं सोच पाते कि बदलती हुई स्थितियों के लिए आखिर जिम्मेदार कौन है ?क्या राष्ट्रीय पर्व केवल औपचारिकता मात्र रह गए हैं ? न तो हम बच्चों को अपना इतिहास बताते हैं और न उनमें इन संस्कार डालने का प्रयास करते है |बस जब देखो तब एक रटा हुआ संवाद हमारे मुँह से अनायास निकल जाता है क्या करें अब माहौल ही ऐसा हो गया है |
अरे वैसा माहौल रचाने में क्या आप इम्मेबार नहीं है क्या आप समाज और देश के नागरिक नहीं फिर आप अपेक्सएं केवल दूसरों सही क्यों करते हैं अपने हिस्से के कुछ काम तो कीजिए कमसे कम गहर के माहौल को तो साफ़ सुथरा बनाने की कोशिश कीजिए जब आप ही चुनिन्दा कार्यक्रम नहीं देखते तोबच्चों से किस मुँह से कहेंगे | कुछ सोचिए आखिर हम किस दिशा में जारेहेहै ? बच्चों के बिगडते ही हम विद्यालय और समाज को दोष देना शुरू कर देते हैं | कम से कम हमें अपने अभिवावकों से जोशिकायतें रही उनको दोहराने से तो बच सकते हैं पर हमारे यहाँ इस तरह के किसी भी प्रशिक्सान का सर्वथा अभाव है | बच्चे की शारीरिक कमजोरी तो हमें दिख जाती है पर उसका व्यवहार और उसका सोच हमारी चिंता का विषय कभी नहीं बन पाता |
शिकायत करना बहुत आसान है पर समस्याओं के हल खोजना कुछ कठिन अवश्य है | यह धन की अपेक्सा आपके समय और विचार की मांग करता है | हमारा कल जिन हाथों में महफूज है उस ओर अभी से ध्यान देना जरूरी है|