Friday, May 8, 2009

अपना बचपन याद करें

मुझे भी अपने बचपन में झांकने की याद आ गई! मैं कहानीकार तो नहीं हूँ और नहीं साहित्यकार! मैं तो ठहरा एक गाँव का ग्वाला हाँ वही गाय और भैंस चराने वाला ग्वारिया! हाँ तो बात तब की है जब मैं आठ या नौ साल का रहा हूँगा! रक्षा बंधन का त्यौहार था! मैं भैंस चराने गया था! दोपहर के समय भैंसें पोखर में जा कर बैठ गयीं! पोखर मैं पानी तो ज्यादा नहीं था, लेकिन मेरी ऊँचाई के हिसाब कहीं बहुत ज्यादा था! थोडी भूख भी लगाने लगी थी और ऊपर से घर जा कर पकवान खाने की जल्दी थी!
फिर क्या था आव देखा न ताव घुस लिया पोखर में भैंस के पास तो पंहुंच नहीं पाया लेकिन पानी जरूर सिर से ऊपर हो गया और मैं डूबने लगा! बुडुर बुडुर बुल बुले ऊपर आने लगे! मुझे कुछ पता नहीं, तभी एन मसीहे का हाथ मेरे सिर पर आ गया और मुझे पोखर के बहार निकाला! आज भी मैं उस मसीहे को याद कर के मैं बार बार नमन करने लगता हूँ! और बड़ी अच्छी तरह से अपने जेहन में यह बात उतरता हूँ कि "भगवान की कोई जाति, पांति या धर्म नहीं होता और न ही कोई स्वरुप" ! बस एक आम इन्सान कभी भी किसी के लिए मसीहा, फरिस्ता बन सकता है।

   अवधेश नगाइच 

Tuesday, May 5, 2009

अपना बचपन याद करें


याद आता है मुझे अपना बचपन जब पिताजी के कन्धोंपर बैठ कर मेला देखने जाती थी,पिताजी की पीठ पर बैठ कर यमुना नदी में तैरना सीखती थी।मां परियों की कहानी सुनाकर हमें प्यार से सुलादेती  थीऔर सुबह उठ्ने पर अपने तकिये के नीचे मिठाई देख कर मुझे पूरा विश्वास हो जाता था कि रात को परी मेरे पास जरूर आई होगी।पूरा दिन मैं खुश खुश रहतीऔर रात का इंतजार करती।

वो दिन भी क्या दिन थे जब इतने प्यार से हम बच्चों को पाला जाता था।पिताजी की कम आमदनी मेंभी हमेंवह सब कुछ मिला जो हमने चाहा।सच मैं बहुत भाग्यशाली हुंजो मुझे माता पिता का भरपूर प्यार मिला।

पर आज जब बच्चों को प्यार के लिये तरसते और मांपिता के गालियां सुनते देखते हुंतो मन को बहुत चोट लगती है

\ऐसे सभी बच्चोंको मेरा बहुत बहुत प्यार।मेरे दुनिया मेंसभी बच्चोइं का बहुत बहुत स्वागत ह