Wednesday, November 16, 2011

सब कुछ

सब कुछ वैसा ही
जैसा पहले हुआ करता था ।
बस मर गई है सम्वेदनाये
ठंडे पड्गये है अरमान
और बुझ से गये है चेहरे।
स्वार्थी लोगो के दोगले व्यक्तित्व
दुतरफा बाते ,पीठ मे धंसी कटारे
और मोथरी होती हमारी बाते
सब जेहन मे चित्र लिखित सा
ज्यो का त्यो अंकित है ।
जबकि करोडोपल गुजर चुके
टनो सांसो की आवाजाही
और सूरज भी निकला हर रोज ।
शिथिल और स्तम्भित् से हम
सब के साक्शी तो बने
पर कर ना पाये कुछ भी
बस यू ही मूढ से बैठे
दर्शक बने ताकते रहे
चित्रलिखित से बैठे रहे
और झेलते रहे अपने कहे
जाने वालेअपनो के
निर्मम प्रहारो को ।

Saturday, September 3, 2011

कहाँ हो मेरी माँ ?

हाँ माँ आज फिर वही सब आँखों के आगे घूम रहा है | आपकी डूबती साँसें और हमारा डाक्टरों से बार- बार आपको बचा लेने का पुरजोर आग्रह | और फिर एक साथ सब कुछ समाप्त हो गया | हम रोते रहे पर न आपको कुछ सुनना था और न ही हमें चुप कराना था| बस सब कुछ समाप्त और हम बच्चिया आपके कलेजे की टुकड़े मा और पिता के साये से मरहूम हो गए |
शायद हमारा और आपका इतना ही साथ लिखा होगा| अब यदि कुछ कहना भी चाहे तो किससे कहें ,अब हमारी माँ तो शेष नहीं और माँ का विकल्प कुछ नहीं होता| पर आपकी यादों से हम आज भी भरे पूरे हैं | आपने जितना दिया वही हमारा पाथेय है| हर संकट में आपकी शिक्षाएं ही हमारा मार्ग दर्शन करती हैं|और यह दुनिया तो आज भी वैसी ही निर्मम और कठोर ही है जैसी आपके सामने हुआ करती थी| अच्छा ही हुआ जो आपने हमें चरित्र की द्रढता दी | नैतिक मूल्यों का पाठ पढ़ाया वरन आज के स्वार्थ की आंधी में हम तो कब के फिसल गए होते | और सुनो माँ कल तक जो किनारा करते रहे आज बड़े हमदर्द बन कर सामने आये है पता नहीं ये सब बहुरूपिये हैं या उनके मन वाकई बदल गए हैं ?जिनको सदा हम अपना मानते रहे ,जिनके लिए अपना सब कुछ सोंप दिया आज वही नज़रे चुरा रहे हैं | कभी तो लगता है शायद हमारी पढाई सैद्धांतिक ज्यादा हो गयी और हम दुनियादारी से अन्जान रह गए | पिताजी कहते थे कि बेटा खूब पढ़ो और आगे बढ़ो | आज पिताजी होते तो जरूर पूछती पिताजी इस दिनिया में पढाई भी कई किस्म की होती है हमने जो पढ़ा और उसे जीवन में उतारने लगे तो लगा दुनिया में कोइ बहुत बड़ा तूफ़ान आगया| शायद गांधीजी को पढाना तो ठीक था पर उनके आदर्शों पर चाकर तो सभी दुश्मन हो गए लगते हैं | पर माँ जब से अन्ना की जीत हुई मुझे फिर लगाने लगा कि मेरे माता अपनी जगह ठीक थे और उनहोंने हमें जो दिया उसके सहारे भी जन्दगी बिताई जा सकती है| पिताजी तो यही कहते बेटा राम और्क्रश्ना की बाते करती हो तो उनके जितने कष्ट सहने की हिम्मत भी पैदा करो|
माँ वैसे तो सब ठीक है और सभी अपनी परिस्थितियों में सहज बने हिउए हैं | बस कभी कभी बहुत मन होता है कि एक बार आप और पिताजी आजाते तो अपने मन की सभी बातें कह सुन लेती\ जब भी जन्म मिले आप ही मेरे माता-पिता के रूप में हो |

Monday, June 13, 2011

आपका बच्चा कैसे खेल खेलता है ?

हम सभी अपने बच्चों की पढाई को लेकर बहुत चिंतित रहते हैं पर क्या कभी आपने गौर किया है कि आपका लाडला अपने बचपन में किस प्रकार के खेल खेलता है |ये आलेख लिखते -लिखते मुझे अपना बचपन याद आगया और मैंने वे सभी खेल यहाँ लिख दिए जो हम खेला करते थे| शायद आप भी बच्चों के लिए इसमें से कुछ चुन ले | वैसे तो आज के मॉडर्न युग में इतने बड़े-बड़े समर केम्प लगा दिए जाते हैं कि हम सभी अपने बच्चों को वहीं भेजने में अपना बडप्पन मानते हैं| पर अब भी कुछ खेल बाकी है जिनको खिलाकर हम अपने बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास कर सकते हैं |
1. पोसमपा भई पोसमपा
पोसम पा भई पोसम पा
डाकियो ने क्या किया
सौ रुपये की घड़ी चुराई
अब तो जेल में फंसना पडेगा
जेल की रोटी खानी पड़ेगी
जेल का पानी पीना पडेगा
अब तो जेल में रहना पडेगा|
2. तितली तितली रंग दे |
कैसा
मन चाहे जैसा
लाल
बच्चे लाल रंग की वस्तुओ को छूकर बताएँगे |
ऐसे ही सब रंगों का नाम लेकर बच्चों को रंगों की जानकारी देंगे |
३. सभी बच्चे छोटा गोला बनाकर घूमेंगे|
एक बच्चा बाबा बनेगा |
सभी बच्चे उससे पूछेंगे|
बाबा बाबा कहाँ जारहे
गंगा नहाने
गंगा तो ये रही
ये तो छोटी है
एक पैसा डाल दो
बडी हो जाएगी |
(बाबा बना बालक उसमें पैसा डालेगा और बच्चे गोले को बड़ा कर लेंगे|) आओ मिलकर गंगा नहाएं |
४. बच्चे अपनी मुठ्ठी एक दूसरे की मुठ्ठी के ऊपर रख लेंगे|
(बच्चे गायेंगे )
बाबा बाबा आम दो
( एक कहेगा )
आम है सरकार के
(सभी बच्चे )
हम भी हैं दरबार के
(पहला बच्चा कहेगा)
एक आम उठा लो
( सभीबच्चे आम उठा कर)
ये तो खट्टा है
दूसरा उठा लो
मीठा है मीठा है
मेरा आम मीठा है |
५. पक्षियों का नाम लेकर कहेंगे तोता उड़ ,चिड़िया उड़|
बीच –बीच में जानवरों का नाम लेकर कहेंगे- गाय उड़,कुत्ता उड़ | यदि बच्चा जानवर के नाम पर भी अपनी अंगुली उठा देता है तो वह खेल से निकल जायेगा|
६, सभी बच्चे अपना अपना हाथ जमीन पर रख लेंगे | एक बच्चा सभी के हाथों को छूता हुआ गाना गायेगा
अटकन बटकन दही चटकन वन फूले बंगाले
मामा लायो सात कटोरी एक कटोरी फूटी
मामा की बहू रूठी
काहे बात पे रूठी खाने को बहुतेरो
दूध दही बहुतेरो |
राजा के भयो लड़का
बिछा दे रानी पलका
अंतिम शब्द जिसके हाथ पर आएगा वह खेल में निकल जाएगा ऐसे करके सबसे बाद में जो बच्चा रह जाएगा सभी लोग उसके हाथों पर चपत मारेंगे उसे अपना हाथ बचाना होगा | इसी प्रकार खेल खेला जाएगा |
७. इन खेलों के अतिरिक्त गेंद के खेल (सेका सिकाई ,गिट्टी फोड ,सात टप्पे) ऊँच-नीच ,किल किल कांटे,नीली पीली साड़ी ,खो-खो ,रस्सी कूद ,गुटके ,स्टापू (जमीन पर आकृति बनाकर उसके खानों में गोटी डालना )अन्त्याक्षरी ,संज्ञा शब्द खेल (नाम-व्यक्ति, वस्तु, शहर,जानवर,पिक्चर )पर्ची खेल ( राजा, वजीर, चोर, सिपाही )छूहा छाही ,विष अमृत ,गुड़िया-गुड्डे के खेल ,केरम,साँप -सीढ़ी,लूडो ,पतंग,गुल्ली डंडा, कंचे गोली अवश्य खिलाए जाए | ये खेल बच्चों के शरीर को स्वस्थ रखते हैं साथ ही उनकी मानसिक क्षमता में वृद्धि भी करते हैं|बच्चे अनुकरण से सीखते हैं | कई बार वे अपने खेलों का निर्माण खुद कर लेते हैं जैसे डाक्टर बनकर सुईं लगाना और दवाई देना , टीचर बनकर बच्चों को पढ़ाना ,माता पिता बनकर उनके जैसा व्यवहार करना ये सभी खेल बच्चे स्वयं निर्मित करते हैं और अपने को अभिव्यक्त करते हैं |अपने बच्चों के बचपन के खेल देखकर हमें उनकी रूचि पता लगती है | कुछ बच्चों को कला बनाना बहुत पसंद है तो कुछ बच्चे अपने बेग में अपना खजाना रखते हैं मसलन चूड़ी के कुछ टुकड़े, कुछ तस्वीरें, कुछ कंचे कुछ टूटी पेंसिलें जो माता पिता और टीचर की निगाह में कूड़ा हो सकती हैं पर बच्चे को अपना ये खजाना बहुत प्रिय होता है बल्कि कहें कि वे इसे अपना राज्य मानते हैं और हम बड़े उस बच्चे के उस बेशकीमती खजाने को कूड़ा समझ कर फेंक देते हैं|मैंने भी कई बार ये गलती की कि जब बच्चों का बेग देखती थी तब उनकी बेशकीमती चीजों को बड़ी निर्ममता से फेंक दे देती थी| इस बार प्रयास के एक बच्चे ने बड़ी मासूमियत से कहा दीदी क्या आपको पता है कि जो सामान आपने फेंक दिया वह मैं ने कितनी मुश्किल से ओदा था | सच ही हमें बच्चों के प्रति अपना नजरिया बदलना होगा | अब इतना ही | शेष अगली पोस्ट में

Sunday, May 8, 2011

मैं और माँ

हाँ माँ न जाने मुझे बार-बार यही लगता है कि मैं आप जैसी माँ नहीं बन पाई | पता नहीं कहाँ चूक हुई और कैसे हुई मुझे अहसास तक नहीं हुआ और अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत| आपने कभी हमें मारा नहीं पर आपकी डाट ही हमारे लिए बहुत बड़ी सजा होती थी| आज जब बच्चे अपने- अपने दायित्व की दुनिया में सिमट गये हैं तो लगता है जैसे हमारा कोना खाली होगया| पर माँ मुझे तो आधी उम्र पार कर लेने पर भी हर समस्या को सुलझाने में आप ही याद आती हो| हम तो पाँच बहिने थे किस कुशलता से आपने घर को सम्भाला इसका अहसास तो आज होता है जब दो बच्चों की परवरिश में भी चूक हो जाती है | अब समझ आता है आप की तीसरी निगाह हमेशा हमारी पीठ पर क्यों टिकी रहती थी| मम्मी शायद आज के बच्चे ज्यादा व्यावहारिक हो गये हैं| वे अपना भलाबुरा हमसे अच्छी तरह जानते होंगे|कितनी तो बातें है जो आपसे शेयर करना चाहती हूँ | और रिश्तों की दुनिया तो इतनी तेजी से बदली है कि स्नेंगी तो आप भी अचरज में पड़ जायेंगी| जो कल तक सीधे मुँह बात नहीं करते थे आज वे बादल झमाझम बरस रहे हैं| शायद उस लोक में आपको कुछ शक्तियां जरूर मिली हैं |कभी कभी तो रिश्तों का ये व्याकरण मुझे समझ नहीं आता तो छोटी से पूछती हूँ | कब छतीस तिरेसठ हो जाए कोई नहीं जानता| मुझे ध्यान आता है आप कहा करतीथी नवन नीच की अति दुखदाई तो अब मै सतर्क तो हूँ |
और सुनाओ माँ, वहाँ की दुनिया कैसी हैं, क्या वहाँ भी छल कपट और गन्दगी है या सभी लोग चैन की वंशी बजाते हैं |
क्या कहा ,सब कुछ ऐसा ही है जैसा यहाँ था | अरे माँ ऐसा तो होना ही था | वहाँ भी तो ये ही पड़ौसी बसते होंगे जो यहाँ थे| तो फिर कहीं चले जाओ अपनी अकल से ही काम लेना पडता है|लोग तो कहते हैं आज की माँ सुपर मोम बन गई है पर मुझे लगता है वह एक अच्छी कार्यकत्री तो जरूर हो गई है पर वात्स्ल्ट का वितरण सही तरह से नहीं कर पा रही है| यदि हमारे बच्चे गलत रास्ता पकडे तो क्या हम उन्हें रोकेंगे नहीं पर आज तो यह सिस्टम ही खतम हो गया है कहा जाने लगा है बच्चे हमसे अधिक समझदार है वे अपना भला बुरा सब समझते हैं |क्या माता पिताआउट डेटेड हो गये हैं | तो चलो ऐसा ही सही हमने तो अपनी जिम्मेदारी निभादी अब उनकी बारी है और माँ ए माँ तो यही चाहती है न कि उसके बच्चे जहां रहे खुश रहे तो माँ मैंने भी यही धीरज धार लिया है कि हमारा क्या .जैसे इतनी कलात गई शेस भी काट जायेगी|पर अपने स्वार्थ के लिए बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड तो नहीं कर सकते| आखर हम माँ जो ठहरे| हमेशा बदली परिस्थितियों से समझौता बिठा ही लेते हैं |
माँ दिवस पर तुम्हें ढेरों शुभकामनाएं |
जब तक आप ज़िंदा थी हम जानते ही नहीं थे कि माँ दिवस भी होता है हमारे लिए तो हर दिन की शुरुआत ही माँ से होती थी और जब आप आज यादों के पटल पर हो ये दिन मुझे बहुत याद आता है| है|

Sunday, April 24, 2011

प्रत्यावर्तन

बदलती घटनाओं से
कभी चमत्कृत होती
तो कभी संशय में आजाती हूँ|
दरअसल घटनाएँ जिस रूप में
मोड लेरही हैं आजकल
उसे क्या नाम दूं |
बरसों के भटके रिश्ते
बड़ी आत्मीयता जता रहे हैं
और वे नाते जिन्हें
इतने यत्नों से पाला पोषा
आज नज़रों से ओझल
होते जा रहे है|
मानो अब उनका टर्म
समाप्त होरहा हो |
आदतन सहज विशवास
कर ही लेती हूँ
बड़ी से बड़ी घटना पर|
पर रिश्तों का ये प्रत्यावर्तन
मुझे उलझन में
उलझा रहा है |
और मै अवश सी सब कुछ
ऐसे स्वीकारती हूँ
मानो ये सब नियति का हिस्सा है |
औरमुझे अब ये ही रोल अदा
करना है |

Thursday, April 14, 2011

कब तक पुकारू ?

ये कैसी कठिन परीक्षा
मेरे प्रभु
मैं तो पुकार- पुकार
कर थक चुकी
पर तुम न आये |
मेरा विश्वास
अभी भी
जस का तस है
कि
प्रभु सच्चे मन
की पुकार सुनते तो जरुर होंगे|
पर अब तो गले से बोल भी नहीं फूटते
मैं शांत,अविचल और निश्चिंत
आज भी तेरी ही
राह तकती हूँ
क्या पता न जाने
कब और कहाँ से तेरा
आगमन हो
और मुरझाई बेल
फिर से पल्लवित हो जी उठे|

Friday, April 1, 2011

हम कौन खेत की मूली है ?

रुकावटें नहीं हटतीं तो न हटें
सफलताएं नही मिलतीं तो न मिलें
अपने पराए होते हों तो होते रहें
खजाने खाली होते हों तो हुआ करें
दोस्त मुँह फेरते हो तो फेरते रहें
मुझे सच में कुछ भी बुरा नहीं लगता |
बस मेरा विश्वास
मेरी मान्यताएं
मेरे संस्कार
मेरी लेखनी
मेरा उत्साह
मेरे आदर्श
मेरा सकारात्मक सोच
कहीं भी और किसी भी परिस्थिति में
मेरा दामन न छोड़े|
चलती रहूँ सत्यपथ पर
न सूखे मेरी ममता का स्रोत|
और कम से कम हिम्मत
तो जबाव न दे
तो देखना ये छोटी छोटी बाधाएं
ये गहराते से संकट
ये लम्बी चुप्पी
ये दोगली सामाजिकता
ये दोहरे व्यक्तित्व
भला क्या बिगाड़ पायेंगे
सिवाय इसके कि स्वयं ही
अडिग पत्थरों से
टकरा- टकरा कर
खुद अपना अस्तित्व खो दें|
और सच ,
गर्वोन्नत सच
अपनी तेजोमय गरिमा के साथ
अपनी धारदार प्रखरता के बल पर
फिर से प्रतिष्ठित
होगा इस भूतल पर |
धैर्य तो रखो बंधु
ज़रा विश्वास तो रखो|
जब राम ,मर्यादा पुरुषोत्तम राम
अकारण ही चौदह वर्ष
का वनवास झेलते हैं |
और पांडव वन-वन मारे फिरते हैं
योगीराज कृष्ण के जन्म से पूर्व
ही कंस क्रूर बन जाता है|
विवेकानंद और दयानंद भी
नहीं बखसे जाते तो
भला हम कौन
खेत की मूली है ?

Sunday, March 20, 2011

होली का आना

कब से तो बाट जोह रहे थे तेरी होली कि तू जल्दी से आजा| कितने रंग है जो तेरी प्रतीक्षा में सूखे जा रहे है|अरे साल भर का त्यौहार होता है बर्षों से सुनते आरहे है कि कमसेकम आज केदिन तो सब पुरानी दुशम नी भुला कर गले मिलजाना चाहिएऔर गाना भी गाते है कि दुश्मन भी गले मिल जाते है और फिर एक और रसिया के बोल कान में पड़ते हैं आज ब्रज में होली में रसिया| सारे के सारे टी वी चेनल दिन रात होली के रंगारंग प्रोग्रामों से अटे पड़े है |जो वास्ताविक हो ली नहीं खेल पारहे वे अपनी हाईटेक की आभासी दुनिया में मस्त है| बाजार भी भरे पूरे है| मतलब होली अपने पूरे आगाज के साथ आई है| कल होलिका दहन पर पूरी कोलोनी वाले इकठ्ठे तो हुए |सबने मिलबांटकर प्रसाद भी खाया और आज सुबह भी पार्कमें दूसरों पर गुलाल अबीर चन्दन लगाते लगा कि बस सब आपसी वैरभाव भुलादिए गए है बस अब तो रामराज्य आया ही समझो | मन खुश हो गया चलो इतने सालो बाद ही सही अब होलीहोली सी तो लगी पर ये सब तो मैं सपना देख रही थी |नीद टूटी तो देखा तो सब रोज जैसा ही था |थोड़ी देर के लिए सबने मुखौटे पहन लिए थे| सब हंसने और खुश होने का नाटक कररहे थे |दरअसल ये लोग गले नहीं मिल रहे थे बस औपचारिकता पूरी कर रहे थे और बहने वे तो दस कदम आगे थी |एक दूसरे के मुँह से तीसरे की बातें की जा रही थी| कोई इस से ही संतुष्ट था कि चलो अब कम सेकम मिल तो रहे है |धीरे -धीरे सब ठीक हो जाएगा| इस पूरे आयोजन में एक ऐसा व्यक्ति भी थी जो मिस्टर मखीजा के यहाँ किराए पर आया था |उसने अभी-अभी अपना गाँव छोड़ा था और उसके मन में अपना अतीत हिलोरे मार रहा था | जब हम तथाकथित कहे जाने वाले सभी लोग अपने होलीमिलन समारोह में मस्त् थे तो वह्सज्जन बहुत गंभीरता से हमारेव्यवाहार को नोट कर रहा था | अभी कुछ देर पहले ही त्रिपाठी उठ कर गया है और कुछ ऐसे सवाल मेरी बैठक में छोड़ गया है जिनके उत्तर मैं खोज रही हूँ |बिट बीन द लायन जो उसने अनुभव किया उसी के शब्दों में रख रही हूँ -दीदी क्या आपको ऐसा नहीं लगा कि सब लोग एक डिस्टेंस मेंटेन कर रहे थे?आपस में सौहार्द नहीं था और कोई किसी के गले तो मिला ही नहीं |बस माथे पर गुलाल लगाकर औपचारिकता पूरी कर ली गई| न कोई हंसा न किसी ने ठिठोली कि और सभी यह कहते हुए अपने -अपने घरों में चले गए कि टीवी पर कार्यक्रम आरहा होगा| किसी को मेच देखाना था तोकिसी को अपने मन पसंद सीरियल छूट जाने का भय सता रहाथा | न तो आप लोगो ने कोई होली गाई और नहीं आपसी संवाद हुए| आपके यहाँ ऐसे ही होती है होली| इसी को कहते है आप होली मिलन समारोह|उससे अच्छा तो मुझे आपके यहाँ बैठकर लगा जहां आपने और सर ने होली से जुड़े इतने सारे तथ्य तो उजागर किए | दीदी जो हम पांच के मध्य आज हुआ कल पचास के बीच क्यों नहीं घट पाया | यदि सारे बुजुर्ग नई जनरेशन को होली का औचित्य समझा पाते तो आज के ये नन्हे मुनन्ने कम से कम अपनी संस्कृति से परिचित तो हो पाते | जब मैंने धीरे से अपनी बात रखी भी तो सभी ने उसे हंसी में उड़ा दिया- अरे त्रिपाठी ये सब तो टीवी सीरियलों से बच्चे जान ही लेते हैं |फिर गूगल सर्च करके सब जान जाते है |रही बात होलीगाने की तो सब सीडी में मिलता है| इस सबसे तुम इतने परेशान क्यों हो| दुनिया को दुनिया की तरह लेना सीखो|
सच ही कह गया वह नवागत कि जब सब कुछ रेडीमेड मिलने लग गया है तो हमारे बच्चे भी हमें रेडीमेड व्यवहार देने लगे तो न तो हमें व्यथित होना चाहिए और न हीं हमें अपसंस्कृति का रोना रोना चाहिए|

Tuesday, March 8, 2011

क्या आज ही महिला दिवस है ?

आप कहते हैं तो मान लेते हैं कि आज ८ मार्च है और यह दिन हम महिलाओं के नाम समर्पित है पर लगता तो नहीं कि महिलाओं का भी कोई दिवस होता है| वही हर रोज जैसी सुबह है, दिन भी कमोवेश वैसा ही बीत जाएगा और रात उसे तो बीतना ही होता है | आज मेरी सेविका ने पूछा कि दीदी आज क्या त्यौहार है? बेटी कह रही है कि माँ आज तो अखबार में लिखा है कि महिला दिवस है | क्या आज मेरा मर्द मुझे दारू पीकर नहीं पीटेगा और क्या आज मुझे काम से भी छुट्टी मिलेगी| कम से कम एक दिन तो हमें भी आराम का मिलना ही चाहिए| हमारा भी तो मन होता है कि बरस दो बरस में कभी अपने मन का करें | क्यों क्या तुम रोज दूसरे की मर्जी से जीती हो |अब उसका मुँह खुल ही गया- अरे जब से माँ की कोख में आए हैं तब ही से हमें खतम करने की पूरी की पूरी साजिश रची गई पर शायद तब मोड़ा मोडी की जांच के साधन नहीं होते होंगे तभी तो मैं इस संसार में आ गई| पली, बड़ी पर सब कुछ चुपचाप होता रहा न मन में कोई उल्लास था और न कोई उमंग| अभी दस साल की भी नहीं हुई कि अम्मा को मेरे ब्याह की चिंता लग गई| हमेशा यही सुनाती रही तू तो पराये घर की अमानत है| जितनी जल्दी अपने घर पहुँच जाए तो हम गंगा नहाले |बापू को भी हमेशा यही कहते सुना तेरे हाथ पीले कर दू तो चिंता दूर हो जाए| मै तो जब से जन्मी माँ बाप के लिए चिंता ही बनी रही| ये १४ सालके होंगे और मैं १२ बरस की तब मुझे घर से विदा कर दिया गया| ससुराल पहुँच कर सोचा अब तो अपने घर आगई | पर भेद तो बाद में खुला कि ये घर भी मेरा नहीं था यहाँ भी सास कहती रही अरे पराये घर से आई है | चार पांच बालक हो गए मर्द की कमाई से घरखर्च पूरा नहीं होता तो खुद भी काम ढूढ़ लिया पर अभी तक कुछ भी नहीं बदला | अब लडके कहते है कि लडकियों को पढाने लिखाने की क्या जरूरत है जल्दी जल्दी लड़का देख कर ब्याह दें अपने घर जाए क्या जरूरत है पढाने लिखाने की बस चूल्हा चौका का काम सिखा दे | अभी तक तो मैं अपने कारण ही परेशान थी पर अब बेटियों का दुःख खाए जाता है | सभी मर्द एक जैसे ही होते हैं कौन सा लड़ाका देखू सबको इक ही बात सिखाई गई है कि औरत तो पैर की जूती है बस दान्त्मार कर काबू में रखो हाथ से निकल नी नहीं चाहिए ज्यादा खिलाने पिलाने की कोई जरूरत नहीं मोटी होगी तो ब्याह में परेशानी | दीदी अब आप ही बताओ कि मैं किस दिन को महिला का दिन समझू ये आप बड़े लोगों के चोंचले होते होंगे हमारे लिए तो जैसी ८मार्च वैसे ही और दिन |
मैं समझ नहीं पा रही कि कि मैं उसे क्या जबाब दूं | किन प्रगतियों को गिनाऊ और कौन से झूठे आश्वासन दूं बस इतना ही कह पाई देख जब तेरी बिटिया पढ़ लिख लेगी तब तुझे इन बातों के अर्थ समझ आयेंगे| किताबोंमें सब लिखा होता हैकि क्या सच है और क्या झूठ | उसको तो मैंने विदा कर दिया |\,पर मैं अपने मन को ही नहीं समझा पारही कि क्या वाकई महिला दिवस पर हम कुछ विशेष हो जाते हैं |यदि शिक्षा ही हमारे अंदर बदलाब लापाती तो आज भी आम औरत को घरेलू हिंसा का शिकार क्यों होना पढ़ता? क्यों लग्भ्स्ग रोज ही मासूम बच्चियां बलात्कार की शिकार होती और न ही यह समाज अपनी आधी आबादी के साथ इतना अमानवीय हो पाटा / प्रश्नोंके उत्तर तो मेरे भी पास नहीं हैं पर मैं इन प्रश्नों से स्वयं को बहुत ही घिरा महसूस कर रही हूँ ? हो सकता है आप मेरी कुछ सहायता कर सकें मेरे इन सवालों का यह अर्थ कतई नहीं है कि हम महिला दिवस पर खुश न हो और नकारात्मक सोंचें पर हम यह विचार अवश्य करें कि आखिर यह आधा अधूरा ज्ञान हमें कहाँ ले जारहा है?

Friday, February 25, 2011

अध्यापक शिक्षा और मूल्य बोध

अध्यापक शिक्षा और मूल्य बोध
जे. कृष्णमूर्ति के शब्दों में –"जानकारी इकठ्ठा करना और तथ्यों को बटोरकर आपस में मिलाना ही शिक्षा नहीं है,शिक्षा तो जीवन के अभिप्राय को उसकी समग्रता में देखना-समझना है|-----पूर्णत: समन्वित प्रज्ञाशील मनुष्य तैयार करना है|परीक्षा और उपाधि प्रज्ञा का मानदंड नहीं है|"उक्त सन्दर्भ
उक्त सन्दर्भ में आज की शिक्षा हमें बौद्धिक और सूचना-संपन्न भले ही बना रही हो परन्तु यह भी सच है कि हमने संवेदना की कीमत पर बुद्धि का विकास किया है|शिक्षा देने का काम शिक्षक का है और एक सच्चे शिक्षक के लिए अध्यापन तकनीक नहीं ,वह उसकी जीवनपद्धति है |क्या हमने कभी उन कारणों को तलाशने की कोशिश की है जिनके कारण शिक्षा मूलभूत शैक्षिक मूल्यों की अपेक्षा से दूर होती जा रही है ?निश्चित रूप से हमने बहुत सी पुस्तकें पढ़ी हैं ,उन सूचनाओं को याद भी कर लिया है ,परीक्षाएं भी पास कर ली हैं ,हमारे पास बहुत सारी उपाधियां भी हैं और इन उपाधियों ने हमें जीविका के साधन भी उपलब्ध करा दिए हैं|इसका अर्थ है यदि शिक्षा रोजगार के लिए थी ,तो हम निश्चित रूप से सफल हुए हैं| पर यह भी उतना ही सच है कि आज हम मशीन तो हुए हैं पर मनुष्यता कहीं बहुत पीछे छूट गई है|हमारी संवेदना दिन-प्रतिदिन मरती जा रही है|हमारे पास भौतिक सम्रद्धि तो अपार है पर हमारी संस्कृति ,हमारे मूल्य ,हमारे आपसी सम्बन्ध ,हमारी जड़े खोखली होती जा रही हैं और आज का सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यही है |
शिक्षा देने का कार्य मुख्य रूप से शिक्षक का है | शिक्षक एक निश्चित पाठ्यक्रम और निश्चित शिक्षण विधि के अनुसार एक सिस्टम में बंधकर अपना कार्य करता है||उसे केवल उतना करना है जितना उसके लिए निर्धारित है||वह उड़ाका.गोताखोर अथवा तैराक के रूप में अपना कार्य करता है जबकि आज की परिस्थिति में उसे स्वयं को रूई धुनने बाला धुनिया और कुम्हार के रूप में प्रस्तुत करना होगा|दर असल मूल्य शिक्षा केवल किताबों का विषय हो ही नहीं हो सकती, उसे तो व्यवहार में दिखना चाहिए|समय का मूल्य सिखाने के दो उपाय हो सकते हैं |पहला आप छात्र को यह वाक्य याद करने को देंदे और दस पांच बार लिखवा लें और दूसरा उपाय है आप स्वयम दैनिक जीवन में इस आचरण का पालन करें |
केवल नोट्स और मोडल पेपरों से काम ना चलायें,मूल ग्रंथों का अध्ययन करें|
इंटरेक्टिव मेथोडोलोजी को अपनाएँ |हम मूल्यों को संप्रेषित करने के लिए पहले स्वयं तो संवेदित हो|बदलते परिवेश में मूल्यों की निश्चित दिशा तो तय करें|अब परिवेश में भौतिक संसाधन ही तो बदले हैं ,उनके साथ हम मूल्यों को कैसे नकार सकते है?वैसे भी शाश्वत मूल्य तो कभी नहीं बदला करते,हाँ,उस तक पहुँचने के साधन और कर्मकांड जरूर बदल जाते हैं|
यदि हम चरित्र और व्यक्तित्व को स्थान ही नहीं देते ,तो प्रत्येक स्तर पर हमें इतने चरित्रों के अध्ययन की क्या आवश्यकता थी?किसी भी परिस्थिति में हमारा द्रष्टिकोण
और निर्णय बहुत मायने रखते हैं|शिक्षा जीवन को दिशा देने के लिए होती है,उसे भटकाव में छोड़ने के लिए नहीं|
इन विषम परिस्थितियों में भी हम असमर्थताओं में नहीं ,भरपूर संभावनाओं में घिरे हैं|ईमानदारी,बहादुरी,सत्य,दया,सहानुभूति,परदुख कातरता ,क्षमा ,अस्तेय ,क्या इन मूल्यों की वर्तमान में आवश्यकता नहीं बची है,क्या ये मूल्य अपने अर्थ खोते जा रहे हैं?मेरा विचार है नहीं,आज भी इन शाश्वत मूल्यों का महत्त्व कम नहीं हुआ है|यदि ऐसा होता तो शिक्षा जगत के लिए तारें जमीन पर, थ्री इडियट , और मुन्ना भाई की फ़िल्में इतनी सामयिक ना होती|अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा आयोग जिसके अध्यक्ष जाक डेलर्स थे ,ने अपनी रिपोर्ट ज्ञान का खजाना में स्पष्ट रूप से संकेत दिया है कि जीवन भर चलने
वाली शिक्षा मुख्य रूप से चार स्तंभों पर टिकी होती है-१.जानने के लिए ज्ञान २.करने के लिए ज्ञान ३.साथ रहने के लिए ज्ञान और४.होने (अस्तित्व ) के लिए ज्ञान |
शिक्षा का उद्देश्य निश्चित ही रोजगार स्रजन है पर शिक्षा हमें बेहतर मनुष्य भी बनाए जिसमें मानवीय गुण हों तथा विश्व को बेहतर ढंग से रहने वाली जगह बनाए|यदि ह्रदय सच्चा है तो चरित्र होगा|चरित्र के साथ घर में शान्ति होगी और जहां घर अच्छे हैं ,उससे राष्ट्र और विश्व प्रभावित होगा|
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Posted by beena at 3:59 PM

Tuesday, February 22, 2011

हमें जाना कहाँ है ?

अरे भाई ,जब किसी वाहन में बैठते हो तब भी कंडक्टर पूछता है टिकिट कहाँ का काट दूं और आप झट से अपना गंतव्य, अपनी मंजिल बता देते हैं तो फिर इस जीवन के लिए आपने कोई मंजिल निश्चित ही तय की होगी ,आपको अपने लक्ष्य भी बहुत स्पष्ट होंगे और आप सही रूट की बस भी पकड़ना चाह रहे होंगे |पर यह इतना आसान कहाँ है? आज तो स्थिति यह है कि बनना कुछ चाहते हैं पर पढाई किसी ओर दिशा में कर रहे हैं| कभी कम्प्यूटर ,तो कभी मीडिया ,कभी साहित्य में हाथ आजमा ते हैं तो कभी दुकान खोल लेते हैं | कभी हम टीवी कलाकार बनाना चाहते हैं तो कभी डांसर, कभी गायकी में हाथ आजमा लेते हैं तो कभी- कभी लेखन भी शुरू कर देते हैं | आज के विद्यार्थियों से बातें करते हुए मुझे ऐसे अनुभव अक्सर हो रहे हैं | उनको यह नहीं पता होता कि हमें अपने जीवन में क्या करना है ,अपनी कोई रूचियाँ नहीं, बस बदलती दुनिया के साथ रोज रंग बदल लेते हैं | कभी एम.बी.ए जैसी उच्च शिक्षा पाने के बाद फिर सोचते हैं चलो अब आई.ए.एस. की तैयारी कर लेते हैं| कभी लगता है कि स्नातक परास्नातक तो बेकार की बातें हैं, चलो अब कोई प्रोफेसनल कोर्स कर लेते हैं फिर सोचाते है इसमें तो अच्छी कमाई नहीं चलो अब किसी ओर में हाथ आजमा लेते हैं | यानी कि हम आधी जिंदगी तक तो यही निश्चित नहीं कर पाते कि आखिर हमें करना क्या हैं|
बस हमारे सामने एक भीड़ है ,बहुमत जिधर चला जाता है उधर ही हम भ्रमित जाते हैं | हम कभी यह समझ ही नहीं पाते कि प्रत्येक व्यक्ति की अपनी प्राथमिकताएं हुआ करती हैं और उसे अपनी पारिवारिक परिस्थितियों के अनुकूल निर्णय लेने होते है| कोई जरूरी नहीं कि जो कार्य दूसरे के लिए लाभ का सौदा हो वह हमारे लिए भी हो | हमारी अपनी रूचिया, हमारा अपना परिवेश, हमारे अपने सरोकार बहुत मायने रखते हैं फिर दुनिया में कोई भी कार्य छोटा या बड़ा, अच्छा या बुरा नहीं हुआ करता| बुरा हुआ करती है हमारी नीयत, हमारा सोच, हमारे अपने कथन, हमारी अपनी विचार धाराए | आप जब भी किसी काम को अपने हाथ में लें पूरे मनोयोग के साथ और रूचि के साथ उसे पूर्ण करें सफलता अवश्य मिलेगी |
हम बहुत सारे कार्य अपने हाथ में ले लेते हैं -कुछ में हमारी रूचि नहीं होती कुछ दुनिया दिखावे और स्तर कोबनाये रखने के लिए जरूरी होता है और कुछ यूं ही बेमन से कर लिया जाता है| पर याद रखें सफल हम वहीं होते हैं जहां अपनी पूरी ताकत लगा देते हैं ,जो हमारी रूचि का काम होता है,जिसको करते हुए हम बोर नहीं होते ,जिसे करते हुए हमें आनंद आता है,समय यूं ही बीत जाता है और हमें पता भी नहीं चलता|
दुनिया के सारे काम .सारे रास्ते हमारे लिए खुले हैं |बस हम सबसे पहले अपनी प्राथमिकताए तो तय करें| हम अपने मन को जाने तो सही ,हम अपने विचारों को मान तो दें |हम अपने अस्तित्व को प्रमाणित तो करें |हम वही करें जो वास्तव में करना चाहते हों | हमें खुशी भी मिलेगी और हम अपने लक्ष्य में सफल भी अवश्य होंगे|

Monday, February 21, 2011

वह बूढ़ा नीम और मेरे बाबा जी

कुछ यात्राएँअचानक ही विस्मरणीय बन पडती है| कल ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ| मेरे चचेरे भाई के बेटे की सगाई का अवसर था | मैं और मेरी मेरी बहिन वहां पहुँच गए | वैसे भी हम दोनों ऐसे किसी भी अवसर को नहीं छोडते जहां हमारे अपने लोगों से मिलानाजुलना होताहो| | सब कार्यक्रम की चमक दमक में खोए हुए थे | मैंने भाई से कहा- भैया क्या हम अपना पुराना घर देख सकते हैं ?मुझे सपने में भी विशवास नहीं था कि भाई इतनी जल्दी मेरे इस प्रस्ताब को मान लेंगे | कुछ ही देर मैं हम उस अहाते में थे जहां मेरे पिता का बचपन बीता था और जहां मेरी माँ ब्याह कर आई थी\ वहाँ पहुंचते ही मुझे माँ की बताई छोटी-छोटी बातें बेहद याद आरही थी कि कैसे छत से गिरकर बाबा के प्राण छूटे थे और कैसे उस घर में चोरों के किस्से माँ ने हमें सुनाये थे|वह लिपा -पुता अहाता आज भी अपने गौरवशाली अतीत को बयान कर रहा था|
वहाँ दो भैंसे बंधी हुई थी और सालो पहले जैसा चित्रण माँ किया करती थी उसमें कोई भी बदलाब नहीं हुआ था | मैनें अपने बाबा को कभी नहीं देखा | मेरी बडी दीदी और भैया जब ५-६ साल के रहे होंगे तभी उनका देहावसान हो गया था| उस समय शायद फोटो खींचने का रिवाज नहीं होता होगा सो हमने बाबा को कभी चित्रों में में नहीं देखा था| बस बाबा जीवंत थे तो केवल माँ और पिता के द्वारा बताई गई घटनाओं में| उसी अहाते में एक बहुत- बहुत बूढ़ा नीम का पेड़ था| जब मैंने अपने ताऊ जी से पूछा कि क्या यह पेड़ पिताजी के समय भी था तो वहाँ खड़े एक बुजुर्ग बोले - लाली तेरे बाप के बाप यानी तेरे बाबा का लगाया हुआ पेड़ है यह | सच में मैं बहुत भावुक हो उठी और दोनों हाथों से कसकर उस बूढ़े पेड़ को पकड़ लिया और बाबा कहते हुए फफक उठी | किसी की समझ में नहीं आरहा था कि आखिर मुझे हो क्या गया है | मैं बीना जिसने कभी अपने बाबा को देखा तक नहीं ऐसा क्यों कर रही हूँपर सच बताऊँ न जाने मुझे ऐसा क्यों लगा कि मेरे बाबा अपनी पोती को सूखे पत्ते गिराकर आशीर्वाद दे रहे हों | वो स्पंदन मेरा पीछा आज भी नहीं छोड़ रहा | मन करता है बस उस अपने नीम बाबा के नीचे कुछ पल और गुजार लेती |मेरे अंधे बाबा अपने अंतिम समय में मुझे लेकर क्या कल्पनाएँ कर पाए होंगे मैं नहीं जानती क्योंकि उस समय तक तो मेरा अस्तित्व भी नहीं था |
पर हमारे पूर्वज हमेशा हमारे साथ स्सये की तरह बने रहते हैं | उस नीम बाबा को देखकर ही मुझे ख्याल आया कि पिताजी के हाथों लगा वह बूढ़ा पीपल शायाद्बाबा के नीम की ही प्रेरणा रहा होगा| सारी की सारी यादों ने अपने सभी पाठ खोल दिए है और मैं बाबली सी कभी इधर तो कभी उधर जाती अपने लगाए छोटे-छोटे पौधों अपनी संतानों के लिए बूढ़ा नीम और पीपल बनाने के स्वप्न देखने लगी हूँ कि कभी मेरे नाती-पोते भी इन पेडों में हमें अनुभव कर पायेंगे|

Saturday, January 29, 2011

मै आपकी ही बेटी बनना चाहूंगी |

मेरे अच्छे पिताजी ,
आज आठ वर्ष पूरे हो गयेआपको इस संसार को छोड़े | न जाने किस लोक में होंगे आप और पता नहीं मेरी बात सुन भी पायेंगे या नहीं |हमने संस्कार आपसे तो ही ग्रहण किए कभी आपने कुछ कहा नहीं पर आपका व्यक्तित्व सब कुछ कह देता | आपके चेहरे पर फ़ैली वह निशल मुस्कराहट किसी को भी प्रभावित कर देने के लिए काफी थी|किसी भी दुःख में आपको विचलित होते नहीं देखा| मुझे आज भी वह शाम याद है जब घर में छुटकी के बीमार होने पर हम सभी बहुत परेशान हो गए थे और आपको शांत और अविचिलित देखकर मैंने आपसे कहा भी था आप इतने शांत कैसे रह सकते है ?आपका उतनी ही गंभीरता से भरा जबाव था बेटा दुःख में हाथ पैर छोडने से काम नहीं चलता ,धैर्य रखो और प्रभू का स्मरण करो सब ठीक हो जाए गा | हम संसारी जीवो को उस समय आपका ये गीता जैसा सन्देश अखरा था पर आप कितना सही थे यह बाद में जाना | आपने ही तो सिखाया कि मुसीबत उतनी बड़ी नहीं होती जितना हम उसे आंक लेते हैं किसी समस्या का हल खोजना तो बुद्धिमानी हो सकता है पर उसको लेकर चिंतित होकर बैठ जाना कोई विकल्प नहीं| कितनी यादे आज मेरे जेहन में आरही है| लोग कहते थे कि शर्माजी ५ बेटियों के पिता है फिर भी कैसे मुसकाते रहते हैं |हाँ , पापा शायद आप के कंधे इसीलिए नहीं झुके क्योकि आपने अपनी पुत्रियों को संस्कारवान और मजबूत बनाया | पर पापा, हम बच्चिया आपके लिए बस एक लडकी ही बनी रही |कभी भी संतान होने के दायित्व की पूर्ति नही कर पाई| जो किया भी वह भी इस भाव के साथ कि जैसे कोई अहसान कर रहे हो|आपका अंतिम समय पास था पर हमने कभी भी आपको कमजोर पड़ते नहीं देखा |
कैसे कर पाते थे आप ये सब |दादी तो आपको ९ माह का ही छोड कर चल बसी थी और आपका बचपन इधर-उधर ही बीता |शायद अनुभव ने आपको समय से पहले ही गंभीर बना दिया |आपने अपनी सीमित आमदनी में कैसे हम सबको शिक्षित भी कर दिया| कभी किसी के आगे कभी हाथ पसारते नहीं देखा \सब को अच्छे घरों में ब्याह दिया |पर पापा हमने क्या किया|कभी आप से यह भी नहीं कह सके कि पापा अब आप आराम कीजिये ,हम सब सभाल लेगे |अरे कभी कुछ बाजार से ला भी दते थे तो ऐसा महसूस करते मानो हम बहुत बड़ा बोझ ढोकर लाये है |मैंने बहुत सोचा और अब मुझे लगता है कि फिर मैं आपकी बेटी बनकर ही जन्म लूंगी|

Sunday, January 23, 2011

चलो आज फिर लिखते हैं|

अभी तो नया वर्ष आया और अब यह छब्बीस जनवरी भी आ गई |पिछले पचास सालों से यही सब तो देखते आरहे हैं देश भक्ति का जज्बा जगाने वाले गीत गाये जा रहे हैं -मेरेदेश की धरती सोना उगले उगले हीरा मोती, तिरंगा फहराने की तैयारियां हो रही है तो अपना बचपन फिर यादों में घुस आया है | रंग-बिरंगी झंडियां तैयार करते हम कितने आनंदित रहा करते थे ,विद्यालय में वीर हकीकतराय का नाटक खेला जाता और हकीकतराय का संवाद बोलते-बोलते लगने लगता कि सच मनमें भी देश भक्त हूँ | विद्यालयों में जुलूस लिकाले जाते और हम बच्चे हाथों में झंडा लेकर भारतमाता की जय और बापू की जयजयकार करते | झांकिया निकाली जाती और घरों में सुबह से ही उत्सब का माहौल रहता माँ पिता भी अपने बच्चे की गतिविधियों में आनंद लेते थे\ महिलाए घरों के बाहर जुलूस देखने के लिए आजाती और पिताजी रेडियो और टीवी पर गणतंत्र दिवस की परेड देखते रहते | शायद तब हम सभी मानते थे कि यह हमारा राष्ट्रीय त्यौहार है और इसे हमें पूरे जोश खरोश के साथ ही मनाना चाहिए | लगभग दस दिनों तक हम कार्यक्रम की तैयारी करते रहते |और जब छब्बीस जनबरी पर हमें लड्डू खाने को मिल जाते तब कार्यक्रम का समापन होता और दूसरे दिन छुट्टी देदीजाती कि बच्चे बहुत थक गए होंगे|
अब देखती हूँ तो वो माहौल नजर नहीं आता | छोटे बच्चों को तो यह कहकर अवकाश दे दिया जाता है कि तुम्हारी छुट्टी है और विद्यालयों में होने वालो की कार्यक्रम की बानगी ऐसी है कि शर्म आजाती है | मै्ने भी बच्चों के लिए कार्यक्रम तैयार किए -कुछ देश भक्ति गीत थे दो नाटक थे झान्सी की रानी का कविता वाचन था ,संस्कृत में सरस्वती वन्दना थी और एकबच्चा कृष्ण की भूमिका में नृत्य के लिए प्रस्तुत था | कुछ लोग प्रयास में आये |उन्होंने बच्चों को अभ्यास करते देखा और अनायास कह बैठे क्या मेडम सब फीकाफीका हैमैने पूछा क्या कमी लग रही है आपको तो उन्होंने बड़ी सहजता से जबाव दिया -जब तक कुछ चटपटा न होजाए कार्यक्रम में मजा नहीं आता उनका आशय े मुन्नी बदनाम हुई और शीला कीजवानी से था | मुझे बड़ा क्षोभ हुआ कि बच्चों की जो उम्र संस्कारित करने की होती है हम उसे सुनने और देखने के लिए क्या देते हैं और फिर ठीकरा बच्चों के सर फोड देते हैं किबच्चे बिगडते जा रह हैं | हमारी तो आदत ही हो गई है आलोचना करने की |कभी यह नहीं सोच पाते कि बदलती हुई स्थितियों के लिए आखिर जिम्मेदार कौन है ?क्या राष्ट्रीय पर्व केवल औपचारिकता मात्र रह गए हैं ? न तो हम बच्चों को अपना इतिहास बताते हैं और न उनमें इन संस्कार डालने का प्रयास करते है |बस जब देखो तब एक रटा हुआ संवाद हमारे मुँह से अनायास निकल जाता है क्या करें अब माहौल ही ऐसा हो गया है |
अरे वैसा माहौल रचाने में क्या आप इम्मेबार नहीं है क्या आप समाज और देश के नागरिक नहीं फिर आप अपेक्सएं केवल दूसरों सही क्यों करते हैं अपने हिस्से के कुछ काम तो कीजिए कमसे कम गहर के माहौल को तो साफ़ सुथरा बनाने की कोशिश कीजिए जब आप ही चुनिन्दा कार्यक्रम नहीं देखते तोबच्चों से किस मुँह से कहेंगे | कुछ सोचिए आखिर हम किस दिशा में जारेहेहै ? बच्चों के बिगडते ही हम विद्यालय और समाज को दोष देना शुरू कर देते हैं | कम से कम हमें अपने अभिवावकों से जोशिकायतें रही उनको दोहराने से तो बच सकते हैं पर हमारे यहाँ इस तरह के किसी भी प्रशिक्सान का सर्वथा अभाव है | बच्चे की शारीरिक कमजोरी तो हमें दिख जाती है पर उसका व्यवहार और उसका सोच हमारी चिंता का विषय कभी नहीं बन पाता |
शिकायत करना बहुत आसान है पर समस्याओं के हल खोजना कुछ कठिन अवश्य है | यह धन की अपेक्सा आपके समय और विचार की मांग करता है | हमारा कल जिन हाथों में महफूज है उस ओर अभी से ध्यान देना जरूरी है|