Saturday, November 27, 2010

आखिर हम गाली क्यों देते हैं?

है न विचित्र किन्तु सत्य कि हम सब जानते हैंकि गाली देना बुरीबात है लेकिन गाली है कि मुँह से निकल ही जाती है |हमारा अपनी जुबान पर नियंत्रण ही नहीं रहता |पहले भी ब्याह-बारातों में ज्योनार के समय गाली गई जाती थी पर वह अधिकतर दूल्हे की माँ बहिनो कों बरात में नचाने का उपालंभ ही हुआ करता था|हम जब किसी कों अपमानित करना चाहते हैंतो हमारा सबसे बड़ा हथियार गाली ही हुआ करता है | बचपन में हम भी कुत्ता ,बेबकूफ ,उल्लू ,बदतमीज जैसी गाली दिया करते थे| और जब बहुत गुस्सा आता था तो कडी खाई धुआ करी मर जाएजैसी अनिष्टसूचक अथवा कोसने नुमा गाली मर जा ,कट जा और तेरे हाथ पैर टूट जाए जैसी गालिया प्रयोग की जाने लगी|
कुछ और समझदार हुए और बाहरी परिवेश से परिचय हुआ तो माँ बहिनकी गाली कानो में सुनाई पडी | तब तक इन गालियों के गूढार्थ पता नहीं हुआ करते थे अत: बचपने में एक बार इस गाली का प्रयोग किया और माँ से खूब पिटाई भी खाई | सख्त हिदायत दीगई कि अब कभी ऐसे शब्द जुबान पर भी आये तो जुबान खीच ली जायेगी| बस इस प्रकरण का यहीं पटाक्षेप हो गया|
जैसे-जैसे बड़े होते गए और समाज का हिस्सा बनते गए, देखा कि पुरुषों की भाषा में गालिया ऐसे सम्मिलित होने लगी जैसे दाल में तडका|अनसुनी करते करते भी पाया कि कई सज्जनो की बाते तो इन आलंकारिक शब्दों के बिना पूरी नहीं होती| तब बहुत कोफ़्त होती थी पर हम कर क्या सकते थे| बहुत हुआ तो ऐसे लोगो के आगे नहीं पडते थे| समझदारी आई तब जाना इन गालियों के मूल में स्त्री जाति और उसके पक्षधरों कों अपमानित करने की मूल मंशा ही थी| साला और साली कितने मधुर रिश्ते होते हैं पर ये भी गाली के पर्याय होते चले गए और अब साला तो इतना फैशन में आगया कि उसे गाली नहीं वरन बातचीत का जरूरी हिस्सा माना जाने लगा |पर इसी रिश्ते का एक पहलू और था पति के भाई और बहिन यानी देवर और ननद | ये रिश्ते सदैव पूजनीय रहे कभी गाली की कोटि में नहीं गिने गए|आखिर क्यो क्योंकी ये पति परमेश्वर के हिस्से जो थे और सालासाली उस बदनसीब के भाईबहिन | धीरे-धीरे इस साजिश ने एक और रूप अख्तियार कर लिया |हमारी पूरी की पूरी शक्ति औरतो के खिलाफ प्रयोग होने लगी |उनकी इज्जत के इतने चीथड़े बिखेरने केलिए एक गाली पर्याप्त होती और वह शर्म से मुह छिपा बैठी| समय बदला और बराबरी की धुन में औरतों ने भी इसी हथियार का प्रयोग करना शुरू कर दिया पर वह यह भूल बैठी कि ये तो पुरुषों के द्वारा दी जाने वाली गालिया है हम अपनी गालियोंका शास्त्र अलग बनाए |कौन मेहनत करता सो उसी कोष से गालिया चुन ली गई और उनका धडल्ले से प्रयोग किया जाने लगा |बिना सोचे समझे कि इन सब गालियों से तो हमी अपमानित हो रहे है| मेरा बहुत मन हुआ कि पूछू अरे ये कैसा अनर्थ कर रही हो| भला अपने कों भी कभी गाली दी जाती है पर बराबरी की होड़ में किसे ये सब फालतू बकबास सुनने की पडी थी|पुलिस का महकमा तो गालियों के बिना अधूरा ही है| और अब तो स्थिति यह है कि वे बच्चे जो इन गालियों की एबीसीडी भी नहीं जानते वे भी इन गालियों का धडल्ले सेप्रयोग करते है| ऐसे कुछ बच्चों कों मैंने जब कुछ समझाने की कोशिश की तो उन्होंने बड़ी मासूमियत से जबाव दिया कि ये खराब बात होती तो सब लोग क्यों देते | दुकान पर चौराहे पर और घर पर ये गालिया तो उसके कानो में रोज ही पडती है | आखिर किस-किस से बचायेंगे आप | और बस हमने मान लिया है कि किसी कों डराने धमकाने के लिए दोचार भद्दी गालियों का प्रयोग कर दो |सज्जन तो ऐसा भाग खडा होगा जैसे गधे के सर से सींग और भले घर की लडकिया तो उस माहौल से बचना ही सुरक्षित मानेगी |और कहा जाएगा क्या मेडम ये भी कोई लिखने का विषय है ,ये तो सब चलता रहता है|

Friday, November 26, 2010

ज्ञान का व्यावहारिक प्रयोग बहुत जरूरी है |

मनुष्य का पूरा जीवन सीखने और सिखाने के अनुभवों से भरा हुआ है | जन्म से लेकर मृत्यु तक हम सीखते और सिखाते रहते है| कभी-कभी हम सीखते हुए भी सिखा रहे होते है इस द्रष्टि से प्रत्येक व्यक्ति अध्यापक है और अपने जीवन काल मेंकभी ना कभी शिक्षकके संपर्क में अवश्य आया होता है| याद कीजिए आपकी स्मृति में किस अध्यापक की यादे आज भी ताजा हैं | हो सकता है वक्त की धूल ने सब कुछ धुंधला कर दिया हो पर जैसे ही वह धूल हटती है अथवा आपके द्वारा हटाई जाती है सब कुछ कितना साफ़ दिखाई देने लगता है मानो कल की ही बात हो | हाथ में डंडी लेकर पढाने वाले मास्साब ,गुस्से में त्योरिया चढाते और बात- बात में गरियाते सर , कुछ भी पूछने पर मार का डर,लेकिन कभी-कभी इतने अच्छे अध्यापक जिनके कारण ही हम स्कूल जाने कों उत्साहित हो जाते ,इतनी अच्छी अध्यापिका कि माँ और दीदी से भी ज्यादा प्यारी लगती ,| आखिर क्या था उन अध्यापकों में कि आज भी उनका नाम हमारी जुबान पर चढा रहता है |
भले ही वे प्रशिक्षित न रहे हो पर उनके जीवन के अनुभव ने उन्हें हमारे समीप ला दिया था |क्या ज्ञान केवल पुस्तकों से ही प्राप्त किया जा सकता है ,काश ऐसा होता तो हम सभी आज बड़ी -बड़ी उपाधियों के साथ पंडित और विद्वान बन चुके होते | आज हमारे पास मोटी-मोटी किताबें तो है पर उनका ज्ञान हम पचा नहीं पाए है | हमने जो भी कभी पढ़ा होगा ,वह केवल परीक्षा के लिए और जैसे ही हमने परीक्षा पास की सबकुछ विस्मृत हो गया |क्योंकि हमने तो जो पढ़ा था और जिसके लिए पढ़ा था वह लक्ष्य तो मिल ही गया फिर उसे याद करने की क्या आवश्यकता रह गई ?यही हम मात खा जाते हैं |
जब हम दूसरों कों सिखाना प्रारम्भ करते हैं तब सबसे पहले हमारा व्यक्तित्व परिलक्षित होता है | हम कैसे है ,जीवन में किन चीजों कों हम प्राथमिकता देते है ,हम अपने छात्रों के विषय में क्या सोचते हैं ,हमारा शिक्षण के प्रति कैसा नजरिया है | हम छात्रोंके दिमाग में सूचनाए भर रहे होते हैं या उनके मस्तिषक कों सक्रीय करना चाहते हैं| किसी भी ज्ञान का व्यावहारिक प्रयोग कक्षा में छात्रों कोसजग रखता है |यदि हम किसी भी विषय कों पढाने से पूर्व उस विषय की जीवन में उपयोगिता बता दें तो उस विषय के प्रति रूचि बढ़ जाती है और हम उस विषय कों सहज रूप में सीख लेते है क्योंकि उसके साथ हमारा लक्ष्य और मन दोनों जुड जाते है|पहले हम तो अपने ज्ञान भण्डार की छटनी कर ले कि क्या बताना जरूरी है और क्या छोड़ा जा सकता है | विषय का मंथन तो कर ले , उसकी गरिष्ठता कों सुपाच्य तो बना ले पर हमें इतना सब्र कहाँ है हमें तो बस पढ़ी गई सूचनाओं कों ज्योंका त्यों उसके दिमागमें फीड कर देना है और उसे परीक्षा पास करने लायक बना देना है यही हमारा शिक्षण है और इसी काम का हमें वेतन मिलता है |लेकिन यह क्रम आखिर कब तक चलता रहेगा ?
सीखा इसलिए जाता है कि जिससे जीवन में कभी समस्या आये तो हम उसके समाधान ढूढ़ सके | मुझे पिताजी की एक बात आज भीयाद है | एक बार किसी घरेलू समस्या के कारण हम सभी परेशान थे | पिताजी कुछ तय नहीं कर पा रहे थे | तब उन्होंने हम भाई-बहिनों से कहा अरे जहा चार-पांच पीएच.डी बैठे हो वहा भी समस्या के समाधान नहीं निकला करते | हम सभी अवाक रह गए और सोचने लगे कि रिसर्च में तो यह्कभी सिखाया नहीं गया| पर आज जरूर समझ आ गया है कि यदि एक बार आपमे विश्लेषण की क्षमता विकसित हो जाए तब आप अधिकतर परेशानियो के हल ढूढने में समर्थ हो ही जाते है और नहीं तो कम से कम उसे अपने ऊपर हाबी तो नहीं होने देते |इसलिय हमेशा याद रखना चाहिए कि जब तक हम सीखे गए ज्ञान का उपयोग नहीं कर लेते तब तक वह ज्ञान हमारे अनुभव का विषय नहीं बनाता और जो हमारे अनुभव का विषय नहीं हो सकता वह पुस्तकों में तो शोभा पा सकता हैपर हमारे जीवन जीने का आधार नहीं हो सकता |

Monday, November 22, 2010

हम अपने अपने टापू में कैद क्यों है ?

हम सभी सामाजिक प्राणी है और हमें समाज के सहयोग की आवश्यकता हर पल पडती है |हमारा सबसे पहला साबका अपने पडौसी से ही पडता है|हमारे सुख-दुःख का सबसे पहला गवाह पडौसी ही हुआ करता है | हमने तो यह भी देखा है पडौसी हमारी रोजमर्रा की समस्याओं में सह भागी होता है पर अब शायद ऐसे पडौसी नहीं हुआ करते |हम वह् होते हैजैसा हमारा अडोस-पडौस,आमने -सामने होता है |शादीब्याह के सन्दर्भ में तो आपके -पडौसी ही आपसे संबंधी सूचनाओं के आधार हुआ करते है| कल हमारे पडौस में अम्माजी की मृत्यु हो गई |वह लंबे समय से बीमार थी | शाम ६ बजे उनकी मृत्यु हुई और लगभग ५० मिनिट बाद उस सूचना की सबसे पहली हकदार मैं ही बनी ,वह भी किसी तीसरे माध्यम से | खैर मैंने अपनी कालौनी के अन्य लोगों कों सूचित किया |
मैं समझ नहीं पा रही आखिर हम इतने औपचारिक कब से हो गए कि मृत्यु जैसे दुखद अवसर पर भी हम यह प्रतीक्षा करने लगें कि जब शव यात्रा निकलेगी तब हम भी उस भीड़ का हिस्सा बन जायेंगे| कहाँ बची है हमारी संवेदना ,क्या अब इन बड़ी कोठियों के लोगो के बीच मोहल्ले जैसा भाईचारा जैसा कुछ नहीं होता | कहा वह समय था ,जब किसी के घर ऐसे अवसरों पर सब कुछ पडौसी ही संभाल लेते थे| जब तक रिश्तेदार आते ,तब तक तो सब हाथोहाथ ले लिया जाता| और अब एक समय ऐसा आगया जब सब कुछ ऑफिस नुमा हो गया | जहां रोने केस्वर सुनाई देने चाहिए थे वहाँ यह देखा जाने लगा कि हम अपने घर कों पहले व्यवस्थित कर लें |मुझे लगने लगा कि अब हम पदौसियोंके मध्य नहीं रहते बल्कि मशी नुमा जीवो के मध्य रहते हैं| हमारे अपने इगो इतने बढ़ गए कि हम स्वयं कों अपने में पूर्ण मानने लगे | हमें किसी से कोई लेना-देना नहीं |हमारे पास इतना पैसा जो आगया है कि अब सब कुछ उससे खरीदा सकता है | जी हाँ रिश्ते भी | और क्या आपने देखा नहीं शादी-विवाहों में गीत गाने के लिए मंडली बुलाई जाने लगी है सब कुछ पेशे जैसा हो गया |लोग आते है आपको खाना परसते है, खईदी हुई मुस्कान से आपका स्वागत करते है |
और जो मेजबान है वह हाथ जोड़े दरवाजे पर केवल आपको अटेंड करते है| सब तो इतनी तेजी से बदल रहा है| शायद मेरे मन के किसी कोने में अब भी वह गंवईपन बाकी रह गया है जो जब चाहे अपना सर उठा लेता है और मुझे सोचने पर मजबूर कर देता है कि हम आखिर अपने -अपने टापुओ की हद कों तोड़ क्यों नहीं देते |हम अपनी संवेदनाओं का विस्तार क्यों नहीं कर लेते | और कम से कम दुःख के अवसरों पर तो आपसी वैमनस्य कों भुला क्यों नहीं देते ?हम पहले जैसे पडौसी क्यों नहीं बन जाते जब किसी के घर आहात भी होती तो पूरा मोहल्ला एक हो जाता | तब मोहल्ले की बहन बेटी सबकी बहन बेटी होती थी| एक कादुख सबका दुःख होता था |सब के सुख -दुःख में सब शरीक होते |पर शायद अब हमने अपने घर तो बड़ा बना लिया है पर दिल संकुचित हो गए है|

Saturday, November 20, 2010

मुझसे तो नहीं छूट पाता ये बचपना

आप चाहे कुछ भी कहते रहे मुझसे तो नहीं छूटता ये बचपना |अरे तो क्या ये जरूरी है कि ४० पार् कर लिया तो हमेशा चेहरे पर बुजर्गियत ही ओढ़े रहे ,बेबसी चिपकाए रहे ,सबकेआश्रित ही बने रहे ,अब जब बच्चे खेल सकते है नाच गा सकते है तो हम क्यों नहीं | भई, बालो का रंग ही तो स्वेत हुआ है मन पर तो कोई कालिख नहीं आई ना ,फिर हम चाहे छुहा-छाही खेले अथवा लंगडी टांग ,हम नाचे,गुनगुनाये और दिल खोलकर हँसे तो हर बार यह क्यों सुनाया जा रहा कि उम्र का ख्याल तो करो क्या अभी तक बच्ची बनी रहोगी| मेरा मन तो सबसे अधिक बच्चा पार्टी में लगता है कितना भी भारी दुःख हो कैसी भी मनहूसियत हो ये बच्चे अपनी भोली बातो से और डेढ़ इंची मुस्कान से आपका दिल जीत ही ले लेते हैं | मेरी तो हर सुबह इन्ही से शुरू होती है और शाम भी इन्ही के साथ डूबती है| और हमारी अम्मा है कि सारे दिन हमें सुनाये बिना नहीं मानती देखो अब ये उम्र है क्या बच्चों के साथ चहल-कदमी करने की ,हमारी बहू में न जाने कब बड़प्पन आएगा | जब देखो तब बस इन बच्चों के बीच पगलाई सी घूमती रहती है | न अपनी उम्र का ख्याल रहा है |अब है भी तो मास्टरनी पूरी जिंदगी बच्चों कों ही पढ़ाया और उम्र के इस मोड पर भीबच्चा ही बनी हुई है | क्या मुसीबत है जब सोलह-सत्रह साल के हुए और इन बच्चों के संग गेंद तड़ी खेलने का मन करता तो माँ कहा करती बेटा अब बचपना छोड़ बड़ी हो गई है कलको पराये घर जायेगी कुछ तमीज सीख | तब भी मन होता था माँ सब काम तो मैंने कर लिया ,अब क्यों डांटती हो | पर एक उम्र के बाद जैसे बचपन कों विदा करना ही पड़ता है| ससुराल आगई तो वहा भी छोटे छोटे बच्चों से दोस्ती कर ली ,और जैसे ही खाली समय मिला उनको बुला लिया किसी के लिए गुडिया बना दी तो किसी केसाथ झूठ मूठ रसोई की तैयारी कर ली| रात होते-होते बच्चों का झुण्ड आ धमकाता कहानी सुनाने के लिए ,भाभी कल वाली कहानी सुनाओ ना फिर राजकुमार का क्या हुआ | और चल निकलती बात में से बात | सास की आवाज कान में पड़ते ही बच्चा टोली सतर्क हो जाती और सब के सब हाथ हिलाते भाभी कल भी कहानी सुनाओगी ना | जब खुद मातृत्व पद के अधिकारिणी बनी तब भी बच्चों के साथ बच्चों के साथ बच्चा ही बनी रही | कभी नन्हे कों दूध न पीने पर कहती गटक गटक पीएगा दूध मेरा नन्हा राजा और कभी एक दो तीन कहते दूध का गिलास उसके पेट में पहुँच जाता |अब तो दादी नानी बनने की उम्र आ गई पर मन है कि अभी भी उन गलियारों में घूमने के लिए लालायित है | सच मेरा बचपन मेरा सबसे अच्छा समय ,गर्मी की दोपहरी हो तो सहेलियों के साथ गुट्टे और चकखन पे खेलते बीतती और सर्दियों की दोपहर गेंद तड़ी करते और गिट्टी फोड खेलते | शाम होते ही अपनी गुडिया -गुड्डे की शादी की बरात हाथ में आक की लंबी शाखाए लेकर निकलती और किसी भी सहेली के घर धमा चौकड़ी मचनी शुरू हो जाती |पढते थे और इतना पढते थे कि कक्षा में सबसे अब्बल आते पर खेल के साथ कोई समझौता नहीं | और अब देखती हूँ तो खेल के नाम पर कोई गतिविधि नहीं | बस अधिकतर हुआ तो बैठे-बिठाए कोई वीडियो गेम खेल लिए,| आज जब अपने प्रयास के बच्चों कों फूटबाल और कबड्डी खेलने भेजा तो सारे के सारे बच्चे इतने थक गए कि लगा ये सब शारीरिक तौर पर बहुत कमजोर है और बस तभी से प्राण कर लिया कि शनिवार केवल और केवल खेल और अन्य गतिविधियों के लिए मसलन गाना गाओ कला बनाओ बाते करो अपनी जिज्ञासा दूर करो और करो ढेर सारी मस्ती|

Tuesday, November 16, 2010

प्रतीक्षा

बचपन से अब तक
प्रतीक्षा ही तो करते आये है
कभी मनचाही वस्तु मिलने की
तो कभी अच्छे अंक आने की |
कभी फर्स्ट आने की
तो कभी मनचाहा जॉब मिलने की
कभी देश भ्रमण की
तो कभी सज्जनो की संगत की |
और अब भी
उम्र के इस मोड पर
प्रतीक्षा ही तो कर रहे है |
खुशहाल जीवन की
संतति के उज्जवल भविष्य की
ब्रद्धों के स्वास्थ्य लाभ की
और अपनी जीवनमुक्ति की |
करते ही रहे है हम
प्रतीक्षा ,प्रतीक्षा और
अनवरत प्रतीक्षा
कभी न खत्म होने वाली प्रतीक्षा
और अब
कुछ ही पलो में
खत्म हो जायेगी ये प्रतीक्षा
क्योंकि जब सब कुछ
समाप्त होने कों है
तो कैसी प्रतीक्षा
और क्यों प्रतीक्षा |
ये सब तो जीवन रहने तक है
प्रतीक्षा ,प्रतीक्षा और मात्र प्रतीक्षा |

Sunday, November 14, 2010

आज हम खूब नाचेंगे गायेंगे ।

आज्चाहचा का जन्म दिन है इसे बाल दिवस भी कहते है तो यह हमारा जनदिन हुआ ना ।दीदी तो कह रही थी कि आज तुम्ह्रए कोई नही डांटेगा ,आज तुम केवल मस्ती करोगे ,आज केवल प्यार ही प्यार मिलेगा पर मैन तो जब से उठा हू मान बात -बात पर नाराज हो रही है कभी कहती है आज तो छुट्टी है अभी सेकहा चल दिया जुल्फे काढ कर एक दिन तो मिला है ये तो है नही कि कुछ घर मे काम-धाम करे । मा आज बालदिवस है ना आज तो मै गाना गाऊंगा मुझे राजा बनना है और पता है मा मिठाई भी मिलेगी ।बस बस भाई को सम्भाल बहुत हो गई तेरी बकबक ।और पिताजी ने तो सुबह से ही मूद खराब कर दिया चल देती रोज बस्ता लेकर स्कूल् जायेगी। अरे घ का काम काज देख चार कोठियो मे काम कर । पिताजी पर आज तो बाल दिवस है ना । तो ,ऐसे नेताओ के जन्म दिन तो रोज होते है हमे उससे क्या चुप चाप बोरी उठा और कबाडा चुन कर ला , दोपहर बाद लकडी चुन कर भीलानी है।अरे होंगे कोई चाचा नेहरू ,होता होगा बच्चो का बाल दिवस यहा तन ढकने के लिए कपडे नही खाने के लिए भर पेट भोजन नही मिलता छोटा रोज बिना दूध के ही सोजाता है । पर पिताजी कम से कम आज तो मुझे मत डांटिए ।
आज तो सब उल्टा पुल्टा हो गया । लो और अब ये पिताजी के दोस्त और आगए ।बस ये दोनो बैठ कर ठर्र्रा पीयेंगे और ताश खेलेगे। मन गया मेरा तो बाल दिवस । बस अब सारा दिन घर मे बैठो और इनकी चिक-चिक सुनो। अरे आज स्कूल खुला होता तो कम से कम दीदी नेहरू चाचा की बात तो बता ती नही तो मै पुस्तकालय की रंगीन किताबो को पढ लेता । बस कर दी छुटी और मन गया हमारा बाल दिवस।
सोनू को देखो कैसा तैयार होकर इतरा रहा है । और सब बच्चे हाथो मेन मिठाई के पेकिट लेकर आ रहे है। अगली बार तो मै अपना स्कूल बदल लूंगा । कर दी बाल दिवस पर छुट्टी । मैने तो सोचा था कि आज स्कूल मे खूब सारे गाने गारता और सब मुझे प्यार से कहानी सुनाते पर अब क्तया हो सकता है । चाचा नेहरू आप हीमेरी बात सुन लो । क्या आपको अच्छ लग रहा है कि आज किसी बच्चे की आंखो मे आंसू हो नही ना फिर मेरे मा-पापा को समझादो ना कि आज बाल दिवस है आज तो सब्को मेरी ही बात माननी चाहिए पर ये बडे लोग हमे कही और कभी बडा मानने के लिए तैयार नही । बस्जब देखो इनका ही कहना मानो , अपने मन से कुछ मत करो। अब जल्दी से सुबह हो ,स्कूल खुले तो मै तीचर जी से कह दूंगा देखो दीदी, ये बाल दिवस पर छुट्ती बुट्टी मत करा करो। अब देखो ना मा ने एक बडा सा बोतरा कन्धे पर रख दिया और कह दिया कि जा और लकडिया चुन कर ला ,तभी तो रोटी बनेगी। और देखो मेरे दोस्त की बहिन भी उसे डांट रही हैकि क्यो समय खराब कर रहा है बोरा उठा और कबाडा बीन । तू समझता क्यो नही हम बच्चो के लिए कोई बाल्दिवस विवस नही होता । हमे तो रोज एक ही चिंता करनी है कि पेत कैसे भरे । देख रे तूने ज्यादा तीन पांच की तो कल से स्कूल जाना भी बन्द हो जायेगा ।
अब समझ आया कि ये बाल दिवस हमारेलिए नही है । अच्छा तो वो दूसरे बच्चे होंगे जिनके लिए बाल दिवस होता होगा । कोई बात नही जब मै मर कर चाचा के पास जाऊंगा तो पूछूंगा जरूर क्यो चाचू ,आप भी बच्चो मे भेद भाव करते हो । उस के लिए बाल दिवस और हमरे लिए काम दिवस।

Thursday, November 11, 2010

क्या सबला योजना हमें वाकई सबला बना पायेगी ?

वैसे तो यह सब सरकारी नीतियों की इबारत भर है ,इसका यथार्थ से क्या लेना देना | पर यह कभी नहीं समझ आता कि हम जिसके लिए इन योजनाओं का सूत्रपात करते है उन्हें शिक्षित होने बनानेका प्रयास क्यों^ नहीं करते | शिक्षित होना तो दूर की बात है असल में तोहम उन्हें साक्षर भी नहीं बनाना चाहते | हमने गरीबो जैसी एक जाति बना दी है और अब हम उन्हें कुछ लाभ दिलाने ेजैसी कवायद कर रहे है | हमारा किसी भी समस्या के मूलभूत पहलुओ से कोई लेना-देना नहीं होता |हम सदा फुलक को सीचने में ही अपना सारा श्रम लगा रहे है| हम कभी भी यह नहीं चाहते कि वह अपने पैरों पर खड़े हो सके ,बिना बैशाखियो के चल सके |हमारी हर संभव कोशिश रहती है कि वह हमेशा हमारे सहारे ही चलते रह| उनमे यदि विवेक जैसी चीज पैदा हो गई तो हमारे लिए खतरे की घंटी बज जायेगी | वह हमारे ऊपर निर्भर होना छोड़ देंगे | हम हमेशा उनके खैर ख्वाह बने रहना चाहते है | हम उन्हें कमाना नहीं सिखाते वरन उन्हें अपने हाथ की कठपुतली बनाए रखने में अपना गौरब मानते है| कैसे तो बदले ये स्थिति?
यदि केवल शिक्षा के ही आंकड़े लें ,तो तस्वीर कुछ इस तरह की नजर आती है | सब बच्चों को प्राथमिक शिक्षा का अनिवार्य अधिकार मिल् सकें,इसलिए इस शिक्षा के साथ मिड डे मील को जोड़ दिया गया | सोच तो बहुत अच्छा था पर तस्वीर ही बदल गई | माता-पिता अपने बालको कों पढने के लिए तो नहीं पर राशन मिलने के नाम पर उस एक विशेष दिन अवश्य भेजने लगे | मिड डे मील के साथ अनेक अनियमितताए जुड गई और यह कुछ लोगों के लिए खाने -कमाने का साधन बन गया|| इन बच्चों के लिए पुस्तके और कापिया मुफ्त दी गई तो हश्र यह हुआ कि इन पुस्तकों की कालाबाजारी शुरू हो गई | पढ़ाना - लिखाना तो दूर रहा ,अध्यापको केलिए अध्यापन कार्य से बचाबके लिए अनेक अवसर हाथ आ गए |बी.एड. वालो के लिए बिशिष्ट बी.टी.सी की व्यवस्था की गई ,,कोशिश कीगई कि हम सबको रोजगार देसकें पर स्थितिया तो और बदतर हो गई| न पढने वाले तैयार है और पढाने वाले तो अपनी समस्याओं से इतने अधिक घिरेहुए हैं कि पहले वह अपने कार्य स्थल तक सुरक्षित पहुँच जाए तब पढाने का नंबर आये|
आखिर हम करे क्या कि सब कुछ ठीक हो जाए|मेरी समझ से कुछ उपाय किए जा सकते है-
१. बच्चों कों शिक्षा देने से पूर्व अभिभावकों की मानसिक तैयारी करे|उन्हें यह महसूस कराये कि बच्चों की पढाई -लिखाई उनके स्वयं के परिवार के लिए आवश्यक है न कि सरकारी आंकडो कों पूरा करने के लिए |
२. बच्चोंको परिवार के कमाऊ सदस्य के रूप में तैयार करे |
३. ऐसे बालको की शिक्षा केतौर तरीके और पाठ्यक्रम में बदलाब बहुत जरूरी है |हम सब धान बाईस पसेरी सेरी वाली नीति अपनाएंगे तो परिणाम बहुत सुखद तो नही होंगे|
४. यदि संभव हो सके तो उनके पढाई के घंटे इस तरह से रखे जाए जिससे यदि वे कही अन्य अर्थोपार्जन का कार्य कर रहे हो तो वह बाधित न हो |
५.सरकारी योजनाओं के व्यावहारिक पक्ष जरूर देखे जाए|
६.जो अध्यापक इस कार्य में लगे है ,उन्हें बाल मनोविज्ञान का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है लेकिन यह ज्ञान केवल सैद्धांतिक न हो वह अध्यापक इन बच्चों की समस्याओं कों समझाने का माद्दा भी रखते हो|
अंतत किसी भी योजना के प्रारूप कभी बुरे नहीं हुए करते पर उन के कार्यान्वन में जो चूक हो जाती है ,उसके प्रति सतर्क रहना
७.

Monday, November 8, 2010

और तुम कहते होकि

जब हम चुप दिखते है
सबसे अधिक बोल
रहे होते है
मन ही मन ।
जब हम नहीं
लिख रहे होते हैं
हम सबसे अधिक
सोच रहे होते हैं
घटनाओं को ।
या कहो हम
पचा रहे होते हैं
अपने आक्रोश को
और जब सो रहे होते हैं
तो करते हैं तैयारी
अगले जागरण की ।
और तुम कहते हो यार
आजकल दिखते नहीं
कुछ लिखते नहीं।
रोज ही तो घट्जाता
है ऐसा
जिसे लिखे बिना
रहा ही नहीं जाता ।
पक रहा होता है
कल का कथानक
बुन रहे होते है
नये सपने
जुड रहे होते है
नए समीकरण ।
बदल रहे होते है पात्र
मेरेनाटक के
ईजाद हो रही होती है
नई मांगे ।
रच रहे होते हैं दुशमन
नए-नए षडयंत्र
अब बोलो सब लिख डालूं
तो पढ पाओगे
इतना निर्मम और कटु सत्य
इसलिए कभी -कभी
कडवाहट को कुछ कम करने में
लग ही जाते हैं
कुछ पल
और फिर एक नई इबारत के साथ
रचना तो ऐसे दौडती है
मानो खूब घोटी गई पट्टी
पर सर कंडे की पैनी कलम
सुन्दर और सुघढ हर्फोंमें।
और तुम कहते हो ।

Saturday, November 6, 2010

चलो ,आज पढाई को गुनते हैं।

जब से होश सम्भाला है बस एक ही आवाज सुनाई आती है पढो,पढो और खूब पढों। तब मन होता था पूछे आखिर पढ-लिख कर होगा क्या?यदि कभी पूछा होता तो जबाव मिलता पढोगे लिखोगे बनोगे नबाव ।चलिए ,आपकी बात मान ली और पढ भी लिया उन पोथियों को जो हमें जरा भी रुचिकर नहीं लगती थी लेकिन नम्बर लाने थे ,परीक्षा पास करनी थी । दूसरी कक्षा में जाना था । सब पढते गए ,रिजल्ट के आधार पर आगे बढते गए,अंक भी लाते गए पर इससे क्या हम तो पहली कक्षा में सिखाया गया सबक भी व्यवहार में नहीं लाते। अरे भाई पढ लिख कर नबाव तो बन गए पर हमें न तो बदलना था और न हम बदले।
सिखाते रहे गुरुजी बार-बार ,लिखवाते रहे इमला सौ बार -सदा सच बोलो ,हम लिख भी देंगे ,सुन्दर -सुन्दर हर्फों में ,बिलकुल वर्तनी की गलती नहीं करेंगे पर जब बोलना होगा हम सदैव झूठ ही बोलेंगे।बस इसी शिक्षा के लिए हाय-तोबा है। शिक्षा की तो पहली परिभाषा ही यह है कि शिक्षा व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन लाती है,उसे परिस्थितियों से समायोजन करना सिखाती है ,आत्म निरभर बनाती है ,समाज के लिए उपयोगी बनाती है ।कहां चूक हो रही है कि इतनी डिगरियों के बाबजूद भी हम कहींआधे-अधूरे हैं ।
मेरी समझ से एक बडा कारण है कि हमें जो पढाया जा रहा हैवह कहीं जीवन की स्थितियों सेतालमेल नहीं रखता ।
अकसर हम अपने विद्यार्थियों को रटने की प्रेक्तिस कराते हैं ,उन्में विषय की समझ विकसित नहीं कर पाते ।महाभारत का एक प्रसंग है जब सभी विद्यार्थियों को पाठ याद करने को दियागया और दूसरे दिन सुनने का क्रम आया तो अकेले युधिष्ठर ने कहा -गुरुजी मुझे पाठ याद नहीं हुआ है।जिस दो लाइन को सभी शिष्य आसानी से सुना रहे थे उस के लिए युधिष्ठर का यह कथन गुरुजी की समझ में नहीं आया। क्योंकि युधिष्ठर उस पाठ को जीवन में उतारने को याद करना मानते थे न कि केवकल शब्दों को रट लेना । यही अंतर हम पूरी शिक्षा व्यव्स्था में देख सकते है और इसका परिणाम भी हमारे सामने है कि हम केवल सूचनाओं के गडः तो हो गए हैं पर गहरी समझ विकसित होना अभी बाकी है।
जितना पढा बहुत है । अब उससे अधिक समय उसे गुनने ,समझने और जीवन में उतारने के लिए चाहिए ।छोटे-छोटे सन्दर्भ जीवन बदल दिया करते है बशर्ते हम सीखे हुए का कभी फुरसत के क्षणों में आत्म मंथन कर पायें।

Friday, November 5, 2010

मेरा आज कुछ खो गया है

मैं तकरीबन 6 या 7 साल की रही हूंगी जब खेल-खेल में एक चीटा मर गया था और हम दोस्तों ने उसे एक गढ्ढा खोद दफना दिया था और कई दिन तक सबकी नजर बचा मै उस स्थान पर पानी और फूल चडा आती थी।फिर धीरे-धीरे मैं सब कुछ भूल गई। 98 में हम जिस घर में रहते थे उस घर का बालक इक दिन अपनी जेब मे दो स्वान शिशुओ को लेकर आया और बोला आंटी जी देखो कितने प्यारे ह ैआप एक ले लो और एक मैं रख लूंगा । मैंने उस कुछ दिन के दुध मुंहे बच्चेको अपने घर में रख लिया और उसके हलके भूरे रंग को देखते हुए बच्चो ने उसका नामकरण भी कर दिया ब्राऊनी ।अब तो वह ब्राऊनी हमारे घर का खिलौना बन गई। पर उसे पालने के लिए जो कवायद चाहिए थी उसे मैं अपनी नौकरी के कारण पूरा नहीं कर पा रही थी।तो मैंअपने मांपिता के पास उसे छोड आई पर हर दोतीन दिन बाद उसे जाकर देख आती और मां कहती बेटा यह तो खाना भी नहीं खाती और तुम लोगों को बहुत याद करती है। लेकिन धीरे-धीरे वह पिताजी की चहेती बन गई और उसका भोजन पानी सनब पिताजी के साथ ही होता था । प्रसब के समय मां एक जच्चा जैसी देखभाल करती और उसके लिए कभी हलुआ और कभी खिचडी बनाती तो पूरा घर कहता अरे भाई पशु है पशु की तरह ही रखो । और पिताजी तो उससे भी एक कदम आगे थे। उसके सोने के लिए बिस्तर तैयार करना और पूरे दिन उसकी छोटी छोटी आवश्यकताओ का ध्यान रखना कभी-कभी हम भाई बहिनो के मन में हलका-फुलका आक्रोश पनपाता था ।
2002 में जब पापा नहीं रहे और हम अपने नव निर्मित घर में मां और ब्राऊनी के साथ रहने लगे,तब मैंने जाना कि ब्राऊनी तबहुत सदय और समझ दार हो गई थी। हम जब भी बाहर होते वह खाना खाना छोड देती ।गलती होने पर सिर झुका कर खडी रहती। मैं ,मेरे पति ,बच्चे ,मेरी बहिन सबके लिए ब्राऊनी उतनी आवश्यक हो गई थी ।वह हमारे घर के अनिवार्य सदस्य के रूप में जी रही थी ।अभी दो साल पूर्व जब मां भी चल बसी तब मुझे ब्राऊनी को पूरी तरह संभालना था ।सब तो शायद उसे पाल रहे थे पर मैं कहीं दिल से उससे जुड गई और उसके सम्बन्ध कहा गया एक शब्द भी मुझे तीर जैसा लगता । एक माह पूर्व उसे ब्रेस्ट केंसर हुआ डाक्तरों को दिखाया ।उसे कुछ इंजेक्शन दिए पर बता दिया कि यह अब ज्यादा दिन नहीं चलेगी । मुझे तो उसी दिन मानसिक रूप से तैयार हो जाना चाहिए था पर मोह कहीं कितनी जल्दी थोडॆ ही छूटता है। मैं उसके लिए और सजग हो गई । उसकी मन पसन्द सभी चीजे उसके लिए रखती।उसे बचपन में कच्चा आलू,गाजर ,भुटिया ,गिरी खाना बहुत पसन्द था।लेकिन अब वह इन की ओर तकती भी नही थी। उसकी दर्द भ्री रातों की गवाह हूं मैं , रात में उसे जाकर कम्बल उडा आना ,कभी उसकी पानी की बाल्टी भर कर रख आना मेरी दिनचर्या का अंग हो गया ।
आज मेरी वही प्यारी ब्राऊनी बिना किसी को कुछ बताए ,चुपचाप चिर निद्रा में चली गई। मेरा मन बहुत बैचेन है। कहने को तो दीपाबली की पूजा की है पर आज त्योहार त्योहार नहीं लग रहा। लगता है मेरा कहीं कुछ खो गया है ।

Wednesday, November 3, 2010

रिश्तों को भी चाहिए खाद -पानी |

ऐसे ही नहीं पनपते रिश्ते ।हम जिस समाज और घर परिवार के मध्य रहते हैं तो हमें उन रिश्तों का मान करना भी आना चाहिए। पर हम तो धीरे -धीरे अपने लोगों से ही कटते जा रहे हैं।हमने अपने लिए एक नई दुनिया बनाने की कोशिश की है पर हम अपनी जड से ही कट गए है। प्रत्येक बच्चा अपने माता और पिता के परिवार से निश्चित रूप से जुडा ही होता है और उसे अपने मा और पिता के परिवार के बारे में पूरी जानकारी होनी ही चाहिए । पर कम ही बच्चे ऐसे है जो अपने बाबा दादी नाना नानी ताऊ ताई चाचा चाची बुआ फुफा मौसा मौसी बहन बहनोई मामी मामी के रिश्तों की जानकारी रखते हैं । कारण है कि वे इन परिवारों में यदा-कदा जाते हैं और उन्हें भी अंकल आंटीनुमा जैसेकभी-कभार आने वालों कीलिस्ट में रख लेता है।
करें भी क्या ,हमारी व्यस्तताए जो इतनी अधिक बढ गई हैं। हमें आसमान की ऊंचाईयां जो छूनी है ,बडा उद्योगपति बनना है । ये पारिवारिक रिश्ते तो बहुत निभा लिए अब हमें ग्लोबल बनने दीजिए । हमारे पास देर रात तक चेटिंग के लिए समय है पर अपने व्रद्ध माता-पिता के पास दो घडी बैठने के पल नहीं। मा कब से आस लगा रही थी कि बेटा त्योहार पर आयेगा हम खूब सारी बातें करेंगे पिता ने सोचा था अब की बार बच्चे आयेंगे तो छत बदलबा लेंगे,बारिश में बहुत परेशानी होती है । पर बच्चे आये जरूर ,सबके लिए उपहार भी आये पर किसी के पास दो पल बैठने की फुरसत नहीं । सब आते ही अपने -अपने कार्यों में व्यस्त हो गए ।मां पगलाई सी बच्चों के मनपसन्द खाने बनाने में जुटी रही और जब उसने सोचा चलो अब तो फुरसत है कुछ कहेंगे कुछ सुनेंगे,पर ये क्या बच्चे तो अपनी दुनिया में मस्त है । जब भी मां वृहत परिवार के विषय में बताना चाहती हैं बडी उपेक्षा से अनसुना कर टिप्पणी दाग दी जाती है-
-क्या मां आप दूसरों के बारेमें बातें क्यों करती है ,और मां अवाक है क्यों रे ये दूसरे कौन हो गये । चुन्नी तेरी बुआ की और पूनम तेरी मामा की लदकी है सब भूल गया क्या ?क्या मां ,अपनी व्यस्तता में अपनी ही बहिन ध्यान रह आये यही बहुत है किस -किस को याद रखूं। मेरे पास बहुत काम है । इस सब के लिए समय नहीं।
सच है जिन रिश्तों की हमें परवाह ही नहीं वह अब क्यों बचे रहे ? क्या अपने सगे-सम्बन्धियो के साथ हमारा यह बरताव स्वागत योग्य है?हमने अपनी जडे इतनी खोखली कर ली हैं कि हम स्वयम को पहचानने से ही डरने लगे हैं।जिन रिश्तों को पषा नहीं जाता वह्क्यों कर पनपेंगे। आज हमें वह सब कुछ मिला है जिसकी चाहत हमने की थी । रिश्तों की परवाह नहीं की और अब परिणाम सामने है कि हमें बच्चों को पढाई में उसके खुद के ही परिवार का चार्ट बनाना सिखाना पढता है । जब मैंने बच्चों से कहा कि अपने माता-पिता के परिवार के सभी सदस्यों के नाम लिख कर कर दिखाओ तो बमुश्कोइल उसने चार नाम लिखे मा,पिता भाई का और बहिके नाम पर कह दिया मेरे तो बहै नहीं है । मेरे बार पूछने पर कि बुआ ,मौसी,मामा की लडकी कोई तो होगी उसका नाम लिखो। बडी मासूमियत से जबाव दिया वो मेरी बहिन कैसे हो सकती है । उसका तो भाई है।
अब ये नजरिया यदि बच्चों में विकसित हो रहा है तो हमें निश्चित रूप से सावधान हो जाने की जरूरत है। आखिर हम कहां जाना चाहते हैं ,हमने अपने लिए क्या लक्ष्य चुना है? हमारी प्राथमिकताए क्या हैं ?हम अपने ही हाथों अपने लिए गढ्ढा खोद रहे हैं?विरासत में क्या देकर जारहे हैं हम अपनी सनतति के लिए /क्या इसीभविष्य के सपने संजोये थे हमारे जन्म्दाताओ ने ?हम क्यों भूल रहे हैं कि रिश्तों की पहली बुनियाद आपसी व्यवहार है । हम सुख-दुख के कितने मौकों पर अपने सम्बन्धियों के पास वक्त गुजारते है,कितनी शामें हमारी उनके साथ्बीतती है । क्या कहा समय की कमी हैतो मेरे दोस्त समय तो सबके पास ही 24 घंटे होता है। इस काम को भी जरूरी मानोगे तो समय भी लनिआल्लोगे । एक बार ऐसा करके तो देखो। ये रिश्ते भी खाद पानी मा6गतेहै। जरा देकर तो देखिए कैसे लल्हाने लगेगी रिश्तों की बगिया

Monday, November 1, 2010

ऐसे होते हैं पिताजी

क्या आपका बच्चे ने आपकी अंगुली पकड़ के चलना सीखा है ? क्या उसकी तोतली बातें आपके दिमाग में रचीबसी है? क्या आप अपने बच्चे को अपने कंधे पर बैठा कर कभी मेला तमाशा दिखाने ले जाते हैं ?क्या आपका बच्चा आपके सीने से लग कर सोता है?क्या आपकी गोद उसे मिलती है?क्या आप उसेअपने हाथों से खाना खिलाते हैं ?क्या कभी उसका स्कूल बेग लेकर बैठते हैं और उसके बस्ते को चेक करते हैं?क्या आप बच्चे की बातों को तरजीह देते हैं या उसे बच्चा कहकर टाल देते हं?
क्या उसकी मित्रमंडली के बीच कभी उठे-बैठे हैं?क्या आप जानते हैंकि आप के बच्चे को कौन सा खेल खेलना पसंद है?क्या आपकी शामें उसके साथ बीतती हैंया आप इतने व्यस्त हैंकि शाम तो दूर उसके लिए आप छुट्टी के दिन भी उपलब्ध नहीं हो पाते?
क्या पूछा रही है आप ? भला इन सब का पापा होने से क्या सम्बन्ध ? मैंने अपने बेटे के लिए हर वह सुविधा खरीद दीहै जो उसे चाहिए |पढाई के लिए हर सब्जेक्ट का ट्यूटर लगा दिया है| स्कूल आनेजाने के लिए दो-दो गाडिया है |जितना जेब खर्च उससे कहीं अधिक देता हूँ |घर पर हर कार्य के लिए नौकर हैं ,आया हैं ,खाना सब उसकी पसंद का बनता है |उसके कहने से पहले ही उसकी सारी जरूरते हम पूरी कर देते हैं |आखिर मैं दिन रात इतनी मेहनत क्योंकरता हूँ सब उसके लिए ही ना ?अब उसे कहीं भटकने की जरूरत भी नही |लेपटोप है सारी जानकारिया घर बैठे एक क्लिक से प्राप्त कर सकता है और आप है कि मुझसे ही प्रश्न कर रहे है कि क्या आप अपने बच्चे को प्यार करते हैं ?
सच ही है एक पिता भला इससे अधिक क्या करेगा?पर शायद आपका बच्चा अपनत्व कहीं और खोज रहा हैउसे हमने घर नहीं बल्कि इक ऐसी छत जरूर दी है जहां एक साथ सब सामान जरूर मिलता है पर जो मिसिंग है उसे तो हम देखना भी नहीं चाहते ?आखिर क्यों हमारे बच्चे हम से दूर हो रहे हैं |कईं परिवार में केवल पैसा ही सब कुछ बन बैठा है क्यों बीमार होने पर केवल मंहगी दवाओनौर अच्छे अस्पतालों में एलाज्केलिए छोड़कर हम अपन र्कर्तव्य की इतिश्री माँ लेते हैं सेवा और सहानुभूति शब्द तो अब कोष से बाहर हो गए हैहम किसीसे तसल्ली सेबात नहीं कर सकते |उसे सान्तवना नहीं बंधा सकते |इतना समय कहाँ है हमारे पास ? किसी का दुखदर्द पूछने का समय इतने व्यस्त कार्यक्रम से कैसे निकाले और अब परिणाम हमारे सामने है हमारे घर एक अजायब घर और महंगे बाजार में तो बदल गए हैं पर अपनत्व और आत्मीयता कहीं खो गए हैं ?क्या बच्चे के देर से आने पर आप उसके लिए चिंता कर उसे खोजने जाते है या सोच लेते है -कहीं बैठा होगा अपने मित्रों के पास| ज्यादा दखल देना अच्छा नही| सब कुछ सच है पर यह भी उतना बड़ा सच है कि हमें अपने घर बचाने के लिए सजग होना ही पडेगा|

दोस्ती

जब पूछो किसी से दोस्ती के बारे में

बड़ा सरल जबाव होता है उसका

अरे दोस्ती का क्या वह तो

हो ही जाती है ,की नहीं जाती |

जब मेरा या उसका काम अटकता है

हम बन ही जाते हैं दोस्त

और जब हम बेकार होते है

दोस्त या तो बन जाते है दुश्मन

या हो जाते हैं तटस्थ

जैसे वे आपको जानाते ही नहीं|

अब नहीं हुआ करते लंगोतिया यार

होते है जींस नुमा दोस्त

जिन्हें जल्दी -जल्दी बदलनेकी

होती है आदत |

कभी सिखाया जाता था

सत्संगति किम न करोति पुंसाम ?

बुरी संगत को

पैर में बंधे चक्की पाट से

तौला जाता था |

और अब

जो जितना बड़ा दुर्व्यसनी है

उतना ही महान है

उसकी दोस्ती से ही

होते हैं आप सर्व् शाक्तिमान

आपके सभी काम हो जाते है सिद्ध

बिना लाइन में लगे हो जाता है प्रवेश |

तो अब न तो मेरा कोई मित्र है ऐसा

जो मेरे सब काम करा पाए चुटकी में

और सिखा पाए शोर्टकट

इसलिए बैठे रहते हैं हम

वर्षों -वर्षों इंतज़ार में

और सोचते हैं हम

क्यों नहीं गाँठ पाए दोस्ती

ऐसे लोगों से जो

बलशाली और प्रभावशाली हैं|

वरना हमारे भी हो जाते

वारे न्यारे कभी के|