Saturday, August 29, 2009

दुनियादारी

आज जमाना झूठ का,सच मांगता भीख
झूठे- झूठे सिर चडे,सत्य हो गया दीन
सत्य हो गया दीन ,करें अब क्या कोई
झूठ बोलना सीखिए,सच की खो गई लोई
विनती करता सच फिरे,कोई न माने बात

सत्य बेचारे की रही,आज यही औकात


झूठ बोलना सीखते ,क्यों होते बदहाल
साधु तेरी नम्रता , न होती फटेहाल
न होती फटेहाल, ठाठ तेरेभी होते।
कर सकते थे राज,कनाडा बैठे-बैठे
अब भी खुद को तौलताधर्म तुला पर तू
धीरज धर फिर बैठ जामौन होजा तू,र्म

Thursday, August 27, 2009

पिता के लिये

दिन की शुरुआत,आज का सुप्रभात,पक्षिओंकी चह्चहाट,माता की कसमसाहट,भ्राता की घबराहट,बिटिया की अकुलाहट,नाती-पोतोंकी तुतलाहट'सब कुछ तुम्हे समर्पित है पिता।
पिता जब तुम थे,कभी जाना ही नही,पिता का न होना,कैसा लगता होगा,मासूमोंको।
बस किताबों पडी और्दादी-नानी की कहानी से सुनीकथाओं से भी कहांअनुमान लगा पाते थे ।
बस दुख मेंडूब कह भारत देते थे च-च वह पिताविहीन है,और हमपिता के साये तले फिर रुनझुन-गुनगुन मेंसिमट जाते।
जब हम खुद मा-पिता के पद से नवाजे गये तब भीतुम्हारे अनुभव हमें सहारा देतेऔर हम पित्रत्व के बोझ तले भी तेरी गोद में आबच्चे ही बने रहते ।
पर अब
जब तुम सिमा गये हो, राख बन बहा भी दियेगये होपवित्र गंगा में,तुम्हारी फोटो पर चडाया गयाचमकता बडा सा हार र्भी तुम्हारे जाने को नही ,अस्तित्व को ही बडाबा देता है। मां का सूना- सूना माथा,सूनी कलाई,और नंगे -नंगे से पांव हमें रुलाने के लिये भरपूर मददगार होते हैं


पर हम बडे बनकर जल्दी से रुलाई को गले में ही घोंट कर,बडे समझदार से बनते,मां और छोटों को ढाढस बधाते,उन्हें गीता सुनाने लगते है
कभी-कभी तो उनकी मूर्खता परर्डांट भी पिलाने लगते है
पर ,पिता शायद आप नहीं जानते,यह सब करते -करते हम कितना टूट जाते है। भरभराया दिल तेरी गोद में बैठ गले तक़ आने लगता है और हम समझदारी दिखाते फिर अपने कच्चेपन का गला घोंत,अपनी सुबकियों को रोक एक जिम्मेबाराना व्यवहार निभाते- निभाते ,इतना थक जाते है
कि बस आकाश में चमकते तारे से तेरा पता पूछ बस तुझसे दो बात करना चाहते हैंजानते हुये भी
कि तेरी दुनिया में हम जैसों का प्रवेश अब निषिद्ध हैक्योंकि शेष बचे दायित्वों को पूरा करने के लिये हम छोदे गये हैं पिता तेरे द्वारा।
पिता सच-सच बताओ,क्या जब हुये थे तुम पिता विहीन तब कुछ ऐसा ही घटा था ,जैसा आजकल मेरे साथ घटता है।।।

Thursday, August 13, 2009

बच्चे ऐसे भी सीखते हैं

बच्चों को पढाने के दौरान नये -नये अनुभवों की श्रंखला मेंएक नया अध्याय और जुडा।जो बच्चे चार- पांच लाइन भी याद नहीं कर पाते थे उन्ही बच्चों ने अनेको देश भक्ति गीत बहुत जल्दी याद कर लिये और इतना ही नही बडे उत्साह और प्रसन्नता से खुशी- खुशी। मुझे याद है हर बच्चा गाना गाने की होड मे सबसे आगे रहना चाहता था।जो सानाज कक्षा में जरा भी नहीं बोलती ठीक वही बच्ची गाते समय बहुत स्पश्ट बोल रही थी। तब से मैंने नियम बना लिया कि गीत, कविताओ और कहानी के माध्यम से अधिकाधिक सिखाउगी।

Wednesday, August 5, 2009

ये लडकियां

पहाड जैसे दुख सहकर भी
क्यों होती है मोम सी सम्वेदंशील ये लडकियां
पिता, भाई,पति और पुत्र को
सहेजे रखकर भी
क्यों होती है अकेली ये लडकियां
निभाने की कोशिश करती
अपने दायित्वों को,फिर भी दूसरी क्यों होती हैं
यि लडकियां
केवल कर्तव्य करतीऔर अधिकारों सि वंचित
क्यों होती हैंये लडकियां
जिन्दगी का बोझ सिर पर उठाये
तेज गति से चलती,फिर भी नाजुक
क्यों होती हैं,ये लडकियां
उम्र भारत तपती आग के आगे
रोटी सेंकती और भाजी छोंकती
फिर भी जलने को विवश
क्यों होती है,ये लडकियां
घर के सामानों को सजाती-संवारती
मकान को घर बनाती,फिर भीघर से वंचित
क्यों होती हैं येलडकियां
मात्र लिंग भेद के चलते
और सामाजिकता के नाते,दोयम दर्जे की हो जाती है
क्यों ये लडकियां
कभी देवी तो कभी डायन पद पाती
पर मानवी न हो पाती
क्यों ये लडकियां
भाइयों की जुठन खाती
और भाइयों के लिये आड बनती
क्यों प्यारी बहना नहीं बन पाती
ये लडकियां
सबकी आवाज सुनती ,समझती और गुनती
बहरी कही जाती है
क्यों एय्लडकियां
सबके जख्मों को भरती और मरहम लगाती
फिर भीखुद लहुलुहान
क्यों होती है ये लडकियां
सारे प्रशनों का इक ही उत्तर है
सारे सवालों का इक ही हल है
ये सब घटता है पूरे विश्व में
क्योंकि लडकियां होती ही है लडकियाको

अनुभूति

ये पीपल का पेड और पास बैठी धूप सेंकती मै
अपने पिता का स्पर्श अनुभूत कर पाती हूं
क्योंकि मेरे पिता के हाथों रोपा छोटा पौधा
आज वट व्रक्ष में तबदील हो आकाश को छूता सा
पतझड में पत्ते बरसातासूखे पत्तों की मरमराहट सा गुनगुनाता
मुझे आशीश देता सा कहता है बिटिया लोटाभार rजल से सींचा मुझे
हाथ जोड पूजा मुझे< दीपक रख मुझे किया उजियार,और घंटोखडी रही मुझे निहार।
अब सुनता हूं एक गूंज हवाओं मेंकि मुझे बेचा जायेगा
ऐरे गैरों के हाथोंसौदा किया जायेगाऔर तुम इतराती सी
हरे नीले कागजों को चबाती सीक्या मुझे भूल जाओगी
क्या नहीं सोच पाओगी?कि मैं एक पेड, बूढा होता पेड
झुर्रीदार चेहरे वाला पेड्क्या अब काम का नहीं रहा?
सोचो और फिर सोचोदेता हूं आज भी छाया
देता हूंढेरों मुफ्त ईंधन,देता हूंसाफ शुद्ध हवा
देता हूं बसेराअनेकों पक्षियोंकोऔर तो बाहें फैला बनताहूं तेरा सहायक
और करता हूंपुख्ता हर क्षण तेरा विश्वासकि मैं जिन्दा हूं।
सोचो और फिर सोचोयदि कर भी दिया मेरा सौदा
तो देख पायेगी मेरा कटना नजरें चुरा पायेगी मेरे बहते लहू से
नहीं न, फिर क्योंनही बनी रहती वही जो पहले हुआकरती ठी
मोम सी सम्वेदन शील । व्यस्तता केक्षणों से कुछ पल चुरा
आजाया कर यूं ही , छू लिया कर यूंहीऔर दे जाया कर
मुझे एक विश्वास, कि अब भीकोइ मेरा है जो अपने स्पर्श से
जिला सा जाता है मुझे।गा

Tuesday, August 4, 2009

बदरंग होते कच्चे धागे

कल राखी है भाई बहिन के पवित्र और प्यारे से बन्धन का प्र तीक राखी ।बहिनें अपने भाई की कलाई सजाने के लिये बाजार से चुन -चुन कर राखी खरीद रही है और भाई भी अपनी बहिनों के लिये हाईटेक गिफ्ट खरीद रहे हैं।इतना ही नहीं धर्म भाई और धर्म बहिनों के मन में भी ढेरों उत्साह हैकर्मवती और हुमायु की पर्म्परा को जीवित जो रखना है।सब कुछ तो ठीक ठाक चल रहा था फिर अचानक समाज में एतना बडा परिवर्तन क्यों आया कि भाई बहिन जैसे पवित्र रिश्ते पर भी कालिख पुत गई बहिनें अपनेसुहाग भी भाई के रूप में ढूढने लगी और भाई शब्द की पवित्रता पाप के घेरे में आगई । हार की जीत कहानी में सुदरशन बाबा भारती से कहलबाते हैं खडग सिंह घोडा तो लेजाओपर इस बात का पता किसी को न लगे अन्यथा लोग गरीवों पर विश्वास करना छोड देंगें
आज समाज का जो पतन हो रहा है आखिर उसका जिम्मेबार कौन है? क्या हमारे अनुशाशन में कोई कमी रह गई है अथवाएडवांस बनने की चाहत में हम अपने सांसक्रतिक मूल्यों को भूलते जा रहे हैं। पता नही यह पतन कहां जाकर गा? सुनने में तो यह भीआरहा है कि पहले भी सब कुछ होता था पर पर्दे के पीछे। नजानेकितने अवैध सम्बन्धों की दुनिया समानांतर चलती रहती ठीक और थोपे गये सम्बन्धों को भी बेमन से ही सही निभा दिया जाता था। शायद तब सच का सामना करने की इतनी ताकत् नहीं रही होगी।सांप भी मर जाता था और लाठी भी नहीं टूटती थी। समाज की व्यवस्था भी बनी रहती और उन सम्बन्धों का निर्वाह भी चोरी छिपे होजाता था। सवाल यह नहीं कि ये सब बहुत कम होता था। मेरा मानना है गलत तो गलत होता है चाहे वह पर्दे के पीछे होअथवा खुले में। क्या ये सम्वन्ध अचानक वट् व्रक्ष बन जाते है अथवा छोटी- मोटी मुलाकातोंको हम नजर अन्दाज कर देते हैं ।ये भी हो सकता हैकि हम अपने वार्ड पर आंख मूंद कर भरोसा कर बैठ ते है हम उन्हें इतना बडा मान लेते हैकि वे सब कुछ सही कर रहे हैं।क्या प्रेम अर सच्छा प्रेम केवलपाक र ही पूरा किया जा सकता है इसके अलावा और कोईरास्ता शेश नहीं बचता। नये जमाने ने हमेंक्या कुछ दिया यह तो गणना का विशय है पर इतना तो निश्चित है कि हम अपनी ही आंखों मेंइतना गिर गये है कि इन सम्वन्धों को अनदेखा कर छोड देते है और बहुत से बहुत अपने को चुपा लेते है क्योंकि जानते है कि नये जमाने में वही सच होता है जिसे हम सच मान चुके होते। पर आंख बन्द कर लेने से अथवा अपने को छुपालेने से सम्स्या का समाधान तो नहीं हो जाता।है