Wednesday, August 5, 2009

अनुभूति

ये पीपल का पेड और पास बैठी धूप सेंकती मै
अपने पिता का स्पर्श अनुभूत कर पाती हूं
क्योंकि मेरे पिता के हाथों रोपा छोटा पौधा
आज वट व्रक्ष में तबदील हो आकाश को छूता सा
पतझड में पत्ते बरसातासूखे पत्तों की मरमराहट सा गुनगुनाता
मुझे आशीश देता सा कहता है बिटिया लोटाभार rजल से सींचा मुझे
हाथ जोड पूजा मुझे< दीपक रख मुझे किया उजियार,और घंटोखडी रही मुझे निहार।
अब सुनता हूं एक गूंज हवाओं मेंकि मुझे बेचा जायेगा
ऐरे गैरों के हाथोंसौदा किया जायेगाऔर तुम इतराती सी
हरे नीले कागजों को चबाती सीक्या मुझे भूल जाओगी
क्या नहीं सोच पाओगी?कि मैं एक पेड, बूढा होता पेड
झुर्रीदार चेहरे वाला पेड्क्या अब काम का नहीं रहा?
सोचो और फिर सोचोदेता हूं आज भी छाया
देता हूंढेरों मुफ्त ईंधन,देता हूंसाफ शुद्ध हवा
देता हूं बसेराअनेकों पक्षियोंकोऔर तो बाहें फैला बनताहूं तेरा सहायक
और करता हूंपुख्ता हर क्षण तेरा विश्वासकि मैं जिन्दा हूं।
सोचो और फिर सोचोयदि कर भी दिया मेरा सौदा
तो देख पायेगी मेरा कटना नजरें चुरा पायेगी मेरे बहते लहू से
नहीं न, फिर क्योंनही बनी रहती वही जो पहले हुआकरती ठी
मोम सी सम्वेदन शील । व्यस्तता केक्षणों से कुछ पल चुरा
आजाया कर यूं ही , छू लिया कर यूंहीऔर दे जाया कर
मुझे एक विश्वास, कि अब भीकोइ मेरा है जो अपने स्पर्श से
जिला सा जाता है मुझे।गा

4 comments:

  1. बेहतरीन रचना -- भावपूर्ण

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  2. बहुत बढ़िया आत्मभिव्यक्ति है

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  3. बडिया रचना भावमय लिखते रहिये आभार्

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  4. बहुत ही खूबसूरत मानवीकरण किया है आपने एक वृक्ष का । अत्यंत प्रभावशाली रचना ।

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