Monday, November 8, 2010

और तुम कहते होकि

जब हम चुप दिखते है
सबसे अधिक बोल
रहे होते है
मन ही मन ।
जब हम नहीं
लिख रहे होते हैं
हम सबसे अधिक
सोच रहे होते हैं
घटनाओं को ।
या कहो हम
पचा रहे होते हैं
अपने आक्रोश को
और जब सो रहे होते हैं
तो करते हैं तैयारी
अगले जागरण की ।
और तुम कहते हो यार
आजकल दिखते नहीं
कुछ लिखते नहीं।
रोज ही तो घट्जाता
है ऐसा
जिसे लिखे बिना
रहा ही नहीं जाता ।
पक रहा होता है
कल का कथानक
बुन रहे होते है
नये सपने
जुड रहे होते है
नए समीकरण ।
बदल रहे होते है पात्र
मेरेनाटक के
ईजाद हो रही होती है
नई मांगे ।
रच रहे होते हैं दुशमन
नए-नए षडयंत्र
अब बोलो सब लिख डालूं
तो पढ पाओगे
इतना निर्मम और कटु सत्य
इसलिए कभी -कभी
कडवाहट को कुछ कम करने में
लग ही जाते हैं
कुछ पल
और फिर एक नई इबारत के साथ
रचना तो ऐसे दौडती है
मानो खूब घोटी गई पट्टी
पर सर कंडे की पैनी कलम
सुन्दर और सुघढ हर्फोंमें।
और तुम कहते हो ।

2 comments:

  1. बहुत बढ़िया रचना है बीना जी ! सच है कुछ प्रकाश में आ पाए या नहीं यह और बात है लेकिन मस्तिष्क को कभी विश्राम नहीं मिलता वह अनवरत कुछ न कुछ सोचता रहता है और उधेड़बुन में लगा रहता है ! जो कुछ मन में चलता रहता है सब लिखना भी संभव नहीं होता और यदि लिख दिया जाए तो शायद लोगों के लिये पढना भी असंभव ही होगा ! एक निर्मम यथार्थ को उद्घाटित करती सुन्दर पोस्ट ! बधाई एवं शुभकामनाएं !

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  2. बीना जी ,
    बिलकुल जी आप ही नहीं बल्कि हर वो बन्दा जो नेट चला लेता है और अपनी बात हिंदी में लिख लेता है इस प्रतियोगिता में भाग ले सकता है बस प्रतियोगिता की कुछ शर्ते है जिन का पालन करना है !

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