अध्यापक शिक्षा और मूल्य बोध
जे. कृष्णमूर्ति के शब्दों में –"जानकारी इकठ्ठा करना और तथ्यों को बटोरकर आपस में मिलाना ही शिक्षा नहीं है,शिक्षा तो जीवन के अभिप्राय को उसकी समग्रता में देखना-समझना है|-----पूर्णत: समन्वित प्रज्ञाशील मनुष्य तैयार करना है|परीक्षा और उपाधि प्रज्ञा का मानदंड नहीं है|"उक्त सन्दर्भ
उक्त सन्दर्भ में आज की शिक्षा हमें बौद्धिक और सूचना-संपन्न भले ही बना रही हो परन्तु यह भी सच है कि हमने संवेदना की कीमत पर बुद्धि का विकास किया है|शिक्षा देने का काम शिक्षक का है और एक सच्चे शिक्षक के लिए अध्यापन तकनीक नहीं ,वह उसकी जीवनपद्धति है |क्या हमने कभी उन कारणों को तलाशने की कोशिश की है जिनके कारण शिक्षा मूलभूत शैक्षिक मूल्यों की अपेक्षा से दूर होती जा रही है ?निश्चित रूप से हमने बहुत सी पुस्तकें पढ़ी हैं ,उन सूचनाओं को याद भी कर लिया है ,परीक्षाएं भी पास कर ली हैं ,हमारे पास बहुत सारी उपाधियां भी हैं और इन उपाधियों ने हमें जीविका के साधन भी उपलब्ध करा दिए हैं|इसका अर्थ है यदि शिक्षा रोजगार के लिए थी ,तो हम निश्चित रूप से सफल हुए हैं| पर यह भी उतना ही सच है कि आज हम मशीन तो हुए हैं पर मनुष्यता कहीं बहुत पीछे छूट गई है|हमारी संवेदना दिन-प्रतिदिन मरती जा रही है|हमारे पास भौतिक सम्रद्धि तो अपार है पर हमारी संस्कृति ,हमारे मूल्य ,हमारे आपसी सम्बन्ध ,हमारी जड़े खोखली होती जा रही हैं और आज का सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यही है |
शिक्षा देने का कार्य मुख्य रूप से शिक्षक का है | शिक्षक एक निश्चित पाठ्यक्रम और निश्चित शिक्षण विधि के अनुसार एक सिस्टम में बंधकर अपना कार्य करता है||उसे केवल उतना करना है जितना उसके लिए निर्धारित है||वह उड़ाका.गोताखोर अथवा तैराक के रूप में अपना कार्य करता है जबकि आज की परिस्थिति में उसे स्वयं को रूई धुनने बाला धुनिया और कुम्हार के रूप में प्रस्तुत करना होगा|दर असल मूल्य शिक्षा केवल किताबों का विषय हो ही नहीं हो सकती, उसे तो व्यवहार में दिखना चाहिए|समय का मूल्य सिखाने के दो उपाय हो सकते हैं |पहला आप छात्र को यह वाक्य याद करने को देंदे और दस पांच बार लिखवा लें और दूसरा उपाय है आप स्वयम दैनिक जीवन में इस आचरण का पालन करें |
केवल नोट्स और मोडल पेपरों से काम ना चलायें,मूल ग्रंथों का अध्ययन करें|
इंटरेक्टिव मेथोडोलोजी को अपनाएँ |हम मूल्यों को संप्रेषित करने के लिए पहले स्वयं तो संवेदित हो|बदलते परिवेश में मूल्यों की निश्चित दिशा तो तय करें|अब परिवेश में भौतिक संसाधन ही तो बदले हैं ,उनके साथ हम मूल्यों को कैसे नकार सकते है?वैसे भी शाश्वत मूल्य तो कभी नहीं बदला करते,हाँ,उस तक पहुँचने के साधन और कर्मकांड जरूर बदल जाते हैं|
यदि हम चरित्र और व्यक्तित्व को स्थान ही नहीं देते ,तो प्रत्येक स्तर पर हमें इतने चरित्रों के अध्ययन की क्या आवश्यकता थी?किसी भी परिस्थिति में हमारा द्रष्टिकोण
और निर्णय बहुत मायने रखते हैं|शिक्षा जीवन को दिशा देने के लिए होती है,उसे भटकाव में छोड़ने के लिए नहीं|
इन विषम परिस्थितियों में भी हम असमर्थताओं में नहीं ,भरपूर संभावनाओं में घिरे हैं|ईमानदारी,बहादुरी,सत्य,दया,सहानुभूति,परदुख कातरता ,क्षमा ,अस्तेय ,क्या इन मूल्यों की वर्तमान में आवश्यकता नहीं बची है,क्या ये मूल्य अपने अर्थ खोते जा रहे हैं?मेरा विचार है नहीं,आज भी इन शाश्वत मूल्यों का महत्त्व कम नहीं हुआ है|यदि ऐसा होता तो शिक्षा जगत के लिए तारें जमीन पर, थ्री इडियट , और मुन्ना भाई की फ़िल्में इतनी सामयिक ना होती|अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा आयोग जिसके अध्यक्ष जाक डेलर्स थे ,ने अपनी रिपोर्ट ज्ञान का खजाना में स्पष्ट रूप से संकेत दिया है कि जीवन भर चलने
वाली शिक्षा मुख्य रूप से चार स्तंभों पर टिकी होती है-१.जानने के लिए ज्ञान २.करने के लिए ज्ञान ३.साथ रहने के लिए ज्ञान और४.होने (अस्तित्व ) के लिए ज्ञान |
शिक्षा का उद्देश्य निश्चित ही रोजगार स्रजन है पर शिक्षा हमें बेहतर मनुष्य भी बनाए जिसमें मानवीय गुण हों तथा विश्व को बेहतर ढंग से रहने वाली जगह बनाए|यदि ह्रदय सच्चा है तो चरित्र होगा|चरित्र के साथ घर में शान्ति होगी और जहां घर अच्छे हैं ,उससे राष्ट्र और विश्व प्रभावित होगा|
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Posted by beena at 3:59 PM
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सार्थक आलेख ..... आपसे सहमत हूँ...
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