मुखौटे पाती वहा-वहा
मानो,हर चेहरा चेहरा नही
मुखौटा है।
शायद अब मुखौटे नही बिकते
चेहरे बिकते है बाबा के मोल।
एक मुखौटा चस्पा है
मेरे भी मुख पर
क्योंकि ठानी है मैने
सच कहने की।
रिश्ते-नातो मे बन्धी मै
मुखौटे दर मुखौटे चडाती जाती हू।
कही मै किसी की जाया हू
तो कही कोईमेरी जाया है।
कभी सहोदरो का अनुराग है
तो कभी जीवंभर का साथ है।
ये मुखौटे ,दिल्चस्प मुखौटे
हर बार विजयी होते है
सच की ताकत को खीच लिये जाते है।
2.एक दफा,कीथी कोशिश मैने
सभी मुखौटे उतारने की
रात के घुप्प अन्धेरे मे
बन्द कमरे के सन्नाटे मे
सम्बन्धो का जाल
तेज़ दांतो से कुतरा।
उतारते-उतारतेमुखौटे
थक गये मेरे हाथ,बीतने लगी रात,
देखाआइने मे,करोडो मुखौटो के बीच
बदरंग चेहरा।
अंगाठादिखाते सुन्दर मुखौटे
फूले नही समाते।
और मै उस बदरंग
चेहरे के साथ आज भी
बिना मुखौटे के आज भी
जीवित हू।
पर मुझे घोर अव्यावहारिक
की संज्ञा दी जाती है
और सब ओर से दरकिनार
कर दिया जाता है।
जीवन का शायद सबसे विचित्र सत्य यही है ! हर व्यक्ति मुखौटे चढ़ाए जी रहा है और मुखौटे चढ़ाए हुए लोगों को ही पसंद करता है ! जिस दिन सबके मुखौटे उतर जायेंगे कोई किसीसे मिलना नहीं चाहेगा ! सामाजिकता का शायद यही तकाजा है ! हर मुखौटे के पीछे एक वीभत्स, बदरंग और कुरूप चेहरा छिपा होता है ! सुन्दर रचना !
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