अधिकार भाव की मादकता
जन-जन को ललचाती है |
चुभते कीलो की पीड़ा
भी सुखदायक होती है|
स्वयम नियंता बन जाना
अहमी दम्भी हो जाना |
अधिकारी के आभूषण है
होता जिनसे वह दूषित है|
ऊंची कुर्सी पर बैठ -बैठ
अपनी अंगुली पर नचा
जन को ,वह खुश हो लेता|
खिसक गई कुर्सी जिस दिन
नौ-नौ आंसू रो लेता है|
जब कुर्सी आनी -जानी है
काहे तू इतराता है|
बन विनीत और सज्जन हो
इनसे ही तेरा नाता है|
बढ़िया है.
ReplyDeleteकाश आपका यह संदेश उन सभी लोगों तक पहुँच जाए जो कुर्सी पर आसीन होने के बाद स्वयं को अतिमानव समझाने की भूल कर बैठते हैं और अपनी अन्तर आत्मा की पुकार भी जिन्हें सुनाई देना बंद हो जाती है ! बढ़िया रचना !
ReplyDeleteजो मुझे बुरा लगता है वह मैं खुद कभी न करूँ
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