Thursday, March 18, 2010

तुम्हारी मर्जी है|

न जाने 

समय की मार 

हमें कहाँ ले जायेगी

और बुदबुदाते हुए हम

गुदगुदाए जाने पर भी

लंबे सोच में बैठे रह जायेगे 

अपनी पीड़ा को ना भूल पायेंगे|

नश्तर जो चुभोये गए दिल में

भीतर तक

उन्होंने सारा लहू निचोड़ लिया है|

सख्त खाल में 

चुभन अब होती नहीं

आँखों का पानी सूख चुका है|

अब जो शेष है

उसे कहने से भी क्या

तुम 

महसूस सकते हो 

तो महसूस लो 

दुखती रग पर 

जलाते अंगारे रखो

या अनुभूति की छुअनसे

उन्हें सहला दो

तुम्हारी मर्जी है|

4 comments:

  1. दुखती रग पर

    जलाते अंगारे रखो

    या अनुभूति की छुअनसे

    उन्हें सहला दो

    तुम्हारी मर्जी है


    -बहुत सुन्दर!

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  2. मानव मन की पीडा की चिर अनुभूति को सहज अभिव्यक्ति दी है.

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  3. बहुत मर्मस्पर्शी रचना !
    दुखती रग पर
    जलाते अंगारे रखो
    या अनुभूति की छुअन से
    उन्हें सहला दो
    तुम्हारी मर्जी है|
    निस्पृहता के भाव की अनुपम अभिव्यक्ति ! आपकी कलम में जादू है ! बधाई !

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  4. नहीं,तुम्हारी मर्जी नही चलेगी मैं अपना रिमोट दूसरे के हाथ में नहीं दूँगी

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