माँ
तुम माँ होकर भी
अपने गरिमा को सहेज नहीं पाती हो |
युवा होती बच्ची से
बहस कर अपनी इज्जत में बट्टा लगाती हो |
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शैशब का तुतलाना
आज
व्यंग वाणों में और कल का दुलार
खीझ बन बरसा है|
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यह,वही नन्ही बच्ची है
जिसके माथे की तपन से
तुम्हारा कलेजा
मुँह को आता था |
यह वही माँ है
जिसने सब कुछ गवां
तुम्हें,मात्र ,पाया था|
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आज
दोनों ही
अपने-अपने भाव को भुला
रणक्षेत्र में खड़ी हो
मानो एक दूजे की जान लेने को आदी हो|
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मेरा कहना मानो तो
माँ तुम माँ
और तुम फिर से छुटकी
बन जाओ
वरना चुक जायेगी मेरी संवेदना |
A bitter experience or otherwise ?
ReplyDeleteकामू ने एक बार लिखा था कि "जीवन में एक बार हम अपने प्रिय की अनिष्ट की कामना अवश्य ही करते हैं."काफी प्रैक्टिकल कविता लगी............"
ReplyDeleteamitraghat.blogspot.com
मेरा कहना मानो तो
ReplyDeleteमाँ तुम माँ
और तुम फिर से छुटकी
बन जाओ
वरना चुक जायेगी मेरी संवेदना
-बहुत भावानात्मक अभिव्यक्ति!
सत्य के बहुत करीब एक संवेदनशील प्रस्तुति ! भावनायें कब करवट लेकर अपना रूप बदल लेती हैं पता ही नहीं चल पाता !बहुत सुन्दर !
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