चल पड़े
एक से दो होने
मानो वह अकेले
और बिलकुल अकेले थे|
अखबारों में दिए इश्तहार
और डाल दिया बायोडेटा
मेरिज ब्यूरो पर|
और जब खोज हुई पूरी
मिला दूसरासाथी
जिसे हमसफ़र
कहने का चलन था|
अचानक खुशियों की हुई बारिश
झमझमा झम |
सफर अभी एक चौथाई भी
तय नहीं हो पाया
कि
घिर आये बादल
बरसने लगे मेघ,चमकी बिजली
और ओले भी गिरे टपटपाटप|
हमसफ़र कहे जाने वालेजीव
के बदले तेवर
टेड़ी हुई भ्रकुटी
और चुपचाप खिसक लिए
नए आशियाँ की तलाश् में|
तब जाकर राज खुला
अरे वह तो बालू की दीवार था
क्या सहारा दे पाता?
जिसमें खुद खड़े रहने
का साहस नहीं |
तब याद आया
बुद्ध का वचन
अप्प दीपो भव
अपना दीपक स्वयं बनो|
गलत सहारा मत चुनो|
बढ़िया है.
ReplyDeletenice
ReplyDeleteअपना दीपक स्वयं बनो|
ReplyDeleteगलत सहारा मत चुनो
सुन्दर सन्देश। धन्यवाद्
आज के यथार्थ की बेबाक बयानी ! आपने जो लिखा है वह शत प्रतिशत सच है ! अपने जीवन को यदि आलोकित करना है तो अपना दीपक स्वयं ही बनना पड़ेगा ! बहुत खूब !
ReplyDeleteबिल्कुल ठीक।
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