एक सवाल अक्सर आजकल
मन में उमडता-घुमड़ता है
जो अपने होते हैं
वो क्या दंश देते हैं?
अपना अंश जब बड़ा हो
अपने फैसले लेता है
और हम निजी कारण वश
उससे इत्तफाक नहीं रखते |
तब हम अथवा वे
गलत ठहराये जाते हैं|
खोद-खोद कर गड़े मुर्दे
उखाड़े जाते हैं|
नई दलीलेंखोजी जाती है
तर्कों के अम्बार रचे जाते हैं
और ऐसा शो किया जाता है
मानो हम दूध के धुले हैं|
इस नाटक का पटाक्षेप
भी होता होगा देर -सबेर
पर तब तक इतना कुछ
घट चुका होता है कि
कहने सुनने के लिए
जो शेष रह जाता है
वह बस मानसिक यंत्रणा
और थुक्का फजीहत के
सिवा कुछ और नहीं होता|
सच है रिश्तों की दुनिया बड़ी
मनमोहक और प्यारी होती है
पर जब टूटती है तो सब
कुछ ले डूबती है |
दर असल अपनों के द्वारा
खाई चोट दिल पर सीधा
वार करती है
और चोटिल जन की गति
सांप-छछूदर की माफिक होती है |
इसलिए तो कहती हूँ कि
अपने कलेजे के टुकड़े के
द्वारा दिए गए घाब
घाब और दंश नहीं
हुआ करते
वे तो प्यार की अधिकता के
चिन्ह और अपने व्यक्तित्व के
दर्पण हुआ करते हैं|
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"इसलिए तो कहती हूँ कि
ReplyDeleteअपने कलेजे के टुकड़े के
द्वारा दिए गए घाब
घाब और दंश नहीं
हुआ करते
वे तो प्यार की अधिकता के
चिन्ह और अपने व्यक्तित्व के
दर्पण हुआ करते हैं"
मातृत्व से परिपूर्ण और भाव विभोर कर देने वाली प्रस्तुति...
बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना है। बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteअच्छी रचना है, बधाई।
ReplyDeleteसब कहाँ सोच पाते है ऐसा, वो तो उसे विद्वंश की स्नागा देते हा . अच्छे अभिव्यक्ति !
ReplyDeletebahut khub
ReplyDeleteफिर से प्रशंसनीय रचना - बधाई
bahut khub
ReplyDeleteफिर से प्रशंसनीय रचना - बधाई
बिलकुल सत्य कह रही हैं आप ! जब अपने दंश देते हैं तो कभी भी फैसला निष्पक्ष नहीं हो पाता और पीड़ित सब कुछ सहते हुए भी कटघरे में ही खडा किया जाता है ! ना उसकी दुहाई ही सुनी जाती है और ना ही उसे अपनी सफाई में कुछ कहने का मौक़ा दिया जाता है ! एक यथार्थपरक पोस्ट !
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