Wednesday, December 23, 2009

मैं

  मैं मैं हूं


और तुम नहीं हो सकती

मैं केवल एक शरीर नहीं

मुझमें भावनाओं का 

अपार समुन्द्र लहराता है

मेरा अपना वजूद है

जो मुझे जिन्दा बनाये रखता है

मैं कठपुतली नहीं हूं 

जो केवल तुम्हारे इशारे पर नाचती रहूं

मेरी डोर अभी तक मेरे हाथों में सुरक्षित है।

मेरे न्यायाधीश बनते शायद तुम भूल गये

कि तुम भी सर्वाधिकार सम्पन्न नहीं

तुम तो पदेन हो ,कुछ समय के लिये

सताधीश बनाये गये हो

हम जैसो की स्वीकृति केबाद

मत इतराओ इतना कि अपना बोध खो बैठो

वर्चस्व सदैव कायम नहीं रहा करता

ये तो समय है कि तुम सत्ताधीश बना दिये गये हो

पर भूलो मत,मानवता का दामन छोडो मत

क्या जानो किस स्वाभिमानी के हाथों तुम्हारा पतन हो

मेरा तो क्या ,मेरा वजूद तो तब भी कायम रहेगा

जब तुम्हारा पतन होगा

पर तुम्हारे लिये बन्द होते सारे रास्ते 

और तुम्हारा बिलखना मुझसे देखा  न जायेगा

इसलिये सुन सकते हो सुनो

सत्ता के मद मेंचूर तुम जोभी हो

तुम्हारा नाम जो भी हो

वही करो जो उचित लगे

मैंने तो अपना मार्ग चुन लिया

अब मुझे क्या,तुम गिरना चाहते हो तो गिरो

पर फिर मत कहनाकि 

मेरा कोई शुभ चिंतक नहीं रहा












2 comments:

  1. अब मुझे क्या,तुम गिरना चाहते हो तो गिरो

    पर फिर मत कहनाकि

    मेरा कोई शुभ चिंतक नहीं रहा

    सार्थक संदेश ,अच्छी रचना

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  2. आत्मविश्वास से लबरेज़ बहुत ही सार्थक कविता । यह आपके ही व्यक्तित्व का एकदम सच्चा प्रतिबिम्ब प्रतीत होता है ।

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