सब अपने होते हैऔर पराया तो कोई होता नहीं
पर लिखे हुए को पढ्ना और व्यवहार में होते देखना 
दो   भिन्न  -भिन्न   अनुभव   हुआ   करते      है ।
सोचना और करना ,एक ही समय में दो रूपों को जीना
मतलब दो  चेहरों  के मुखोटे एक साथ लगा लेना
अपने  दुखों  को  दिल   में  गहरे  छुपा कर
चेहरे पर  ओढी  हुई  मुसकान   चस्पा कर 
एक ही समय में दो विपरीत ध्रुवों को
पास लाने की बेवजह कोशिश करना
और फिर अप ईमानदारी का ये हश्र देखना
सारी यादों का टूट -टूट कर बिखरते जाना
कतल करने वाले हाथों का आंसुओं को पोंछना
और सब कुछ यूं सह लेना जैसे कुछ  घटा ही नहीं
आदर्श बनाये रखने के लिये  घुट-घुट कर जीना
सच तो नहीं होता है ,फिर  भी सच  होता है 
इसलिये फिर कहती हूं फर्क होता ही है
अपने और  पराये  में, मेरे   और तेरे में
इस में और उसमें,हममें और तुम में
और अब भी जिद बाकी है कि वसुधा कुटुम्ब 
हुआ करती है ,तो झेलते रहो,धोखे खाते रहो
और पूरी दुनिया को अपना मानने और समझने
की जिद पकडे रहो,पर अपने बनाये उसूलों को
तोडो मत,और लकीर पक्की ,बात पक्की
कि मेरे लिये तो वसुधा ही कुटुम्ब है


कहने के लिए लोग बड़ी बड़ी बात रखते है पर वास्तव में दृश्य कुछ और ही होता है..बदलते जमाने में लोगों की सोच भी बहुत बदल चुकी है..बढ़िया चर्चा..धन्यवाद
ReplyDeleteसुन्दर रचना...विचारणीय!!
ReplyDeleteफर्क होता भी है और नहीं भी। एक अगर गिराता है तो दूसरा उठाता भी है।विनाश के बिना विकास सम्भव नहीं।इसलिये हमेशा सकारात्मक सोचें।
ReplyDeleteफर्क होता भी है और नहीं भी।अगर एक गिराता है तो दुसरा उठाता भी है।विनाश के बिना विकास नहीं। अत: हमेशा सकारात्मक सोचें।
ReplyDeleteएक ही समय में केवल दो ही नहीं कई मुखौटे लगा कर इंसान को जीना पड़ता है । एक सामाजिक प्राणी होने का यही सबसे बड़ा दण्ड वह भोगने के लिये विवश है । जितनी भूमिकायें उतने ही मुखौटे ।
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