Saturday, November 21, 2009

क्या ये कच्ची भावुकता भर है?

आज बहुत सारी यादों को दफन कर 

उन पर एक भारी सा पत्थर रख दिया

मैंने अपने को ,अपने आंसुओं के सैलाब को रोकने 

की कोशिश ,भरसक कोशिश की

पत्थर दिल बनने का नाटक भी रचा

पर ज्यों ही मेरा बचपन ,मेरी अनमोल यादें,

दुछत्त्ती पर छुपा-छुपाई याद आई

अपने बगीचे की मिट्टी  की सोंधी खुशबू

नथुनों में समाई,सपनों में सारी की सारी दीबारें  

गले लिपट कर रोई,बालपन कीशरारतें 

याद आई,मेरा सारा का सारा बड्बोलापन 

कपूर सा उडनछू हो गया,और मेरी आंखों से 

बहती गंगा-जमुना को नेरा आभिजात्यपन 

भी नहीं रोक पाया ,

मुझसे ही सवाल जबाब शुरु कर दिये

मेरे जमीर ने ,तो यही तेरा असली चेहरा

उतर गये सारे नकाब ,खुल गई सारी असलियत 

अब मैं  खुद से ही नजरें चुराती हूं,अपने को 

और अकेला पाती हूं,लोगों का क्या

वे मेरी कविता को कच्ची भावुकता भर मानते हैंं

और व्यावहारिक होने की सलाह देते 

शायद भूल जाते हैं कि हमारा अतीत कैसा भी हो 

आखिर हमारा होता है और सब कुछ बदल जाने पर

भी हमारा दामन नहीं छोडता ,सात समुन्दर पार भी

साथ चला आता है हमें बताने कि 

सब कुछ यूं ही खतम नहीं हो जाता।


1 comment:

  1. बहुत खूब बीनाजी ! जी नहीं , यह कच्ची भावुकता क़तई नहीं है ! जो ऐसा मानते हैं शायद वे खुद अपने आप से आँखॆं चुरा रहे होते हैं । वरना ऐसा कौन होगा जिसके मन में बचपन की यादें कभी सावन भादों की तरह घुमड़ती नहीं होंगी ! बड़ी हृदयग्राही रचना है ।

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