प्राथमिक शिक्षा किसी भी देश की शिक्षा व्यवस्था की नींव है और यही नींव की ईंट सर्वाधिक उपेक्षित और अवहेलना का शिकार बनी हुई है।प्राइमरी का मास्टर सामाजिक विसंगतियोंसे इस कदर जकडा हुआ हैकि उसे केवल किटकिन्ना सिखाने वालाअ,आ ,इ सिखाने वाला मान लिया जाता हैउसके कार्य को बडा हल्का करके देखा जाता है।एक प्राथमिक विद्यालय का परिद्रश्य कुवछ इस प्रकार सामने आता हैब्लेकबोर्ड पर लिखे हुए कुछ वर्ण,उसे कापी पर तीपते बच्चे,बातों मशगूल और बच्चो को पीटते, हडकाते,डांटते ,अधैर्यशाली अध्यापक।ढेर सारी पुस्तकों से भरे बैग के साथ थके हुए,और उदास चेहरा लिये नन्हे-मुन्ने।आखिर हमारे देश के भविष्य के लिये इतना बोझिल पाठ्यक्रम क्यों रख दिया गया है? क्या एक स्लेट-बत्तीअथवा कागज -कलम और कुछ अक्षर कार्डों के साथ इन्हें नहीं सिखाया जा सकता?जब तक वह अक्षर भी नहीं जान पाता,भारीए-भारी वाक्यों से लदी-फदी पुस्तक उसके हाथों मेंथमा दी जाती हैऔर उससे अपेक्षा की जाती हैकि वह सब कुछ रटले,सुनादे,और 80-90%अंकों के साथ अगली कक्षा में चला जाये।और अध्यापक के काम की इतिश्री मान ली जाती है।क्या हम कभी सोच पाते है किबच्चे की यही कच्चाई,वर्ण और मात्राओं न पहचान पासकने की योग्यता उसके भविष्य पर कालिख पोट देती है,उसकी यही कम्जोरी बडे होने तक बनी रहती है।
दरअसल्प्राथमिक स्तर पर विषय की जानकारी के स्थान पर केवल लिखने, सुनने, बोलने और पढने की योग्यता का विकास ही किया जाना चाहिये जिससे वह वर्णों को पह्चान सके,उसे स्वयम लिख सके,वर्णों को मिलाकर पढ सके। मात्राओं पर और संयुक्त वर्णों पर जितना अधिक ध्यान इस अवस्था मेंदे दिया जायेगा उतनी ही लेखन की नींव पक्की हो जायेगी।फिर वह किसी भी कक्षा की पुस्तक को पढ सकेगा और्किसी भी शब्द को लिख सकेगा।
वैसे तोमुझे युवावर्ग और प्रोढ शिक्षार्थियों को पढाने का अवसर ही सदैव मिला पर अपनी प्रयास संस्था में कची मिती जैसे बालकों को ही सिखा रही हूं और मुझे ये अनुभव मेरे मानस बच्चे ही देरहे हैं। कभी- कभी मुझे बच्चों के इस प्रश्न का उत्तर देना भी बहुत कठिन होता है कि दीदी बच्चे को कौन सी किताब लेकर आनी है और मेरा उत्तर कि नहीं इन्हें खाली हाथ आने दो, मैं इन्हें ऐसे ही पढाउगीं .उन्हें आचर्य में डाल देता है पर धीरे - धीरे वे मेरी बात समझ जाते हैं इसलिये फिर कहती हूं जड में पानी दो, पतूं को सींचने से कुछ नहीं होगा।
बिल्कुल सच कहा बीना जी..हमारे यहां सदियों से एक ही ढर्रे की पद्धति चली आ रही है..किसी को नये बद्लाव के लिये सोचने की फ़ुर्सत ही नहीं है..सामयिक आलेख..
ReplyDeleteपूर्णतः सहमत आपके विचारों से.
ReplyDeleteआप के विचार सभी तबकों का समर्थन पा सकते हैं सिर्फ राजनैतिक तबके को छोड़ कर
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