उसे नसीहतें देते समय अपना बचपन नहीं भूलें। हम अपने सुझाव अवश्य रख सकते हैं पर यह सामने वाले पर निर्भर करता है वह इन सुझावों के प्रति कितना ग्रहणशील है।बच्चों को उपदेश की भाषा से एलर्जी होती है।वे हमारा सम्मान करें यह जितना आवश्यक है उतना ही ध्यान इस बात पर भी दें कि हम अपना बडप्पन बनाए रखें, हर समय की आलोचना बच्चों में खीज पैदा करती है, उन्हें लगता है कि आप उन्हें लेकर सीरियस नहीं है। जब आपका मन होता है आप उन्हेंडांटने लगते है'कभी हाथ भी छोड देते हैं क्योंकि आपका मानना है लातों के भूत बातों से नहीं मानते।आप नहीं जानते कि इसका कितना बडा खामियाजा हमें भोगना पडता है।बच्चे उस समय तो चुप हो जाते हैं पर आपको लेकर उनके मन में जो धारणा बन जाता है उसे जल्दी नहीं बदला जा सकता है।बच्चे का मन समझने के लिये खुद बच्चा बनना पडता है।उसकी मानसिक स्थिति में खुद को रख कर देखिये तो समझ आयेगा कि दुनियां में कोई भी डांट खाना पसन्द नहीं करता है, किसी को भी अपनी आलोचना सुनना पसन्द नहीं होता। यदि बात को समझा कर कहा जाये ,तो बच्चे जरूर समझते है। मैं अक्सर मांओं कोएक वाक्य कहते सुनती हूं आने दे तेरे पापा को,आकर ऐसी पिटाई लगायेगें कि तुझे अक्ल आजायेगी। ये जुमले बच्चों के मन में पिता के प्रति नकारात्मक रूख पैदा करते हैं। अच्छा हो यदि बच्चा गलती पर है तो आप उसे उसी समय समझा दें।उसे अहसास करा दें कि तुम्हारी कई भी गलत जिद पिता अथवा मेरे द्वारा पूरी नहीं की जायेगी।
बच्चे बच्चे हीहोते हैं,और उन्हें बचपन में ही प्रोढ बना देना हमारा लक्ष्य नहीं होना चाहिये।कभी- कभी बच्चों का कसूर उतना बडानहीं नहीं होता जितना बडा दण्ड हम उनके लिये निर्धारित कर देते है।यहां तक कि चोरी और झूठ भी वह अपने किसी विशेष प्रयोजन से बोलते है। यदि उनका प्रयोजन वैसे ही सिद्ध हो जाये तो उन्हें गाली देने, झूठ बोलने और चोरी करने की नौबत ही नहीं आयिगी।
हमारे सोचने और करने के गैप को कम करके हम अपने लक्ष्य तक आसानी से पहुंच सकते हैं।
ReplyDeleteहम सोचने और करने के गैप को कम करके अपने लक्ष्य को पा सकते हैं
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