मुझे भी अपने बचपन में झांकने की याद आ गई! मैं कहानीकार तो नहीं हूँ और नहीं साहित्यकार! मैं तो ठहरा एक गाँव का ग्वाला हाँ वही गाय और भैंस चराने वाला ग्वारिया! हाँ तो बात तब की है जब मैं आठ या नौ साल का रहा हूँगा! रक्षा बंधन का त्यौहार था! मैं भैंस चराने गया था! दोपहर के समय भैंसें पोखर में जा कर बैठ गयीं! पोखर मैं पानी तो ज्यादा नहीं था, लेकिन मेरी ऊँचाई के हिसाब कहीं बहुत ज्यादा था! थोडी भूख भी लगाने लगी थी और ऊपर से घर जा कर पकवान खाने की जल्दी थी!
फिर क्या था आव देखा न ताव घुस लिया पोखर में भैंस के पास तो पंहुंच नहीं पाया लेकिन पानी जरूर सिर से ऊपर हो गया और मैं डूबने लगा! बुडुर बुडुर बुल बुले ऊपर आने लगे! मुझे कुछ पता नहीं, तभी एन मसीहे का हाथ मेरे सिर पर आ गया और मुझे पोखर के बहार निकाला! आज भी मैं उस मसीहे को याद कर के मैं बार बार नमन करने लगता हूँ! और बड़ी अच्छी तरह से अपने जेहन में यह बात उतरता हूँ कि "भगवान की कोई जाति, पांति या धर्म नहीं होता और न ही कोई स्वरुप" ! बस एक आम इन्सान कभी भी किसी के लिए मसीहा, फरिस्ता बन सकता है।
अवधेश नगाइच
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ईश्वर की ब़ई कृपा रही.
ReplyDeletebhav-poorn post
ReplyDeleteaisi ghatnayein humesha yaad rahti hain...aur jab tab dil ko dahla deti hain
ReplyDeletewasie mera bachpan bhi agra mein hi beeta hai
ReplyDelete1st class se 12th class tak wahin padha hoon
memories are the one whom are the real companions... nice narration..
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