Friday, February 19, 2010

कठपुतली

कठपुतली का खेल दिखाते

,बन गई औरत कठपुतली|

अपनी इच्छा और अनिच्छा 

डोर के हाथों दे डाली|

पढ़ना-लिखना डिग्री लेना

बात पुरानी हो गई अब|

अपने सोच को गिरबी रखना

उसकी किस्मत बन गई अब |

ऐसी होती  है कठपुतली 

जान गई है औरत सब|

अपने निर्णय खुद ले डालो

डोर का फंदा काटो अब |

अपने अंदर की शक्ति की

कीमत जल्दी जानो सब|

सोचा है अब कर ही डालो

कल पर कुछ भी छोड़ो मत|

आज हमारा अपना होगा 

कल को किसने देखा कब|

अपनी शक्ति को पहचानो 

भीख कभी  ना स्वीकारो|

तुम स्वयं में शक्ति पुंज हो

आओ  दुष्टों  को  संहारो|

4 comments:

  1. बहुत ही प्रेरणादायी कविता ! बधाई स्वीकारें !

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  2. भले हमें कठपुतली बनाने की कोशिश की जाए पर नाचना तो हमारे हाथ में है न?उसे तो नकार ही सकते हैं।

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  3. Kathputali banna hamare hath mein hai. Aaj ke is yug mein aurat kathputali bankar nahi rah sakti. Kanchan Verma

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