Friday, April 1, 2011

हम कौन खेत की मूली है ?

रुकावटें नहीं हटतीं तो न हटें
सफलताएं नही मिलतीं तो न मिलें
अपने पराए होते हों तो होते रहें
खजाने खाली होते हों तो हुआ करें
दोस्त मुँह फेरते हो तो फेरते रहें
मुझे सच में कुछ भी बुरा नहीं लगता |
बस मेरा विश्वास
मेरी मान्यताएं
मेरे संस्कार
मेरी लेखनी
मेरा उत्साह
मेरे आदर्श
मेरा सकारात्मक सोच
कहीं भी और किसी भी परिस्थिति में
मेरा दामन न छोड़े|
चलती रहूँ सत्यपथ पर
न सूखे मेरी ममता का स्रोत|
और कम से कम हिम्मत
तो जबाव न दे
तो देखना ये छोटी छोटी बाधाएं
ये गहराते से संकट
ये लम्बी चुप्पी
ये दोगली सामाजिकता
ये दोहरे व्यक्तित्व
भला क्या बिगाड़ पायेंगे
सिवाय इसके कि स्वयं ही
अडिग पत्थरों से
टकरा- टकरा कर
खुद अपना अस्तित्व खो दें|
और सच ,
गर्वोन्नत सच
अपनी तेजोमय गरिमा के साथ
अपनी धारदार प्रखरता के बल पर
फिर से प्रतिष्ठित
होगा इस भूतल पर |
धैर्य तो रखो बंधु
ज़रा विश्वास तो रखो|
जब राम ,मर्यादा पुरुषोत्तम राम
अकारण ही चौदह वर्ष
का वनवास झेलते हैं |
और पांडव वन-वन मारे फिरते हैं
योगीराज कृष्ण के जन्म से पूर्व
ही कंस क्रूर बन जाता है|
विवेकानंद और दयानंद भी
नहीं बखसे जाते तो
भला हम कौन
खेत की मूली है ?

1 comment:

  1. आशावादी सोच को स्थापित करती बहुत ही सार्थक प्रस्तुति ! इसी विश्वास को कायम रखें बाधाएं स्वयमेव दूर हो जायेंगी !
    मुद्दई लाख बुरा चाहे तो क्या होता है ,
    वही होता है जो मंजूरे खुदा होता है !
    और ईश्वर की मर्जी में निश्चित रूप से सबका हित छिपा होता है भले ही उसे हम अभी समझ न पा रहे हों ! बहुत सशक्त रचना ! बधाई स्वीकार करें !

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