इतना आदर इतनी महिमा,इतनी श्रद्धा कहां कभी
उमड़ा स्नेह सिन्धु अंतर में,डूब गई आसक्ति अपार
देह गेह अपमांन क्लेश छि:.विजयी मेरा शाश्वत प्यार
बहिन पुरुष ने मुझे पुकारा,कितनी ममताकितना नेह
मेरा भैया पुलकित अन्तर,एक प्राण हम हो दो देह
कमल नयन अंगार उगलते हैं,यदि लक्षित हो अपमान
दीर्घ भुजाओंमें भाई की,रक्षित है मेरा सम्मान
बेटी कहकर मुझे पुरुषने दिया स्नेह अंतर सर्वस्व
मेरा सुख मेरी सुविधा की चिंता,उसके सब सुख ह्रस्व
अपने को भी विक्रय करके ,मुझे देख पाये निर्बाध
मेरे पूज्य पिता की होती, एक मात्र यह जीवन साध
प्रिये पुरुष अर्धांग दे चुका,लेकर के हाथों में हाथ
यही नहीं उस सर्वेश्वर के निकट , हमारा शाश्वत साथ
पण्या आज दस्यु कहता है, पुरुष हो गया आज पिशाच
मैंअरक्षिता,दलिता,तप्ता,नंगा पाशबता कानाच
धर्म और लज्जा लुटती है,मैं अबला हूं कातर दीन
पुत्र ,पिता,भाई,स्वामी,सब तुम क्या इतने पौरुष हीन
Atisundar rachna WAAH ! WAAH ! WAAH !
ReplyDeleteKatu saty aur yatharth ko bahut hi sundar dhang se sarthak abhivyakti di hai aapne...badhai.
aap bahut bahut bahut achchha likhti hain
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