Monday, June 22, 2009

लो कहां आ गये हम्

हम पांच बहिनों और भाई की शादी की एक- एक रस्म मुझे मुंह जबानी याद है।उन 

दिनोंशादी के नाम पर घर रिश्तेदारों से भरा-पूरा रहता था। शाम होते ही घर की 
लड़कियां और बहुएं ढ़ोलक की थाप के साथ गीत गाना शुरु कर देतीऔर देर रात तक नाच-गाने का कार्यक्रम चलता रहता।और गाने भी देशी,वरना,वरनी,भात,घोड़ी,ढोला,रजना और बड़ी-बूढियों के गीत। इन गानों में घर के सभी रिश्ते-नातों का जिक्र होता था।
विवाह की शुरुआत दीदी या बुआ के देहरी सिरांने से होती थी।उन लोगों के द्वारा लाई गई मिठाई अपने परिचतोंऔर रिश्तेदारों के यहां बांटी जाती थी।उन दिनों भी नाउ और नाइन होतेहोंगें पर हम घर के छोटे बच्चे इस काम को खुशी- खुशी करते थे।आखिर हमारे भैया या दीदी की शादी जो थी।महीने भर पहिले ही हम बच्चों के लिये नये कपडे बनने शुरु हो जाते थे। लगन से पूर्व घर में गेहूं. साफ करने और मसाले पीसने का कार्य शुरु हो जाताऔर मोहल्ले की चाची,ताई, भाभी सभी इन कामों में बद-चढ कर भाग लेती।हर कार्य मंगल गीतों के साथ सम्पन्न होता था।लगन वाले दिन गाया जाने वाला “रघुनन्दन फूले ना समाय लगुन आई हरे हरे मेरे अंगना”आज भी उसी जोर- शोर के साथ गांव –देहातों में सुनने को मिल जाता है। वरनी गाते समय माहोल इतना कारुणिक हो जाता था कि लाडो और मां की आंखों से बहते आंसू सबको रुला जाते थे। सात या पांच दिन की लगुन हम बच्चों के लिये ढेर सारी खुशिया लेकर आती।किसी दिन हल्दी और तेल के गीत तो कभी घूरा पूजने की रसम ,कभी बूढे बाबू की पूजा तो कभीकुम्हार को बुलाकर लाना।कभी रतजगा तो कभी भात के गीत ।कब रात होती और कब सबेरा ,कुछ ध्यान नहीं रहता था।बस एक ही धुन ,एक ही खुशी कि हमारे घर शादी है।उन दिनों मुझे बडी-बूढियों के गीत कभी समझ नहीं आते थे बस एक आलाप सुनाई देता और शब्द कहीं खो जाते। समझदार होने पर पाया कि असली गीत तो वही होते थे। उन गीतों की एक बानगी यहां दे रही हूं-द्रष्टव्य हो कि ये गीत माता और पिता के सभी रिश्तों का प्रतिनिधित्व करते थे। जब मां ने मुझे विवाह सम्बन्धी गीत सिखाये तो मैंने रिशतों का इक क्रम अपने जेहन में सुरक्षित कर लिया और वह आज तक याद है।सबसे पहले बाबा-दादी,ताउ-ताई,पापा-मम्मी,चाचा-चाची,भाई-भाभी,बुआ-फूफा,नाना-नानी,मामा-मामी और सबसे अंत में मामा-मामी।लगभग सभी गीतों में इन रिशतों काजिक्र होता था।मेरा बाल मन कभी विरोध करता था कि मेरे सबसे अच्छे नाना-नानी का नाम सबसे बाद में क्यों लिया जाता है।खैर अब तो सब समझ आगया है। उस समय फिल्मी गीतों के आधार पर ये गीत नहीं गाये जाते थे। -माढे के बीच लाडो ने केश सुखाये।बाबा चतुर वर ढूढों,सयानो वर ढूढो, दादी लेगी कन्यादान , लाडो ने केश सुखाये।
इसी तरह सभी रिश्तेदारों के नाम लिये जातेहैं।एक और गीत है-मेरा सीकों काघरोंदा रे , बाबुल चिडिया तोडेंगी तेरा आंगन सूना रे ,बाबुल मेरे जाने से और फिर पिता का उत्तर मेरी पोती खेलेगी, लाडो घर जा अपने। तेरी गलिया सूनी रे, बाबुल मेरे जाने से तेरी सखिया खेलेंगी, लाडो घर जा अपने तेरी बगिया सूनी रे, बाबुल मेरे जाने से तुझे सावन में बुलाय लुंगा,लाडो घर जा अपने। भाई के द्वाराबहिन के बच्चों की शादी में जो सहायता दी जाती है, उसे ही भात देना कहा जाता है।शादी –विवाहों में सर्वाधिक गाया जाने वाला भात है- बहना चल मन्ड्प के बीच, अनोखा भात पहनाउंगा
सास तेरी को कोट पेंटऔर टाई लगाउंगा
ससुर तेरे को साडी जम्पर चुनरी उडाउंगा आगे इसी तरह जेठ –जिठानी.देवर-दौरानी,ननद-ननदोई के नाम लिये जाते है।
लगभग सभी गीतों में कन्या और वर पक्ष के माता-पिता, भाई- भाभी,बहिन-बहनोई और सभी रिश्तों को आधार बनाया जाता है।ये गीत कहीं न कहीं कन्या और वर को इन रिश्तों की अहमियत बताते हैं।विवाह के समय सम्पन्न की जाने सभी रस्में जीवन की व्यावहारिक समस्याओं से जुडी हुई है।पर आज का परिद्रश्य बिल्कुल बदला हुआ है।शादी को दो परिवारों का बन्धन नहीं, केबल दो और नितांत दो व्यक्तियों का आपसी समझोता मान लिया गया है।शादियों मे होने वाले महिला संगीत का रूप बिल्कुल बदल गया है।केवल कुछ प्रोफेसनल द्वारा गाना बजाना होताहै,फिल्मी गीतों पर बच्चिया न्रत्य करती करती है।इन गीतो और न्रत्यों में लोक तो इतना धूमिल हो गया हैकि ढूढने पर भी नहीं दिखता।
इस सबका परिणाम यह है कि रिशते अपनी गरिमा खोते जा रहे है।आपासी तनाव और वैमनस्य बढ रहे हैं।अभ भी समय है कि इन पुराने रीति- रिवाजों और गीतों को न केवल सुरक्षित रखा जाये बल्कि इन गीत और लोक्ंरत्यों के निहितार्थोंको समझा जायें।जिसके पास जो कुछ भी है वह नयी पीढी को इन सबसे परिचित करायेऔर इसके महत्व को रखांकित करें।हो सकता है हमारा ये गिलहरी प्रयास संसक्रति संरक्षण में कोई चमत्कार दिखाजाये।

1 comment:

  1. आज पुराने रीति- रिवाज नयी पीढी के लिये बेकार लगता है क्योकि वह आज की आधुनिकीकरण भुल गये है ।
    हमारे सन्स्कार हमारे रीति- रिवाज से ही जिन्दा है

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