Sunday, October 31, 2010

मेरी भी बात सुनो मम्मा

जी हाँ ,बच्चे को स्कूल भेज कर इतने निश्चिन्त मत हो जाईये|अपने लाडले के लिए शहर का चुनिन्दा स्कूल खोज कर और उसकी फीस भरकर ही आपका दायित्व समाप्त नहीं हो जाता | नवंबर कान्वेंट विद्यालयों में नन्हे मनों के प्रवेश का समय होता है हर तरफ मारा-मारी है माता पिता हीनही पूरा परिवार उनके प्रवेश को लेकर चितित है | और अब पूरी जुगाड लगाकर प्रवेश भी हो गया है |माता बहुत खुश है पर उस नन्हे मन पर दबाव बहुत अधिक है | सबकी अपेक्षाए उस नन्ही जान से जुड गई है|अंकों और प्रतिशत का भूत अभी से सवार हो गया है | मम्मियो के मन खुशियों से भरे-पूरे है | अब वह इठला -इठला कर बता रही है -पता है उस स्कूल में प्रवेश कितना कठिन है पर हम तो गंगा नहा लिए| मुझे आश्चर्य हो रहा है कि पहले तो बेटी के हाथ पीले कर माता-पिता गंगा नहाते थे अब उस शिशु के विद्यारंभ पर ही इति हो गई |
बच्चा नए माहौल और विदेशी भाषा के मध्य अपने को अजनबी पा रहा है | सुबह देर तक सोना चाहता है माँ के साथ बतियाना चाहता है पर स्कूल बस जो आगई समय हो गया | उसकी नींद भी पूरी नहीं होती तब तक तो उसे बिस्तर से निकालकर नहला धुला कर जबरदस्ती उनीफोर्म पहना कर ताईबेल्ट जूते मौजे से लैस कर जल्दी जल्दी नाश्ता करने के निर्देश देना शुरू हो जाता है | बेचारा क्या करे ?अभी तो वह ढंग से फ्रेश भी नहीं हुआ है पर क्या किया जा सकता है जबरदस्ती लाडले के मुह में नाश्ता ठूसा जारहा है ,पापा टिफिन और बस्ता लेकर खड़े है| सब उसके लिए ही किया जा रहा ही पर उसके मन में क्या चल रहा हैउसे कोई नहीं देखना चाहता | अब इतनी आपाधापी का युग है कि यदि मन वन पर ध्यान देने लगे तो उसके करियर का क्या होगा |उसे तो बहुत बड़ा डाक्टर या इन्जीनिय र नुमा जीव बनाना है और उसके लिए ही ये सारी कवायदे की जा रही है|
स्कूल पहुँच कर अपनी मेडम को अपने मन की बात बताना चाह रहा है पर वहाँ तो मेडम जी को पाठ्यक्रम पूरा कराबाना है | उनके पास कहाँ समय है इस बकवास को सुनाने के लिए | बस्जो कहा जा रहा है उसे चुपचाप रातो और लिखो| बस एक ही रत है अच्छे नंबर लाओ | भारी बोझ से लड़ा फदा अपराह्न में घर पहुंचता है और सोचता है अब तो छुट्टी हुई | पर माँ को जल्दी है उसे लंच कराने की ,स्कूल का काम पूरा कराने की ,और फिर ट्यूशन वाले सर भी तो चार बजे आजाते है | बेचारी क्या करे | बच्चा खेलने के लिए तरस रहा है उसका मन है माँ से ढेरो बाते करे ,अपने स्कूल की फिजूल वाली अपने दोस्तों वाली बाते बताएं , अपने दोस्त के विषय में बताना चाहता है पर उसे चुपचाप केवल वही करना है जो मम्मा कह रही है आखिर उसके करियर का सवाल जो है |
अब शाम हो गई ,अब होबी क्लास के लिए जाना है ,स्विमिंग पूल लेजाना है और अब कम्पूटर सीखना भी तो बहुत जरूरी है |लो सोचा था शाम तो अपनी होगी वह भी गई|
रात हो गई| पापा घार आगये हैं | आते ही पूछते है बेटा होम्बर्क पूरा हो गया है या नहीं और कुछ नहीं क्या पापा दिन भर बाद तो आपको देखा सोचा था माँ नहीं तो कम से कम आप तो गोदी लोगे कुछ मेरी सुनोगेपर आप भी| बच्चा रूआसा हो आया है | जल्दी जल्दी डिनर लगा दिया है बेटा जल्दी खाऊ और जल्दी बिस्तर पर जाओ नहीं तो सुबह स्कूल जाने में फिर देर हो जायेगी |
लो अब पूरी जिंदगी यही दिनचर्या जीनी है|

Thursday, October 28, 2010

लडकी की शादी के लिए क्या जरूरी है –शिक्षा ,नौकरी या दहेज ?

बात तो कई दिनों से मथ रही थी पर आज तो इंतहा हो गई और मैं यह पोस्ट लिखे बिना नहीं रह पाई।मेरी मौसी जात बहिन की शादी 18 नवम्बर की तय हुई,निमंत्रण पत्र भी भेज दिए गये ।मैं बहुत उत्साह में थी ,सबसे मिलने –जुलने का अवसर जो हाथ आया था। पति देव ने भी छुट्टियो के लिए आवेदन दे दिया था और मैं योजनाए बनाने में व्यस्त हो गई। कल शाम मेरे बहनोई का फोन आया । उन्होने जानकारी दी कि दीदी शादी केंसिल कर दी गई है क्योंकि ऐन वक्त पर लडके वालों की मांग बढ़ गई और मैं पूरा करने की स्थिति में नहीं हूं।फोन मेरे पति ने ले लिया और उन्हें सांतवना देने लगे , आपने बिल्कुल ठीक निर्णय लिया, हम आपके साहस की प्रंसंशा करते है और आपके साथ है।
बात तो केवल इतनी सी है पर मैं बहुत सारे सवालों से घिर गई हूं। यदि लडकी की शिक्षा दीक्षा की बात है तो लडकी उच्च शिक्षित है ,नौकरी पेशा की बात है तो बैंक
मेनेजर है, दहेज की बात करें तो कन्या के पिता मध्य्वर्गीय जरूरतों को पूरा कर लेते हैं जिस लड्के से सम्बन्ध तय हुआ वह नौकरी की दृष्टि से लड़्की से एक पायदान नीचे ही है फिर ये शादी क्यों न हो सकी ?पहले तो यह माना जाता था कि अपनी सामर्थ्य के अनुसार माता –पिता जो धन सम्पत्ति ,गहने आदि देते हैं ,उसे ही दहेज कह दिया जाता है । फिर माता-पिता अपनी लड कियों को पढाने लगे ।उनमें जागरूकता आई पर शादी की समस्या मे दहेज के मामले में कोई परिवर्तन नही हुआ। अब लडकिया शिक्षित भी हो गई लडकों के बराबर बल्कि उनसे एक कदम आगे ही ,नौकरी पेशा भी हो गई लेकिन दहेज की समस्या में कोई रियायत नहीं मिली । हम लडकियो की समझ में नहीं आता कि हम करें तो कया करें?
जब पढाई की बात आती है तब भी एक तनाव होता है कि यदि ज्यादा पढ लिख लिए तो मुसीबत कि उतना योग्य लडका नहीं मिला तो ,शोध के लिए जाएं तो शोध निर्देशक का पहला सवाल होता है _अरे भाई तुम् लडकियों के साथ एक ही मुसीबत है अब कहीं बीच में शादी वादी हो गई तो तुम शोध का कार्य क्या करोगी ,अपनी गृहस्थी में लग जाओगी पर यही प्रश्न कभी भी किसी शोध छात्र के सामने नही उठाया जाता जबकि शादी तो उनकी भी होती है ।
जोब के लिए जाये तो फिर वही प्रश्न कि शादी के बाद नौकरी कर पाओगी या नहीं । लगता है जिन्दगी के सारे प्रश्न केवल विवाह और विवाह से ही जुडे हुए हैं । कभी- कभी तो लगता है कि शादी केवल हम लडकियों की ही होती है क्या ?अब यदि किसी कारण से कहीं सम्बन्ध न हो पाये तो भी मीन मेख लडकी में ही निकाली जाती है अरे वो पहले से ही तेज है क्या किसी के साथ घर बसायेगी ।अरे पहले मां पिता की जिम्मेवारी तो उठा ले तब शादी की बात हो ।यदि परिवार में पुत्री ही पुत्री है और यदि कहीं अपने माता-पिता की देखभाल करने का संकल्प ले लिया तो और मुसीबत ।अब उसे शादी के बारे में तो बिल्कुल ही नहीं सोचना चाहिए। हमेशा से लडका अपने माता पिता के साथ रहता है शादी से पहले और शादी के बाद भी और यह बहुत सम्मान की बात समझी जाती है पर यदि आपने कन्या की योनि में जन्म लेकर कहीं गलती से भी इस विषय में सोच भर लिया तो समझो आफत आ गई। बेचारा लडका तो जिन्दगी भर बीच मझदार में पड जायेगा ।अब वह यदि अपनी पत्नी की बातों का समर्थन करता है तो अपने माता पिता की नजरों में ससुराल का मजनू कहलायेगा । आज तक समझ नहीं आया जिन मांबाप की सेवा करके बहू को पुण्य प्राप्त होता है ,उसी सेवा को करते हुए जामाता को निन्दा का पात्र बनना पड़्ता है और लड्की को भी लगातार आलोचना का पात्र बनना पडता है।यदि कडा दिल करके घर की बहू कहीं माता – पिता के विषय में सोचना प्रारंभ कर दें तो यह मान लिया जाता है कि वह ससुराल को क्या देखेगी उसे तो अपने पीहर वालो से ही फुरसत नहीं मिलती
मेरी अनेक मित्र है जिन्होंने आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लिया है । उनका पूरा जीवन किसी एक परिवार की सेवा और केवल अपनी ही संतानो के लिए नहीं वरन समाज के एक बडे वर्ग की सेवा में बीत जाता है। हमें तो खुश होना चाहिये पर इसमेंभी हमें इतराज हो जाता है हम खोद –खोद कर यह जानने में लगे रहते हैं कि आखिर उनकी शादी क्यों नहीं हुई ? जरूर कुछ कमी रही होगी और हम तब तक चुप
नहीं बैठते जब तक कि हम अपनेमन की संतुष्टि ना कर लें।कैसी गन्दी मानसिकता है और कैसे गन्दे समाज के बीच रहते हैं हम? कन्या के माता –पिता होना ही इतना दुर्भाग्य पूर्ण होता है कि वे कभी गंगा नहीं नहा पाते ?उच्च शिक्षा दिलाकर तो वे अपने
पैरो पर और कुलहाडी मार लेते हैं। फिर कहीं बच्ची की नौकरी और लग जायें तो माना तो यह जाता है कि सोने में सुहागा पर शादी के लिए यह भी एक समस्या ही है । मसलन जिस शहर में उसकी शादी हो रही है क्या वहां लडकी को नौकरी मिल पायेगी?
क्या लडकी नौकरी के साथ अपने विवाहोपरांत के दायित्वों को पूरा कर पायेगी ? अब उसके सामने दो ही विकल्प हैं या तो वह नौकरी छोड दे और नई स्थितियों मे स्वयम को समायोजित कर ले अथवाऐसी नौकरी खोजें जिससे घर और परिवार बाधित न हो ।
अब इन स्थितियों में क्या यह ज्यादा उचित नहीं है कि वह नौकरी विवाह के बाद ही करना शुरु करे।उससे पूर्व वह स्वयम को नौकरी के लिए तैयार अवश्य कर ले, अपनी शिक्षा दीक्षापूरी कर ले ।
बस आज इतना ही पर मेरी बात अभी पूरी नहीं हुई ।बाकी का अगली पोस्ट

Monday, October 25, 2010

आओ बातें करें।

पाठक गण, आपको आज का विषय अटपटा लग सकता है पर कितना जरूरी है इस छोटे से मुद्दे पर बात करना । आपने प्रताप नारायण मिश्र का आलेख बात तो पढा ही होगा ।तब से कितना पानी गुजर गया पर बात अपनी जगह अब भी कायम है। यह भी हो सकता है कि आज संचार् क्रांति के युग में फोन ,चेटिंग और एस एम एस ने बातों की जगह ले ली हो ।
और अब आमने सामने आप किसी से बातें करने का मौका न पाते हों। हम कितना बोलते हैंऔर कैसा बोलते हैं क्या कभी इस पर विचार किया है? क्या बोलने से पहले हम अपने शब्दों को तौलते है ? क्या जिससे बातें की जारही है उसके पद और गरिमा का ध्यान हम रख पा रहे है ं? हमारे मुंह से निकला एक एक शब्द कभी व्यतर्थ नहीं जाता ।हमारे शब्द किसी के चेहरे पर प्रसन्नता ला सकते हैं उअर किसी के चेहरे के नूर को छीन भी सकते हैं।कुछ दिनों पूर्व हमारे यहां एक सज्जन आये । यदि उनकी बातों का पूरा ब्योरा यहां दूं तो आप स्वत: ही समझ जायेंगे कि वे ह्रजरत ्पूरे समय केवल अपना गुणगान ही करते रहे ही करते रहे ।कभी- कभी तो अपने को इतने ऊंचे पाय्दान पर रख देते कि सुनने वाले को खीझ पैदा हो जाती।इतना बडबोला होना ठीक नहीं ।
बोलने से पहले शब्दों का चुनाव करें,उनकी वाक्य में स्थिति निशिचित करें ,माहौल का ध्यान रखें किसी खुशी के अवसर पर गये हैं तो वहा6गमी के े प्रसंग न सुनायें ,किसी बीमार को देखने गए हैं तो स्वस्थ होने की बातें करें न कि उन् प्रसंगों को छेडे जिनमें उस तरह के मरीज चल बसे हों। जीवम मृत्यु तो निशिचित है पर आप्की बातें बीमार और उनकेघर वालों पर बहुत प्रभाव डालती हैं।शादी सम्बन्ध के मामलों में बातें करते समय तो और भी सतर्क रहना चाहिए। सब कुछ सच बता देने पर कम से कम सम्बनधों में कटुता नहीं आती। पहले सब्ज्बाग दिखाकर सम्बन्ध तो तय किए जा सकते हैं पर उनका अंत कभी सुखद नहीं हुआ करता। भले ही यह सुझाव आपको व्यावहारिक न लगे पर सोलह आने सच तो यही है कि बातोमें स्पष्टता आपकी स्थिति को मजबूत बनाय्रए रखती है।
बहुत अधिक बोलने वाले अक्सर मात खा ही जाते है । बचपन में जब कहीं पत्र भेजना होता था तोमां कहती थी बेटा पहले रफ कागज पर ल्ख लो कहीं सक्शात्कार देने जाना होता तो उसका अभ्यास पहले घर पर करने की सलाह दी जाती थी ।आज मुझे उन सब बातो का औचित्य समझ आता है।बातें तो सभी करते हैं पर सोच समझ कर बोलंने वालों की तो बात ही कुछ और होती हैं।

Thursday, October 21, 2010

हम स्वयं में खुश क्यों नहीं रह पाते ?

हमारा अपना वजूद इतना छोटा हो गया है कि हमने सारी खुशियों का आधार दूसरो को मान लिया है |कल हम इसलिए दुखी थे कि सामने वाले ने हमें तरजीह नहीं दी और आज इसलिए दुखी है कि मिस्टर क हमसे खुश नहीं है ,आने वाले दिनों में हम इसलिए परेशान रहेंगे कि हमें हमारा मनाचाहा नहीं मिला |क्यों भाई ,क्या हम स्वयं में खुश रहने की आदत नहीं डाल सकते | हमेशा अपने दुःख के लिए सामने वाले को दोषी ठहराना जरूरी है क्या?हम स्वयं में झाकने की कोशिश क्यों नहीं करते ?क्या हमारे साथ जो भी घटा ,उसके लिए हमेशा तीसरा व्यक्ति ही जिम्मेदार होता है / हम उसी काम को ही तो करते है जिसमे सुख मिलता है |यदि हम दबाव में काम कर रहे है तो हमें सोचना होगा आखिर हम उस दबाव में क्यो है ?कही ऐसा तो नहीं हम स्वयं भी उस कार्य में रुचि रखते है और ठीकरा दूसरों के सर फोड देते है | मेरी दोस्त ने मुझसे कहा - हा मुझे भी पता होता है कि यह काम गलत है पर दूसरों के संतोष के लिए मै ऐसा कर देती हूँ |बाद मे मेरी आत्मा मुझे बहुत कचोटती है |अब या तो उन्हें अपनी आत्मा की आवाज् सुननी चाहिए अथवा जो किया उसमे खुश रहना चाहिए था | मैंने उनसे प्रश्न किया जब आपको पता है कि यह कार्य अनुचित है तो आपने आखिर उसे किया ही क्यों ?बड़ा रटा हुआ सा जबाव मिला -यदि मै ऐसा नहीं करती तो मुझसे मेरे अपने नाराज हो जाते |इसका अर्थ तो यह हुआ कि कही न कही आपके मन में भी उस गलत के प्रति मोह रहा होगा | कहने के लिए कह देना और फिर अंतत: वही करना तो ऐसे विरोध का आखिर अर्थ ही क्या हुआ |प्रत्येक व्यक्ति कम से कम अपने विषय में तो जानता ही है अपनी शक्तियों को भी पहचानता है फिर अपनी सीमाओं में खुश रहना क्यों नहीं सीख लेता | उतने ही पैर क्यों नहीं पसारता जितनी उसकी चादर है| दर असल हम अभी तक अपने से ही अनजान है |हम अपनी शक्तियों को परखे विना ही दूसरों के बल पर अपने काम का निर्धारण करते है | हमारी अपनी प्रकृति क्या है , हम् कितना सह सकते है ,हमारी खुशियों का आधार क्या है ?यह सब सोच कर ही जिन्दगी में निर्णय करे|
अपने चारों ओर अपना दायरा बनाए ,उनमें अपनी खुशिया खोजे |अपनी रूचिया जाने |अपने शौको को विकसित करे | खुश रहने के तो अनेको तरीके है ,बच्चे की मुस्कराहट मे खुशिया ढूढे ,किसी जरूरत मंद की सहायता करे और देखे आप कितने खुश हो जाते है ?खुश रहने की की तो कोई सीमा नहीं , अच्छी पुस्तक पढ़े और खुश हो जाए ,आसमान मे उड़ते परिंदों को निहारे और खुश हो ,रचनात्मकता आपको सदैव खुश रखेगी , अच्छा सोचे ,सकारात्मक विचार रखे ,मन को आनंद की अवस्था मे बनाए रखे |भय को अपने ऊपर हावी ना होने दे ,आपकी खुशी आपके हाथो मे है |उसे ढूढने की कोशिश तो कीजिए|

Tuesday, October 5, 2010

मैं भी पढ़ने जाऊंगी |

माँ मेरा भी नाम लिखा दो
मैं भी पढने जाऊँगी
अ आ इ ई उ ऊ सीखूं
ज्ञानवान बन जाऊंगी |

गिनती और पहाड़े रटकर
घर का बजट बनाऊँगी
दीदीजी का कहना मानूं
घर को स्वर्ग बनाऊँगी|

तुम भैया को पढने भेजो
मैं तेरा हाथ बटाऊँगी
घर का सारा काम खत्म कर
फिर मै स्कूल जाऊंगी|

तुम जो कहती मै सब मानू
पर तुम भी तो जानो माँ
माँ तू भी तो एक बेटी है
उस का दिल पहचानो माँ| |

नानी मेरी तुझे पढाती
तो क्या तू पढती ना माँ
अपना साहस आत्मबल तो
पढने से ही आता माँ |

बच्ची की सुन भोली बातें
गले लगाया माता ने
बस्ता लाई कापी लाई
नाम लिखाया माता ने |

Monday, October 4, 2010

करवट

मौसम बदल रहा है
नीयत बदल रही है
किस्मत हमारी देखो
मुँह ढकके सो रही है |

हमने कुरान बांची
गीता भी सुन चुके हैं
आरती परमपिता की
रोज कर रहे हैं|

न जाने क्योंकर रूठी
किस्मत हमारी हमसे
सुबह भी हो चुकी है
करवट न बदली उसने|

कोशिश भी कर चुके हैं
हम धैर्य रख चुके हैं
कभी हम बरस चुके हैं
अब रीते हो चुके हैं|

आख़िरी है कोशिश
और दांव आख़िरी है
कर्मों के हम पुजारी
किस्मत भुला चुके हैं|

ताकत न हमने परखी
अपने ही बाजुओं की
अब समझ चुके हैं
कटवट बदल चुके हैं|