Wednesday, June 3, 2009

अब क्यों नहीं होती गर्मियोंकी छुट्टियां?

अब क्यों नहीं होती गर्मियों की छुट्टियां?
जून की तेज गर्मी और याद आता है नानी के घर का बडा सा अहाता,मामा और मौसी के बच्चों के साथ मचाई धमा चौकडी,नानी का ढेर सा दुलार ,नानी से मां की शिकायते, पढाई लिखाई से पूरी तरह से छुट्टी।पहली जुलाई,रिचार्ज और रेफ्रेश हुए हम ,नई नई चमक दार किताबें,स्कूल का पहला दिन, सभी बच्चे अपने –अपने अनुभव सुनाने को बेताब ,बारिश के धुले –पुछे से चेहरेऔर मन में ढेरों उमंगें। और अब सत्र ही बदल गया।अप्रिल में ही शुरु होता नया सत्र,छु ट्टियों के लिये ढेरों होमबर्क् और कहीं बाहर जाने पर यह डर कि यदि होमबर्क पूरा नहीं हुआतो।आज के बच्चे नाममात्र की छुट्टी में भी समर केम्पों में व्यस्त हो गये है।इन केम्पो मेंफिल्मे गानों और न्रत्य की भरमार है।बच्चों से घर पूरी तरह छूट रहा है।उसे अचानक बडा मान लिया गया है।स्कूल ,ट्युशन/कोचिंग.स्पोर्ट्स ,स्विमिंग,औरभी न जाने क्या ।घर उसकी प्रतीक्षा नहीं करता।दो आतुर बाहें उसे अपने में समेटने को आगे नहीं बढती। देर रात पिता के आने से पहले ही वह निढाल होनों सो चुकाहोता है।दादी-नानी की कहानियों से मरहूम है वह।उसका भविश्य अंकों और डिवीजनों से आंका जारहा है। 
अब उसे अंत्याक्षरी में हिन्दी कवितायें,प्रार्थना,दोहे,चौपाई ,सोरठा,कवित्त,नहीं रटाये जातें।अपने आस-पास के वातावरण में बजते द्विअर्थी गीत उसकी जुबान पर चढ चुके है।जिन बातो का अभी बह अर्थ भी नहीं समझता,उन्हें बेहिचक बोल देता है। आखिर हम माता –पिता केबल स्कूलों की पढाई पर ही क्यों निर्भर है।इन छुट्टियों का उपयोग अपने बच्चों को कुछ नया सिखाकर क्यों नहीं कर लेते।हम बच्चों को ग्यान का बंडल तोजरूर थमा रहे है लेकिन जीवन में आने वाली व्यावहारिक परिस्थितियों से मुकाबला करना नहीं सिखा रहे।उसे सही बात पर स्टर्न रहना नहीं सिखा पाये हैं।यह तो सच है कि आज का बच्चा बहूत कुछ जानता है पर अभी सब कुछ सैद्धातिक समझ है, इन छुट्टियों हम उसे कुछ व्यावहारिक बातें बताना शुरु करेंऔर इस काम को माता-पिता खुड ही करें ,यह काम पैसे देकर दूसरों से नहीं करवाया जा सकता।

4 comments:

  1. अच्छा विश्लेफण है। पहले परिवार का एक हिस्सा गांव में रहता था, और एक शहर में। मुख्य हिस्सा गांववाला होता था। छुट्टियों में बच्चे गांव जाते थे अपने नाना-नानी, दादी के पास।

    अब न्यूक्लियर फैमिली का जमाना है। उसका किसी अन्य परिवार से कोई संबंध नहीं रहता। इसलिए बच्चे, चाचा, मामा, दादा, नाना से वंचित होकर अकेले बढ़ रहे हैं। इसलिए छुट्टियों में वे अपने माता-पिता को बोझ प्रतीत होते हैं जो यही सोचते हैं कि कब स्कूल खुलेगा और ये शैतान कब घर से दूर होंगे। बच्चे भी टीवी, कंप्यूटर, किताबों से बोर होकर सोचते रहते हैं कि स्कूल खुले तो जान छूटे।

    बच्चों का बचपन अब पहले जैसा नहीं रह गया है। वे समय से पहले ही बड़े हो रहे हैं। कंपटीशन का जमाना है। यह "विकास" अच्छा है या बुरा मैं नहीं जानता। लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि मेरा बचपन मेरे अपने ही बच्चों के बचपन से कहीं रोचक था।

    पर यह भी सही है कि मेरे बच्चों को उनका बचपन प्रिय ही हो।

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  2. सच कहा आपने..छुट्टियाँ तो अब भी होती है लेकिन उन्हें सम्मर.. केम्प और हॉबी क्लास्सेस ने निगल लिया है...!माँ बाप इससे बच्चों को व्यस्त तो रखते है...पर उससे ज्यादा बहुत कुछ खो रहे है...जिसका खामियाजा अंतत सब को उठाना पड़ता है...

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  3. भई अब क्या हों गर्मी की छुट्टियां हो भी जाएं तो, गांव कहां और गांव में रहता कौन है जिससे मिलने की इच्छा में छुट्टी मिलते ही भागे जाएं

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  4. पहले तो गर्मी की छुट्टियां नहीं होतीं हो भी जाएं तो, गांव कहां और गांव में रह कौन रहा है जिससे मिलने के लिए छुट्टी मिलते ही भागें

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