Thursday, July 16, 2009

जिन्दगी

गडबडाती जिन्दगी के लडखडाते पहिये

हर कदम पर ठोकर से आहत हो,
सवालिया नजरो सेमुझसे मुखातिब होते हैं।
हकला- हकला कर एक ही बात दुहराते है
आखिर उन्हें बदल क्यों नही जाता?
या रास्ते की ईंट पत्थरोंको सलीब पर लटका क्यों नहीं दिया जाता?
मैं पहियों की सबालिया नजरोंसे निगाहें मिला नहीं पाती

अपनी ही नजरों में गिरती,न तो पहिये बदल पाती हूं

और न ठोकरी ईंटो को सलीब पर चडा पाती हूं
विवश होती,उन्ही पहियों की गाडी को
खुरदरी सडक पर ,डगमगाने के लिये छोड देती हूं।















2 comments:

  1. और न ठोकरी ईंटो को सलीब पर चडा पाती हूं
    विवश होती,उन्ही पहियों की गाडी को
    खुरदरी सडक पर ,डगमगाने के लिये छोड देती हूं।

    gehre hav,bahut achhi lagi rachana.badhai.

    ReplyDelete
  2. जिंदगी विवश होने के लिये नहीं उसे समझ कर तालमेल बिठाने से बडी खूबसूरत हो जाती है।

    ReplyDelete