क्या अब मान लिया जाए
कि मेरी -तेरी -इसकी -उसकी
संवेदनाएं चुकती जा रही है?
अब सब कुछ भौतिक संपदा
के दायरे में सिमटता जा रहा है ?
मनुष्य अपने झूठे अभिमान
के वशीभूत हो
केवल कागज़-कलम के
शब्दों में बंधता जा रहा है ?
यदि यही सच है
तो क्या मानव मानव रह पायेगा ?
वह केवल कुछ लिखित नियमों
के दायरे में ही अपनी
जिंदगी कैद नहींरखता|
जाने-अनजाने बहुत ही
संवेदन शील होने का
स्वांग भी रचता है|
अपने -पराये के विभेद का ध्यान रखते
वह कभी मोम सा कोमल होता है
तो कभी वज्रादपि कठोर भी होता है|
मतलब संवेदनायें मरा नहीं करती
केवल अपने
पराये के दायरे में
सिमट भर जाती है|
उनकी संवेदनाओं का विस्तार
नहीं हुआ करता |
अर्थात मानव
संवेदनाओं का दास नहीं हुआ करता
अपितु वह संवेदनाओं को
अपने अनुकूल बदलने में
माहिर हुआ करता है |
यह भी एक बाजार है
जहां सब कुछ मतलब पर, स्वार्थ पर
आधारित होता है|
कुब्बत तो आपकी है
कि आप किसकी संवेदनाओं
को कितना भुना पाते हैं|
"कुब्बत तो आपकी है
ReplyDeleteकि आप किसकी संवेदनाओं
को कितना भुना पाते हैं|"
रेखांकित करने के लिए रचना में और भी बहुत कुछ है. सच को आयना दिखाती शानदार रचना के लिए बधाई स्वीकारें - सादर साभार.