Friday, January 29, 2010

संवेदनाओ का बाजार

क्या अब मान लिया जाए 

कि मेरी -तेरी -इसकी -उसकी 

संवेदनाएं चुकती जा रही है?

अब सब कुछ भौतिक संपदा 

के दायरे में सिमटता जा रहा है ?

मनुष्य अपने झूठे  अभिमान 

के वशीभूत हो

केवल कागज़-कलम के 

शब्दों में बंधता जा रहा है ?

यदि यही सच है

तो क्या मानव मानव रह पायेगा ?

 वह केवल कुछ लिखित नियमों 

 के दायरे में ही अपनी 

जिंदगी कैद नहींरखता|

जाने-अनजाने बहुत ही

संवेदन शील होने  का

स्वांग भी  रचता है|

 अपने -पराये के विभेद का ध्यान रखते

वह कभी मोम सा कोमल होता है

तो कभी वज्रादपि कठोर भी होता है|

मतलब संवेदनायें मरा नहीं करती 

केवल अपने

पराये के दायरे में 

सिमट भर जाती है|

उनकी संवेदनाओं का विस्तार 

नहीं हुआ करता |

अर्थात मानव

संवेदनाओं का दास नहीं हुआ करता

अपितु वह संवेदनाओं को

अपने अनुकूल बदलने में 

माहिर हुआ करता है |

यह भी एक बाजार है

जहां सब कुछ मतलब पर, स्वार्थ पर 

आधारित होता है|

कुब्बत तो आपकी है 

कि आप किसकी संवेदनाओं 

को कितना भुना पाते हैं|

1 comment:

  1. "कुब्बत तो आपकी है
    कि आप किसकी संवेदनाओं
    को कितना भुना पाते हैं|"
    रेखांकित करने के लिए रचना में और भी बहुत कुछ है. सच को आयना दिखाती शानदार रचना के लिए बधाई स्वीकारें - सादर साभार.

    ReplyDelete