Sunday, May 23, 2010

अकेली नहीं हो खोखी

बेनीमाधव मेरे पडौसी हैं |बचपन में उनकी अंगुली पकड़कर कर मैंने चलना सीखा है|जामुन और आम के पेड़ों पर पत्थर फेंकते कई बार उनके हाथों पिटी भी हूँ|खोखी इन्ही चाचा की एकमात्र पुत्री है|कभी कपड़ा काड़ने तो कभी चित्रों में रंग भरने में खोखी दीदी मेरी मददगार रही है|मोहल्ले में बेंड-बाजे बजते तो लीडर दीदी हमें बरात दिखा लाती |हर दूल्हे में कुछ न् कुछ कमी निकालते हम बच्चे कभी दीदी की बातों पर खिलखिलाए तो कभी ठुनके पर दीदी हमें हर बार मनाती रही |हमउम्र लड़कियों के शादी -विवाह मेंदीदी कुछ गुमसुम रहने लगी |एडी तक लहराते बालों को झटक कर जूडा बनाती हुई एक कमरे में दुबकी पड़ी रहती |धीरे -धीरे  वे बच्चे जो दीदी की गोद में खेले थे, अपना संसार बसा घर-गृहस्थी में रम गए|दीदी को देखने की फुर्सत अब किसके पास है?

   खोखी दीदी के घर भी दो बहुए आई है   पर लाडली पुत्री के योग्य वर आज तक नहीं मिल पाया और अब उसे भाभियों ने मनहूस करार दे दिया है जिनके श्रृंगार करने में,दासत्व निभाने में दीदी ने अपने जीवन की सार्थकता समझी थी |कभी उनका लंबा कद,गौर वर्ण और स्मार्टनेस लड्कियोंके लिए ईर्ष्या का विषय हुआ करती  थी ,उनकी शालीनता की दाद दी जाती थी ,आज वही कड़ उनका शत्रु बन बैठा है,कंधे झुकाकर जैसे वह अपने को बौना बनाने पर तुली है,गौर वर्ण समय की मार झेलते कुंद हो गया है |आज वही दीदी जब मुझे अपनी माँ के साथ  बाजार में मिल गई ,मैं दौडकर उनके पास पहुँची,हाथ छूकर बोली ,खोखी दीदी हो ना,बनी चाचा कैसे हैं?माँ मुझे एकदम देखती रही फिर जल्दी-जल्दी बेटी से बोली ,"चलिबे खोखी,रास्ते में बातें ना करिबो|"

 उनकी हिन्दी बंगला सुनकर मैं ही बोल उठी थी ,चाची,मैं अपर्णा हूँ ,कार्तिकेय की बेटी |अच्छा-अच्छा तुमी अर्पणा ,बम्बई से कब लौटी,दुल्हा कहाँ है ?बनी चाचा की पत्नी से मैं हमेशा डरती थी |रौबीला व्यक्तित्व था उनका|किसी जमाने में हम उन्हें मोहल्ले की डिक्टेटर  कहते थे |अब तो बहुत दीन-हींन लग रही थी |ढलती उम की बेटी का सोच उन्हें अंदर ही अंदर तोड़ रहा था |मैं चाची  को विस्तार से बताने लगी ,चाची अकेली आई हूँ |दीदी से मिलना चाहती हूँ|इन्हें अपने घर ले जाऊं ?चाची की शंका अभी मिटी नहीं थी -काहे जाबे खोखी, तुमी कल आइबो |"जाते-जाते दीदी की आँखों में तैरता गीलापन मुझे भिगो गया |

   दीदी का हाथ दबा मैं आगे तो चल दी ,पर पलट-पलट कर अपनी उस खोखी दी को बार-बार देखती रही जोई अपने कंधे जुका कर अपने लंबे कद को छोटा बनाए हुई थी ,कजरारे नेत्र नीचे झुके हुए थे और अविवाहिता दी को बाहर जाने के लिए बूढ़ी माँ को गार्ड बनाकर ले जाना होता|मुझे अपना रक्त जमता नजर आरहा था | खोखी दी का धुंधला चित्र मेरे ऊपर हावी होता जा रहा था |क्या अविवाहिताओं की यही परिणिति है ? क्या उनकी पढाई-लिखाई ,सीना-पिरोना, रूप-कद-काठी केवल एक नए घर की तलाश के लिए होता है ? यौवन की अठखेलियाँ पति कहे जाने वाले पुरुष की धरोहर होती हैं और अगर वह साथी न् मिले तो अपनी स्मार्टनेस ,अपने लंबे कड़ और रूप-रंगत को तिजोरी को तिजोरी में बंद  कर एक लंबी उम्र को यूंही काटना होता है|सूनी मांग लिए खोखी जैसी बहिने अपने परिवार पर बोझ बन जाती है|एक व्यक्तित्व जो अपना निर्णय लेकर की जीवनों को मुक्ति दिला सकता था, हजारों असहायों का सहाय्य  बन सकता था ,आज सड-गल रहा है|सामाजिकता के बंधन ने उसका गला घोंट दिया है|कुछ न कहकर भी दीदी मुझसे बहुत कुछ कह गई है-अपर्णा , तुम भी तो नियति की शिकार हो,तुम्हारा भाग्य अच्छा था जो एक अच्छे परिवार की स्वामिनी बन बैठी ,मांग में दमकता सिन्दूर तुम्हारा रक्चक है और पांव की अँगुलियों के बिछुए तुम्हारा पथ खोल देते हैं | पर हम जैसी कहाँ जाते?पति न् मिलना हमारा अपराध घोषित किया गया है | मन-बहलाब के लिए किसीसे बात कर लें तो तो उंच-नीच का डर रहता है|कुछ करें तो सुनने को मिलता है-सारा दिन खाली ही तो रहती हो,चार कपडे सिल दिए तो कौन पहाड़ टूट पड़ा ?मांबाप का प्यार अब सुबह-शाम रोटी देने की मजबूरी बन गया है | वह भोजन मुझसे कहाँ सटका जाता है अपर्णा ,हाथ का निबाला पानी पीकर निगल लेती हूँ,थाली सरका नहीं सकती ,अभी घर की बहुए आयेंगी और कहेंगी-हमारा पति दिन-रात हाड तौडकर कमाए और तुम नाली में बहाओ|"

    शाम का  धुन्द्ल्का का मेरे जीवन पर छा गया है | वह कौन है जो इस जाल को तोडेगा?दी ,तुम्हारी बातें सच है ,पर तुम अकेली कहाँ हो ?तुम जैसी न जाने कितनी खोखिया है जो अपने जीवन को इसी रूप में बिताने को विवश हैं|पर तुम सबकी परिणिति यह नहीं है|अपने को यहाँ तक लाने की जिम्मेवार भी तो तुम ही हो |कभी परिवार की रक्षा तो कभी समाज का डर ही तुम्हारा घेरा रहा है ,उन सबसे हटकर अपने लिए तुमने सोचा ही कब है? क्याकभी  खुद पर लादा बोझ झटक पाई हो ,कभी खड़े होकर कहा है,-माँ ,मैं अकेली चल सकती हूँ |तुम्हारा साया मेरे ऊपर रहे पर मुझे इतना लंगड़ा मत बनाओ कि बिना बैशाखियों के दो कदम भी न चल पाऊ | कभी अपने आत्मविश्वास को टटोल कर देखा है,तुम्हारे उठ खड़े होने भर होने की देर हैं ,इक जमात तुम्हारे इशारे पर अपने सर कटा देगी,बचपन जैसी नेतागीरी करके देखो  तो सही | तुम अकेली कहाँ हो? आदेश देकर देखो तो सही, सैकड़ों खोखियाँ तुम्हारे निर्णय पर हाथ उठा देंगी |पूरी एक टीम नेतृत्व के इन्तजार के खड़ी है |तुम्हारी नन्ही अपर्णा भी अब बड़ी हो गई है अपनी दीदी का साथ देने के लिए |हाँ खोखी दीदी ,तुम अकेली कहाँ हो 

4 comments:

  1. "हाँ खोखी दीदी ,तुम अकेली कहाँ हो"
    इतना कहकर हिम्मत दिलाना ही बहुत है उनके लिए वरना औरों के लिए सोचने की फुर्सत भी आज किसी को कहाँ है

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  2. बहुत प्रेरणाप्रद और सार्थक कहानी ! कोई तो हो जो इन परिस्थितियों से गुजरने वाली युवतियों का आत्मविश्वास उन्हें लौटा सके, समाज में उनकी सार्थकता और उपयोगिता का यकीन उन्हें दिला सके ! गंभीर विषय को छूती एक संवेदनशील प्रस्तुति ! बधाई एवं शुभकामनाएं !

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  3. समाज का कडवा सच उजागर किया है आपने इस विषय पर लेखन जारी रखिए.आज भी हमारा समाज इस समस्या से आक्रांत है.
    "समर शेष है,नहीं पाप का भागी केवल व्याध.
    जो तटस्थ है,समय लिखेगा उनके भी अपराध.."

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  4. आत्मविश्वास जगानाबहुत जरूरी है।इसके बिनाकुछ हासिल नहीं होगा

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