Saturday, June 5, 2010

बिजूके

पिताजी
यानी स्नेहिल सा स्पर्श
आवश्यकताओं को कहने से
पहले ही समझने वाले
कभी अंगुली थाम
तो कभी कंधे पर
कभी पीठ पर बिठा
तैराते यमुना में
कभीमेले में घुमाते
तो कभी बस में बिठा
अपने बचपन को शेयर करते |
ऐसे मेरे पिता
ना जाने कब और क्यों
एक दिन अचानक
बिजूके ं हो गए|
मैं समझ ना पाई |
कभी खेत में लगे
मुखौटेको देखकर
पूछा था पापा-पापा ये क्या है
लाली ,खेत की रखवाली
करते है ये बिजूके
और हतप्रभ होती
मैं जान ना पाई थी तब
ये अशक्त बिजूके क्या रक्षा
कर पायेंगे खेतों की
क्या डरेंगे पक्षी
इस कपडे पहनेबांस से
पर जब पिताजी का स्वर्गवास हुआ
तब जाना बैठक में चुपचाप बैठे पिता
बीमार पिता ,अशक्त पिता
घर की रक्षा के लिए
बिजूके बने रहते |
और हम वयस्क होते भी
सब कुछ उन पर छोड़
बहुत ही निश्चिं त रहते थे|
न जाने क्यो
ं तब से घर की बैठकमें
बैठे बुजुरगों के चेहेरों पर
मुझे बिजूके चिपके नजर आते हैं|

5 comments:

  1. बेहद भावपूर्ण!

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  2. द्रवित करने वाली एक यथार्थवादी पोस्ट ! बुजुर्गों का साया बहुत भाग्यशालियों को नसीब होता है !

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