Monday, March 29, 2010

माँ

सत्यवती राठोर ,इन्द्रसेन की परिणीता है|भरा-पूरा घर है |ससुराल मायका सब संपन्न है |सत्यवती उर्फ सत्या इन्द्र के आँखों की पुतली है पर फिर भी क्या हैऐसा जो हर पल सत्या को बैचेन किये रहता है |आम व्यक्ति उसके कष्ट को मनोकल्पित मानता है|सच भीहै धन-दौलत की तो कोई कमी नहीं,अब उसका सोच ही दुनिया से हटकर है तो कोई क्या करे 

सत्या अपने इतिहास के पन्ने पलटती है तो बचपन ,कैशोर्य ,यौवन आँखों के आगे साकार हो जाते हैं|माँ की दुलारी बिटिया अपने २१वे वर्ष में स्वयं एक नन्हे-मुन्ने की माँ बन बैठी है |माँ से उसने जितना प्यार पायाहै सब अपने शिशु की झोली में डाल देना चाहती है पर अफ़सोस ऐसा कर नहीं पाती,उसकी हर बार की कोशिश नाकाम हो जाती है|मात्र इसलिए कि वह जननी नहीं सिर्फ पालिता है पालिता|उसका स्नेह शंकित निगाहों के घेरे में है|

  पालिता होने के भी एक लंबी कहानी है|संवेदनशीलता,दया,उदारता,निस्वार्थ सेवा भाव से पोषित सत्या की प्रारम्भ से ही ये इमेज रही है कि उसे कैसी भी दुर्दमनीय स्थिति यों में डाल दो ,लौटकर वापिस आजायेगी|घर भर को उस पर बड़ा नाज है|

उसे भी अपने पर बड़ा भरोसा है तभी तो असामायिक कष्ट से पीड़ित एक बिखरते परिवार को बचाने का संकल्प लिए सत्या इन्द्रसेन की  विवाहिता और दुधमुहे बच्चे की माँ बन बैठी |इन्द्र तो सत्या के ऊपर न्योछावर से रहते है|उन्हें लगाने लगा है दुःख की बदली छंट गई है,फिर सुख के दिन आगये है|इन्द्र अपनी मित्रमंडली के सिरमौर हैअपनी बातों और हंसमुख स्वभाव के कारण |लौटकर घर आते है तो सब व्यवस्थित मिलता है|उनके कंधे काबोझ अब बँट गया है अब उन्हें माँ नहीं बनाना पड़ता ,घर में माँ जो आगई है|ऐसैन्द्र और सत्या मानते हैं पर घरवालों की नज़रों में माँ नहीं ,केवल काम में हाथ बंटाने वाली आई है|

इन्द्र की द्रष्टि में गाड़ी थर्ड गेयर में में दौड रही है|नन्हे कान्हा को विगत याद नहीं अत: वह सत्या को माँ ही कहता है|घुटनों के बल सरकता कान्हा अब दौड़ने लगा है|उसे देख माँ के मन में लड्डू फूटते है तभी एक बुजर्ग शख्शियत कान्हा को बुरी नजर से बचाने के लिए अपने आँचल में छुपा लेती है और सत्या एकांत में अपनी उपेक्षा को भीगे आँचल में समेत लेती है|बुजुर्गयित का सम्मान करते -करते सत्या के धैर्य का बाँध टूटने लगा है|क्या उसे मशीन माना जारेअहा है,मात्र कलपुर्जों का संकलन,जिसमें भावना का कोई स्थान नहीं |काश ऐसा होता पर उसके सीने में धडकता दिल मौजूद है  जिसेलाड- प्यार को सूद सहित किश्तों में चुकाने की बात बेमानी लगती है |कान्हा नटखट है ,नासमझ है,गलतिया भे करता है बच्चा जो ठहरा पर जब माँ उसे गलातिलों का अहसास कराने बैय्हती है तो बिजली की फुर्ती से नंबर दो की माँ  होने का बिल्ला उस पर चस्पा कर दिया जाता है| कान्हा की गलतियों पर प्लास्टर चडाते डाक्टरों से उसे बेहद चिद होती है| वह उन्हें अपनी जिंदगी से निकाल फैंकना चाहती है पर इन्द्र का भोला चेहरा उसकी आँखों के  आगे तैर जाता है|इन्द्र के ऊपर अहसानों  का बोझ है जिसे इस जन्म में तो नहीं उतारा जा सकेगा?

  माँ सत्या तलवार की धार पर चलती है|यश बड़ों के हाथ में और गडबड सदा से सत्या के सर मादी गई है|क्या सत्या जैसी मांओ के हस्से केवल कर्तव्यों की लंबी फेहरिस्त ही आती है और अधिकार के नाम पर शेष शून्य ही बचाता है?अल्हड़ सत्या अचानक बहुत बड़ी हो गई है|उसे माँ होने में गरिमा अनुभव होती है|पर निर्देशों की बौछार से कभी माँ नहीं बनाने  देती |इन्द्र के साथ होने पर उसे अपराध बोध सालता है कहीं कान्हा से  पिताभी ना छिनजाए|बदता कान्हा अब सब समझाने लगा है|अपने घर में माँ को टोकते देख माँ से ही पूछ बैठता है और किसी के घर में तो ऐसा नहीं होता सब बच्चे मम्मी के साथ जाते,खाते सोते है| हमें क्यों हर कदम पर बूढों पर छोड़ दिया जाता है |सत्या ने उसे सब कुछ अक्षरश: बता दिया है|किश्तों में फीड की गई सूचनाओं  की कड़ी अब जुडती जा रही है| कल की हल्की- फुलकी दांत को मेग्नीफाई करके देखा जारहा है| कान्हा के मन में कब का पलता विद्रोह अब रंग लाने लगा है| मन में बे्मालूम सी दरार आ गई है|माँ-बेटे दोनों ही ओवर कान्सास हो गए है|गाहे-बगाहे माँ की अनुपस्थिति में जो कुछ थमाया गया है, अब उसे भुनाने का दौर जारी है|

   ऐसी बदलती स्थितियों से सत्या स्तब्ध है | माँ होने का दायित्व बोध गहराता है तो सब कुछ छोटा लगता है पर जब उसके स्नेह को संदिग्ध   मानकर टिप्पणी उछाली जाती है ,माँ बहुत आहात होती है|उसे लगता है प्रेमचनद की निर्मला याँ शकुन कभी गलत नहीं थी, लेखक गन केवल एक पक्ष को बड़ा-चदा कर प्रस्तुत कर पाठकों की सहानुभूति लूटते रहे| जो मुहरा बना, उस पर तो कभी किसी का ध्यान गया ही नहीं| उसे पैरों टेल कुचला गया पर आशा की गई कि उसके मुँह से उफ़ तक ना निकले,बल्कि वह  हमेशा तरोताजा मुसकाराहत बिखेरती रहे,सिर्फ इसलिए कि उसने किसी की सेवा का संकल्प लिया है,सिर्फ इसलिए कि वह उदारमना है|

        स्थिति की भयाबहता से माँ पलायन का रास्ता चुनती है पर दूसरे ही क्षण मस्तिष्क उस के पलायन पर हावा हो जाता है-समाज को सच्छी का आइना दिखाओ सत्या वरना सबकी सहानुभूति बिन माँ के बच्चे के ओर ही रह जायेगी,तुम माँ बनकर भी माँ नहीं बन पाऊगी, बच्चा मन करके बिगडेगा लेकिन उसे रोकने का साहस कौन जुटाएगा?दूसरी माँ होने का दोष ही इतना बड़ा है कि वह हर बार एक ही आक्षेप लगायेगा, इस हथियार के गलत उपयोग से उसकी जिंदगी अँधेरे के गर्त में चली जायेगी|

उसे रोको सत्या, अभी समय है| हिम्मत मत हारो माँ, तुमने किसी को बचाने कासंकल्प लिया है| तुम अकेली कहाँ हो, समाज की ढेरों सत्या तुम्हारे साथ हैं,बात जोह रही है कि कोई देवदूत आये और उन्हें रास्ता दिखाए,बताए सबको कि सत्या जैसी माओ की समस्या क्या है?उन्हें बदनाम तो किया गया पर किसी ने कारण नहीं जाना | मूल और नक़ल का अंतर बताते हुए समाज ने उसके मातृत्व को भुनाया है,पड़े-लिखों की जमात में एक भी ऐसा नहीं निकला जो उनका पक्ष रखा सकता| सबने केबल अपना स्वार्थ देखा\छोटी-छोटी बातों में केवल सौतेली तराजू पर ही तुला गया ?क्या बच्चे कभी पिटते नहीं,क्या उनको कभी डांटा नहीं जाता 

,उनकी अनुचित मांग के लिए कभी मना नहीं किया जाता, ऐसा होता है लेकिन वही जब सत्या माँ करती है तो उसके सन्दर्भ बदल जाते है,वह दोष हो जाता है केवल इसलिए कि उस शिशु की धाय है जननी नहीं|सभी के मुख तो खुले है कि कहने के लिए पर कान पूरी तरह बंद है| किसके आगे खोलेगी सत्या अपना मन, पति के आगे पर वह तो पिता हैं कैसे समझेंगे एक माँ की पीड़ा को|उसे केवल आदर्शवादी होने की संज्ञा दी गई है|आदर्शवादी सत्या को अपने विचार टाट में मखमल का पैबंद  नजर आते हैं ,आया करें ,सत्या को क्या परवाह है , वह तो कपड़ों की धुल झाडकर जीवन संग्राम में फिर तन कर खड़ी हो गई है| समाज से दो-दो हाथ करने |वह जानती है इसमें उसे घायल होना पडेगा, अपनो की जाली-कटी सुननी होगी,सपूत उसे दोषी ठहराएगा ,इन्द्र पशोपेश में होंगे,बुगुर्ग अपनी बुजुर्गियत को भुनाएंगे  फिर भी सत्या एक आदर्श स्थापित करेगी क्योंकि यह उसका सपना है|

ा 

Sunday, March 28, 2010

मुखौटे

दृष्टि जाती जहा-जहा

मुखौटे पाती वहा-वहा

मानो,हर चेहरा चेहरा नही

मुखौटा है।

शायद अब मुखौटे नही बिकते

चेहरे बिकते है बाबा के मोल।

एक मुखौटा चस्पा है

मेरे भी मुख पर

क्योंकि ठानी है मैने

सच कहने की।

रिश्ते-नातो मे बन्धी मै

मुखौटे दर मुखौटे चडाती जाती  हू।

कही मै किसी की जाया हू

तो कही कोईमेरी जाया है।

कभी सहोदरो का अनुराग है

तो कभी जीवंभर का साथ है।

ये मुखौटे ,दिल्चस्प मुखौटे

हर बार विजयी होते है

सच की ताकत को खीच लिये जाते है।

2.एक दफा,कीथी कोशिश मैने

सभी मुखौटे उतारने की

रात के घुप्प अन्धेरे मे

बन्द कमरे के सन्नाटे मे

सम्बन्धो का जाल

तेज़ दांतो से कुतरा।

उतारते-उतारतेमुखौटे

थक गये मेरे हाथ,बीतने लगी रात,

देखाआइने मे,करोडो मुखौटो के बीच

बदरंग चेहरा।

अंगाठादिखाते सुन्दर मुखौटे

फूले नही समाते।
और मै उस बदरंग 

चेहरे के साथ आज भी 

बिना मुखौटे के आज भी

जीवित हू।

पर मुझे घोर अव्यावहारिक 

की संज्ञा दी जाती है

और सब ओर से दरकिनार

कर दिया जाता है।


 




Tuesday, March 23, 2010

और छोटू बडा हो गया ।

अभी तो 

अपना छोटू

छोटू था ।

लडता -झगडता-और मचलता

अपनी छोटी-छोटी जिदो

को मनवाने की खातिर।

रूठना-मटकना और 

फिर हारकर

अम्माके आंचल मे

दुबक कर सोजाना।

और जगना

फिर इक नई मासूमियत के साथ।

पर अब ये सब बीती

बाते है

क्योंकि आधुनिकता तो

जल्दी-जल्दी 

बडा होनाभर

सिखाती है।जिम्मेवार बनाती है

भले ही सारा का सारा 

बचपन बिला भरजाये।



मन की बात

बड़ी-बड़ी बातों को कहना और उन्हें व्यवहार में लाना 
दूसरों के लिए सिद्धांत बनाना और उस पर स्वयं चलना 
सत्य को रट लेना और उसको आचरण में उतार पाना 
यदि सरल ही होता ,तो आज सब पंडित हो गए होते | 

जब बात अपने वजूद की होती है 
तो हम ही नहीं बदलते 
हमारी परिभाषाएँ भी 
तेजी से बदलती है| 
मसलन सत्य बदलता है 
नाते रिश्ते बदलते हैं 
चेहरे बदलते हैं 
वादे बदलते है 
और यह सब बदलता है 
मात्र अपने को बनाए रखने की खातिर|

Monday, March 22, 2010

मेरे घर गौरैया आयी है

आज मैं बहुत खुश  हूँ 

क्योंकि मेरे घर 

गौरैया आयी है

अभी -अभी 

उसने चावल और गेंहू 

के दाने भी चुगे

और कुल्लड में रखे

पानी में चोंच भी बोरी है|

मैंने उसे अपनी आँखों से देखा है

अब वह मेरे बगीचे की

बोगंबिलिया के झुर्मुट में

अपने सखी-सहेलियों से 

बतरा रही है|

देखो वो भोली गौरैया 

मुझे निहारती है

और चुन-चुन करती 

कह ही देती है

अपने मन की बात|

मै फिर आउगी

बस करनामुझसे बात

मत रहना उदास

मेरा घोंसला कहीं भी हो 

पर ये पड़ाव भी

मुझे बहुत भाते है|

जहां मुझे मिल जाए इंसान 

और मुझे देख नाचें बच्चे|

Friday, March 19, 2010

अध्यापक शिक्षा और मूल्य बोध

  जे. कृष्णमूर्ति के शब्दों में –"जानकारी इकठ्ठा करना और तथ्यों को बटोरकर आपस में मिलाना ही शिक्षा नहीं है,शिक्षा तो जीवन के अभिप्राय को उसकी समग्रता में देखना-समझना है|-----पूर्णत: समन्वित प्रज्ञाशील मनुष्य तैयार करना है|परीक्षा और उपाधि प्रज्ञा का मानदंड नहीं है|"उक्त सन्दर्भ
उक्त सन्दर्भ में आज की शिक्षा हमें बौद्धिक और सूचना-संपन्न भले ही बना रही हो परन्तु यह भी सच है कि हमने संवेदना की कीमत पर बुद्धि का विकास किया है|शिक्षा देने का काम शिक्षक का है और एक सच्चे शिक्षक के लिए अध्यापन तकनीक नहीं ,वह उसकी जीवनपद्धति है |क्या हमने कभी उन कारणों को तलाशने की कोशिश की है जिनके कारण शिक्षा मूलभूत शैक्षिक मूल्यों की अपेक्षा से दूर होती जा रही है ?निश्चित रूप से हमने बहुत सी पुस्तकें पढ़ी हैं ,उन सूचनाओं को याद भी कर लिया है ,परीक्षाएं भी पास कर ली हैं ,हमारे पास बहुत सारी उपाधियां भी हैं और इन उपाधियों ने हमें जीविका के साधन भी उपलब्ध करा दिए हैं|इसका अर्थ है यदि शिक्षा रोजगार के लिए थी ,तो हम निश्चित रूप से सफल हुए हैं| पर यह भी उतना ही सच है कि आज हम मशीन तो हुए हैं पर मनुष्यता कहीं बहुत पीछे छूट गई है|हमारी संवेदना दिन-प्रतिदिन मरती जा रही है|हमारे पास भौतिक सम्रद्धि तो अपार है पर हमारी संस्कृति ,हमारे मूल्य ,हमारे आपसी सम्बन्ध ,हमारी जड़े खोखली होती जा रही हैं और आज का सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यही है |
  शिक्षा देने का कार्य मुख्य रूप से शिक्षक का है | शिक्षक एक निश्चित पाठ्यक्रम और निश्चित शिक्षण विधि के अनुसार एक सिस्टम में बंधकर अपना कार्य करता है||उसे केवल उतना करना है जितना उसके लिए निर्धारित है||वह उड़ाका.गोताखोर अथवा तैराक के रूप में अपना कार्य करता है जबकि आज की परिस्थिति में उसे स्वयं को रूई धुनने बाला धुनिया और कुम्हार के रूप में प्रस्तुत करना होगा|दर असल मूल्य शिक्षा केवल किताबों का विषय हो ही नहीं हो सकती, उसे तो व्यवहार में दिखना चाहिए|समय का मूल्य सिखाने के दो उपाय हो सकते हैं |पहला आप छात्र को यह वाक्य याद करने को देंदे और दस पांच बार लिखवा लें और दूसरा उपाय है आप स्वयम दैनिक जीवन में इस आचरण का पालन करें |
  केवल नोट्स और मोडल पेपरों से काम ना चलायें,मूल ग्रंथों का अध्ययन करें|
इंटरेक्टिव मेथोडोलोजी को अपनाएँ |हम मूल्यों को संप्रेषित करने के लिए पहले स्वयं तो संवेदित हो|बदलते परिवेश में मूल्यों की निश्चित दिशा तो तय करें|अब परिवेश में भौतिक संसाधन ही तो बदले हैं ,उनके साथ हम मूल्यों को कैसे नकार सकते है?वैसे भी शाश्वत मूल्य तो कभी नहीं बदला करते,हाँ,उस तक पहुँचने के साधन और कर्मकांड जरूर बदल जाते हैं|
यदि हम चरित्र और व्यक्तित्व को स्थान ही नहीं देते ,तो प्रत्येक स्तर पर हमें इतने चरित्रों के अध्ययन की क्या आवश्यकता थी?किसी भी परिस्थिति में हमारा द्रष्टिकोण 
और निर्णय बहुत मायने रखते हैं|शिक्षा जीवन को दिशा देने के लिए होती है,उसे भटकाव में छोड़ने के लिए नहीं|
  इन विषम परिस्थितियों में भी हम असमर्थताओं में नहीं ,भरपूर संभावनाओं में घिरे हैं|ईमानदारी,बहादुरी,सत्य,दया,सहानुभूति,परदुख कातरता ,क्षमा ,अस्तेय ,क्या इन मूल्यों की वर्तमान में आवश्यकता नहीं बची है,क्या ये मूल्य अपने अर्थ खोते जा रहे हैं?मेरा विचार है नहीं,आज भी इन शाश्वत मूल्यों का महत्त्व कम नहीं हुआ है|यदि ऐसा होता तो शिक्षा जगत के लिए तारें जमीन पर, थ्री इडियट , और मुन्ना भाई की फ़िल्में इतनी सामयिक ना होती|अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा आयोग जिसके अध्यक्ष जाक डेलर्स थे ,ने अपनी रिपोर्ट ज्ञान का खजाना में स्पष्ट रूप से संकेत दिया है कि जीवन भर चलने 
वाली शिक्षा मुख्य रूप से चार स्तंभों पर टिकी होती है-१.जानने के लिए ज्ञान २.करने के लिए ज्ञान ३.साथ रहने के लिए ज्ञान और४.होने (अस्तित्व ) के लिए ज्ञान |
  शिक्षा का उद्देश्य निश्चित ही रोजगार स्रजन है पर शिक्षा हमें बेहतर मनुष्य भी बनाए जिसमें मानवीय गुण हों तथा विश्व को बेहतर ढंग से रहने वाली जगह बनाए|यदि ह्रदय सच्चा है तो चरित्र होगा|चरित्र के साथ घर में शान्ति होगी और जहां घर अच्छे हैं ,उससे राष्ट्र और विश्व प्रभावित होगा|
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सब बया कहाँ होता है ?

हर पल जो घट जाता 

सब बया कहाँ होता है?

तुम दूर चले जाते हो

दीदार कहाँ होता है?

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मन को बहुत लुभाता

शैशब् का तुतलाना |

मन किशोर की उलझन

को खुली आँख सुलझाना |

श्रद्धेयों को मान खूब दिया जाता है|

पर उनके आगे क्या

मन खोला जाता है?

रिश्तों के खेल निराले

धूप छाँव दिखलाते|

स्वार्थ प्रेम दिखला कर

छुरा साथ ले चलते|

अब शेष रहे हो प्रियवर 

मन मुखर हुआ चाहता है|

मौन बिखर -बिखर कर

खंडित होना चाहता है|

जो बदले तेरे तेवर

झेल नहीं पायेंगे|

उमड़ेगी पीड़ा फिर-फिर

ढुलक अश्रु जायेंगे|

रीता करने की आदत

हो गई बहुत पुरानी |

चुप-चुप सुनते जाना

गुन-गुन गाने की ठानी |

चुपचुप  गुनगुन में ही

जीवन सार्थक हो जाता|

गुनगुन का चुप हो जाना 

है सबको सदा अखरता |

वैसे भी जो घट जाता

बस घट भर जाता है|

हम तुममें से कोई 

ना रोक इसे पाता है|

अनहोनी जब भी घटती

चोंका भर जाती है|

बार -बार कहने से निष्ठा

गलाने लगती है|

जो भाग्य लिखा है तेरा

उसको तू ही भोगेगा|

श्रम धैर्य और लगन से

रेखा तू ही बदलेगा|

अभिनव नूतन क्या होगा

शेष रहा अब क्या है?

तीन चौथाई  बीती

शोधन को क्या धरा है?

ये थी कल कीबातें 

अब समय बदल चुका है |

शोधन करना चाहे 

तो जब चाहे कर लेगा |

जीवन के टुकड़े करना

कोई अच्छी बात नहीं है|

Thursday, March 18, 2010

अपना दीपक स्वयं बनो|

चल पड़े

एक से दो होने

मानो वह अकेले

और बिलकुल अकेले थे|

अखबारों में दिए इश्तहार

और डाल दिया बायोडेटा 

मेरिज ब्यूरो पर|

और जब खोज हुई पूरी  

मिला दूसरासाथी

जिसे हमसफ़र 

कहने का चलन था|

अचानक खुशियों की हुई बारिश

झमझमा झम |

सफर अभी एक चौथाई भी 

तय नहीं हो पाया 

कि

घिर आये बादल

बरसने लगे मेघ,चमकी बिजली 

और ओले भी गिरे टपटपाटप|

हमसफ़र कहे जाने वालेजीव

के बदले तेवर

टेड़ी हुई भ्रकुटी 

और चुपचाप खिसक लिए 

नए आशियाँ की तलाश् में|

तब जाकर राज खुला 

अरे वह तो बालू की दीवार था

क्या सहारा दे पाता?

जिसमें खुद खड़े रहने

का साहस नहीं |

तब याद आया

बुद्ध का वचन

अप्प दीपो भव

अपना दीपक स्वयं बनो|

गलत सहारा मत चुनो|

तुम्हारी मर्जी है|

न जाने 

समय की मार 

हमें कहाँ ले जायेगी

और बुदबुदाते हुए हम

गुदगुदाए जाने पर भी

लंबे सोच में बैठे रह जायेगे 

अपनी पीड़ा को ना भूल पायेंगे|

नश्तर जो चुभोये गए दिल में

भीतर तक

उन्होंने सारा लहू निचोड़ लिया है|

सख्त खाल में 

चुभन अब होती नहीं

आँखों का पानी सूख चुका है|

अब जो शेष है

उसे कहने से भी क्या

तुम 

महसूस सकते हो 

तो महसूस लो 

दुखती रग पर 

जलाते अंगारे रखो

या अनुभूति की छुअनसे

उन्हें सहला दो

तुम्हारी मर्जी है|

Wednesday, March 17, 2010

परिभाषित होता है|

मेरे द्वारा संचित 

स्नेहिल भावनाएं 

वस्तु के रूप में

तुम तक पार्सल की जाती है

और तुम्हारे द्वारा 

दस पांच के मध्य 

क्रय-विक्रय की नीति से 

ेउनको बाँट लिया जाता है|

मेरा स्नेह

बदले में भुना लिया जाता है

और 

आँखों देखा हाल मुझ तक 

धीरे-धीरे पास किया जाता है |

बौनी होती मैं

सोचने पर विवश होती हूँ|

तुम्हारा प्यार

मेरी कमजोरी बन गया है

दिल का धडकना

मजबूरी बन गया है|

अब शेष है वह

जो मेरे तुम्हारे बीच-

होने जैसा परिभाषित होता है|

इनसे ही तेरा नाता है|

अधिकार भाव की मादकता

जन-जन को ललचाती है |

चुभते कीलो की पीड़ा 

भी सुखदायक होती है|

स्वयम नियंता बन जाना

अहमी दम्भी हो जाना |

अधिकारी के आभूषण है

होता जिनसे वह दूषित है|

ऊंची कुर्सी पर बैठ -बैठ 

अपनी अंगुली पर नचा

जन को ,वह खुश हो लेता|

खिसक गई कुर्सी जिस दिन

नौ-नौ आंसू रो लेता है|

जब कुर्सी आनी -जानी है

काहे तू इतराता है|

बन विनीत और सज्जन हो

इनसे ही तेरा नाता है|

माँ-बेटी

माँ

तुम माँ होकर भी 

अपने गरिमा को सहेज नहीं पाती हो |

युवा होती बच्ची से 

बहस कर अपनी इज्जत में बट्टा लगाती हो |

+++++++++

शैशब का तुतलाना

आज 

व्यंग वाणों में  और कल का दुलार 

खीझ बन बरसा है|

++++++++++++++++++++++++

यह,वही नन्ही बच्ची है

जिसके माथे की तपन से 

तुम्हारा कलेजा

मुँह को आता था |

यह वही माँ है 

जिसने सब कुछ गवां 

तुम्हें,मात्र ,पाया था|

+++++++++++++++++++++++++

आज

दोनों ही

अपने-अपने भाव को भुला 

रणक्षेत्र  में खड़ी हो

मानो एक दूजे की जान लेने को आदी हो|

+++++++++++++++++++++++++++++++++

मेरा कहना मानो तो

माँ तुम माँ 

और तुम फिर से छुटकी 

बन जाओ

वरना चुक जायेगी मेरी संवेदना |

Monday, March 8, 2010

आज महिला दिवस है

जी हाँ आज महिला दिवस है|

सुना है एक विधेयक पास होने की चर्चा है

पर जनाब बड़ी-बड़ी बातो को करने से 

पहले ज़रा विचार कीजिये

कि क्या यह एक दिन के सुनहरे सब्जबाग

और ३६४ दिन का का अंधेरी रात नहीं है

क्या स्वतन्त्र भारत में हमारे अधिकार 

अभी भी दूसरोंके हाथों गिरवी 

रखे है जिसेसाल में एक दिन 

लेने के क्रम में हम ढेरों ठठकरम 

करते है|

क्याब हमारा अपना कुछ भी शेष 

नहीं रहा है

हर अधिकार के लिए हाथ पसारना 

हमारी नियति बन चुकी है|

क्यों हमें हर बार मांगना होता है 

हाथ पसार कर वह सब 

जो आधी आबादी को सहज सुलभ है |

और हम साल में ८मार्च को 

एक दिन बस एक दिन 

अपना मान खुश हो लेते है |

क्योंकि यह तो हम भी जानते है कि

कल वही होंगे ढाक के तीन पात 

Friday, March 5, 2010

अपने शिवत्व को ना छोड़े

शिव अपने गले में सर्प धारण करते हैं ,उनका वाहन वृषभ है|उनके पुत्र कार्तिकेय का वाहन मोर है,जो सर्प का शत्रु है और उसे खाता है|माता पार्वती का वाहन सिंह हैजो वृषभ को अपना भोजन बनाता है |गणेश का वाहन चूहा है जिसका शत्रु सर्प है|शिव रूद्रस्वरूपा ,उग्र और संहारक माने गए हैं तथा उग्रता का निवास मस्तिष्क में हैकिन्तु शान्ति की प्रतीक गंगा उनकी जटाओं में विराजमान है |उनके कंठ में तो विष हैजिससे वे नीलकंठ कहलाये|विष की तीव्रता के शमन के लिए मस्तिष्क में.अर्धचंद्र विराजमान है|सर्प तमो गुना का प्रतीक है जिसे शिव ने अपने वश में कर रखा है|
इस प्रकार सर्प जैसा क्रूर और हिंसक जीव महाकाल के अधीन है|शिव के गले में मुंडमाल इस बात का प्रतीक हैकि उन्होनें मृत्युको गले रखा हैअर्थात इस तथ्य को वे याद दिलाते हैं कि जो जन्म लेताहैवह मरता अवश्य है|शिव द्वारा हस्तिचर्म और व्याघ्र चर्म को धारण करने की कल्पना की गई है |सिंह हिंसा और हाथी अभिमान का प्रतीक है शिव ने इन दोनों को धारण कर रखा है शिव अपने शरीर पर शमशान की भस्म धारण करते हैं जो जगत की निस्सारता का बोध कराती है अर्थात शरीर की नश्वरता की याद दिलाती है |
शिव इसलिए अनुकरणीय है क्योंकि इतने विरोधाभासों में भी शिव बने रहते हैं|संसार में शिव भक्तों की संख्या बहुत अधिक है|हम जिस देवता की अर्चना करते है उस देवत्व का ,कम से कम ,एक गुण का तो पालन करना ही चाहिए|हम विपरीत परिस्थिति में अपने स्वभाव का परित्याग कर देते हैं और तुरंत ही आक्रामक हो जाते है|अनुकूल परिस्थिति ना होने पर भी अपने मूल स्वभाव को ना त्यागना शिवत्व की श्रेणी में आता है और प्रत्येक को इस धर्मका पालन करना तो आवश्यक है|

Thursday, March 4, 2010

जिंदगी का क्या भरोसा

जिंदगी का क्या भरोसा
म्रत्यु पल-पल साथ है|
चार दिन की चांदनी है
फिर अंधेरी रात है|
चांदनी लें अंजुरी भर
यह भी कोई कम नहीं|
खल्क खूनी खंजरों का
आस्तीन में सांप है|
आबरू अपनी बचाकर
हो सके तो निकल चले|
वरना कीच उछालने
वालों की तो बारा त है|
तुम हवा को बाँध लो
धारा नदी की मोड दो|
फितरत को पढले आदमी
यह असंभव बात है|
आदमी हर काम को
स्वार्थ तुला पर तौलता|
व्यवहार में हर बात को
तिल को बनाता ताड़ है
यह हाय तौबा किसलिए
जो मिल रहा स्वीकार ले|
जाए दोनों दीन से
ना घर रहे ना घाट है|
घर द्वार अपने प्यार के
वन्दनवार शवनम से सजे|
हर चमन आबाद हो
यही आरजू यही ख्वाब है|
आगोश में जाने से पहले
मौत के,एक काम कर
कष्ट ले,मुस्कान दे
यही सत्य ,यही अरमान है |
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जिदगी का क्या भरोसा