Monday, March 29, 2010

माँ

सत्यवती राठोर ,इन्द्रसेन की परिणीता है|भरा-पूरा घर है |ससुराल मायका सब संपन्न है |सत्यवती उर्फ सत्या इन्द्र के आँखों की पुतली है पर फिर भी क्या हैऐसा जो हर पल सत्या को बैचेन किये रहता है |आम व्यक्ति उसके कष्ट को मनोकल्पित मानता है|सच भीहै धन-दौलत की तो कोई कमी नहीं,अब उसका सोच ही दुनिया से हटकर है तो कोई क्या करे 

सत्या अपने इतिहास के पन्ने पलटती है तो बचपन ,कैशोर्य ,यौवन आँखों के आगे साकार हो जाते हैं|माँ की दुलारी बिटिया अपने २१वे वर्ष में स्वयं एक नन्हे-मुन्ने की माँ बन बैठी है |माँ से उसने जितना प्यार पायाहै सब अपने शिशु की झोली में डाल देना चाहती है पर अफ़सोस ऐसा कर नहीं पाती,उसकी हर बार की कोशिश नाकाम हो जाती है|मात्र इसलिए कि वह जननी नहीं सिर्फ पालिता है पालिता|उसका स्नेह शंकित निगाहों के घेरे में है|

  पालिता होने के भी एक लंबी कहानी है|संवेदनशीलता,दया,उदारता,निस्वार्थ सेवा भाव से पोषित सत्या की प्रारम्भ से ही ये इमेज रही है कि उसे कैसी भी दुर्दमनीय स्थिति यों में डाल दो ,लौटकर वापिस आजायेगी|घर भर को उस पर बड़ा नाज है|

उसे भी अपने पर बड़ा भरोसा है तभी तो असामायिक कष्ट से पीड़ित एक बिखरते परिवार को बचाने का संकल्प लिए सत्या इन्द्रसेन की  विवाहिता और दुधमुहे बच्चे की माँ बन बैठी |इन्द्र तो सत्या के ऊपर न्योछावर से रहते है|उन्हें लगाने लगा है दुःख की बदली छंट गई है,फिर सुख के दिन आगये है|इन्द्र अपनी मित्रमंडली के सिरमौर हैअपनी बातों और हंसमुख स्वभाव के कारण |लौटकर घर आते है तो सब व्यवस्थित मिलता है|उनके कंधे काबोझ अब बँट गया है अब उन्हें माँ नहीं बनाना पड़ता ,घर में माँ जो आगई है|ऐसैन्द्र और सत्या मानते हैं पर घरवालों की नज़रों में माँ नहीं ,केवल काम में हाथ बंटाने वाली आई है|

इन्द्र की द्रष्टि में गाड़ी थर्ड गेयर में में दौड रही है|नन्हे कान्हा को विगत याद नहीं अत: वह सत्या को माँ ही कहता है|घुटनों के बल सरकता कान्हा अब दौड़ने लगा है|उसे देख माँ के मन में लड्डू फूटते है तभी एक बुजर्ग शख्शियत कान्हा को बुरी नजर से बचाने के लिए अपने आँचल में छुपा लेती है और सत्या एकांत में अपनी उपेक्षा को भीगे आँचल में समेत लेती है|बुजुर्गयित का सम्मान करते -करते सत्या के धैर्य का बाँध टूटने लगा है|क्या उसे मशीन माना जारेअहा है,मात्र कलपुर्जों का संकलन,जिसमें भावना का कोई स्थान नहीं |काश ऐसा होता पर उसके सीने में धडकता दिल मौजूद है  जिसेलाड- प्यार को सूद सहित किश्तों में चुकाने की बात बेमानी लगती है |कान्हा नटखट है ,नासमझ है,गलतिया भे करता है बच्चा जो ठहरा पर जब माँ उसे गलातिलों का अहसास कराने बैय्हती है तो बिजली की फुर्ती से नंबर दो की माँ  होने का बिल्ला उस पर चस्पा कर दिया जाता है| कान्हा की गलतियों पर प्लास्टर चडाते डाक्टरों से उसे बेहद चिद होती है| वह उन्हें अपनी जिंदगी से निकाल फैंकना चाहती है पर इन्द्र का भोला चेहरा उसकी आँखों के  आगे तैर जाता है|इन्द्र के ऊपर अहसानों  का बोझ है जिसे इस जन्म में तो नहीं उतारा जा सकेगा?

  माँ सत्या तलवार की धार पर चलती है|यश बड़ों के हाथ में और गडबड सदा से सत्या के सर मादी गई है|क्या सत्या जैसी मांओ के हस्से केवल कर्तव्यों की लंबी फेहरिस्त ही आती है और अधिकार के नाम पर शेष शून्य ही बचाता है?अल्हड़ सत्या अचानक बहुत बड़ी हो गई है|उसे माँ होने में गरिमा अनुभव होती है|पर निर्देशों की बौछार से कभी माँ नहीं बनाने  देती |इन्द्र के साथ होने पर उसे अपराध बोध सालता है कहीं कान्हा से  पिताभी ना छिनजाए|बदता कान्हा अब सब समझाने लगा है|अपने घर में माँ को टोकते देख माँ से ही पूछ बैठता है और किसी के घर में तो ऐसा नहीं होता सब बच्चे मम्मी के साथ जाते,खाते सोते है| हमें क्यों हर कदम पर बूढों पर छोड़ दिया जाता है |सत्या ने उसे सब कुछ अक्षरश: बता दिया है|किश्तों में फीड की गई सूचनाओं  की कड़ी अब जुडती जा रही है| कल की हल्की- फुलकी दांत को मेग्नीफाई करके देखा जारहा है| कान्हा के मन में कब का पलता विद्रोह अब रंग लाने लगा है| मन में बे्मालूम सी दरार आ गई है|माँ-बेटे दोनों ही ओवर कान्सास हो गए है|गाहे-बगाहे माँ की अनुपस्थिति में जो कुछ थमाया गया है, अब उसे भुनाने का दौर जारी है|

   ऐसी बदलती स्थितियों से सत्या स्तब्ध है | माँ होने का दायित्व बोध गहराता है तो सब कुछ छोटा लगता है पर जब उसके स्नेह को संदिग्ध   मानकर टिप्पणी उछाली जाती है ,माँ बहुत आहात होती है|उसे लगता है प्रेमचनद की निर्मला याँ शकुन कभी गलत नहीं थी, लेखक गन केवल एक पक्ष को बड़ा-चदा कर प्रस्तुत कर पाठकों की सहानुभूति लूटते रहे| जो मुहरा बना, उस पर तो कभी किसी का ध्यान गया ही नहीं| उसे पैरों टेल कुचला गया पर आशा की गई कि उसके मुँह से उफ़ तक ना निकले,बल्कि वह  हमेशा तरोताजा मुसकाराहत बिखेरती रहे,सिर्फ इसलिए कि उसने किसी की सेवा का संकल्प लिया है,सिर्फ इसलिए कि वह उदारमना है|

        स्थिति की भयाबहता से माँ पलायन का रास्ता चुनती है पर दूसरे ही क्षण मस्तिष्क उस के पलायन पर हावा हो जाता है-समाज को सच्छी का आइना दिखाओ सत्या वरना सबकी सहानुभूति बिन माँ के बच्चे के ओर ही रह जायेगी,तुम माँ बनकर भी माँ नहीं बन पाऊगी, बच्चा मन करके बिगडेगा लेकिन उसे रोकने का साहस कौन जुटाएगा?दूसरी माँ होने का दोष ही इतना बड़ा है कि वह हर बार एक ही आक्षेप लगायेगा, इस हथियार के गलत उपयोग से उसकी जिंदगी अँधेरे के गर्त में चली जायेगी|

उसे रोको सत्या, अभी समय है| हिम्मत मत हारो माँ, तुमने किसी को बचाने कासंकल्प लिया है| तुम अकेली कहाँ हो, समाज की ढेरों सत्या तुम्हारे साथ हैं,बात जोह रही है कि कोई देवदूत आये और उन्हें रास्ता दिखाए,बताए सबको कि सत्या जैसी माओ की समस्या क्या है?उन्हें बदनाम तो किया गया पर किसी ने कारण नहीं जाना | मूल और नक़ल का अंतर बताते हुए समाज ने उसके मातृत्व को भुनाया है,पड़े-लिखों की जमात में एक भी ऐसा नहीं निकला जो उनका पक्ष रखा सकता| सबने केबल अपना स्वार्थ देखा\छोटी-छोटी बातों में केवल सौतेली तराजू पर ही तुला गया ?क्या बच्चे कभी पिटते नहीं,क्या उनको कभी डांटा नहीं जाता 

,उनकी अनुचित मांग के लिए कभी मना नहीं किया जाता, ऐसा होता है लेकिन वही जब सत्या माँ करती है तो उसके सन्दर्भ बदल जाते है,वह दोष हो जाता है केवल इसलिए कि उस शिशु की धाय है जननी नहीं|सभी के मुख तो खुले है कि कहने के लिए पर कान पूरी तरह बंद है| किसके आगे खोलेगी सत्या अपना मन, पति के आगे पर वह तो पिता हैं कैसे समझेंगे एक माँ की पीड़ा को|उसे केवल आदर्शवादी होने की संज्ञा दी गई है|आदर्शवादी सत्या को अपने विचार टाट में मखमल का पैबंद  नजर आते हैं ,आया करें ,सत्या को क्या परवाह है , वह तो कपड़ों की धुल झाडकर जीवन संग्राम में फिर तन कर खड़ी हो गई है| समाज से दो-दो हाथ करने |वह जानती है इसमें उसे घायल होना पडेगा, अपनो की जाली-कटी सुननी होगी,सपूत उसे दोषी ठहराएगा ,इन्द्र पशोपेश में होंगे,बुगुर्ग अपनी बुजुर्गियत को भुनाएंगे  फिर भी सत्या एक आदर्श स्थापित करेगी क्योंकि यह उसका सपना है|

ा 

3 comments:

  1. सत्या के सपने, उसके संकल्प और उसकी सच्ची साधना को मेरा सलाम ! ऐसे इंसान इस धरती पर विरले ही होते हैं जिन्हें उनके बलिदान और समर्पण का सही सिला मिलता है ! सांसारिक दृष्टिकोण से सत्या शायद घाटे में रह गयी लेकिन मानवीयता के दृष्टिकोण से वह जिन ऊंचाईयों को छू चुकी है अन्य कोई उन्हें छू लेने की कल्पना स्वप्न में भी नहीं कर सकता ! सत्या के साधुवाद को मेरा ह्रदय से नमन !

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  2. वीणा जी, आपने एक बिरोधाभास को बहुत ही सम्वेदनशीलता के साथ उजागर किया है. नमन.

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